हिन्दू विवाह (Hindu Marriage) (धारा 5-8)

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हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार वैध विवाह के लिए आवश्यक शर्तें (Condition for the validity of marriage)

विवाह एक प्राचीन एवं लगभग सर्वव्यापी संस्था है। लगभग सभी समाजों में इसे सम्मानीय एवं पवित्र माना जाता है। इसका कारण यह है कि यह विवाह के दोनों पक्षकारों को ही नहीं, बल्कि उनके बच्चों को भी एक विधिक स्थिति प्रदान करता है। विवाह से कुछ सामाजिक एवं विधिक दायित्व एवं अधिकार प्राप्त होते है। जिन्हें राज्य एवं कानून भी मान्यता देता है।

सामान्यतः विभिन्न क्षेत्रों, समाजों, धर्मो, जातियों इत्यादि में विवाह का स्वरूप भिन्न और विशेष होता है लेकिन उनमें मूल रूप से दो शर्तें लगभग सभी में होती हैं-

पहला, विवाह के लिए सामर्थ्य का होना, और

दूसरा, विवाह के लिए निश्चित अनुष्ठानों का होना।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 विवाह कि लिए सामर्थ्य का और धारा 7 विवाह के लिए अनुष्ठानों का प्रावधान करता है। अनुष्ठानों का रूप भिन्न हो सकता है पर किसी न किसी प्रकार का विशेष अनुष्ठान का किया जाना आवश्यक है। पहले अर्थात् विवाह के सामर्थ्य मे मामले में वर्तमान में प्रचीन विधि से महत्वपूर्ण अंतर आया है। प्रचीनकाल में आयु, द्विविवाह, मानसिक रूप से स्वस्थ होने जैसे कोई पाबंदियाँ नहीं थी, विशेषकर पुरूषों द्वारा विवाह करने पर। लेकिन वर्तमान हिन्दू विधि में ये पाबंदियाँ लगाई गई है। साथ की अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह, जाति संबंधी और गोत्र संबंधी पाबंदियों को अमान्य कर दिया गया है। पर सपिण्डा विवाह, निकट संबंधियों में विवाह आदि जैसी कुछ पाबंदियाँ जो सामाजिक रूप से मान्य हैं उसे बनाए रखा गया है।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 विवाह के लिए सामर्थ्य का प्रावधान करता है अर्थात् कोई हिन्दू इस अधिनियम के तहत तभी विवाह कर सकता है जब कि वह इस धारा की शर्तें पूरी करे अर्थात् इस धारा के अनुसार विवाह के लिए सामर्थ्य रखता हो।

धारा 5 इस अधिनियम के अनुसार वैध विवाह के लिए निम्नलिखित आवश्यक शर्ते का प्रावधान करता है:

1. दोनों पक्षों का कोई जीवित पति या पत्नी नहीं होना चाहिए अर्थात् कोई भी हिन्दू स्त्री या पुरूष एक साथ एक से अधिक पति या पत्नी नहीं रख सकता है। [धारा 5 (i)]

2. विवाह के समय दोनों ही पक्ष मानसिक रूप से सक्षम हो ताकि विवाह के लिए वैध सहमति दे सके। [धारा 5 (i) (a)]

3. दोनों पक्षों में से किसी को इस तरह की कोई मानसिक बीमारी या असमान्यता नहीं हो कि वह विवाह या संतान प्राप्ति के लिए असक्षम हो। [धारा 5 (i) (b)]

4. किसी पक्ष को पागलपन के दौरे बार-बार नहीं पड़ते हो। [धारा 5 (i) (c)]

5. विवाह के समय पति की उम्र 21 तथा पत्नी की 18 से कम न हो। [धारा 5 (iii)]

6. दोनों पक्षों में ऐसा रिश्ता न हो जिनमें विवाह मान्य नहीं हो। पर अगर किसी समुदाय विशेष में उनकी परम्पराओं के द्वारा ऐसे विवाह मान्य हो तो यह मान्य होगा। [धारा 5 (iv)]

7. दोनों पक्ष सपिंडा नहीं हो अर्थात् दोनों के तीन पीढ़ियों तक कोई रिश्ता न हो। अगर किसी समुदाय विशेष में सपिंडा विवाह मान्य हो तो इस एक्ट के तहत भी यह विवाह मान्य होगा। [धारा 5 (v)]

उपर्युक्त शर्तों के उल्लंघन का परिणाम-

उपर्युक्त मे से (1), (6) और (7) का उल्लंघन कर किए गए विवाह (अर्थात् द्विविवाह, अमान्य संबंधों में विवाह और पिण्डा विवाह) विधि की दृष्टि में शून्य है।

(6) और (7) उल्लंघन दण्डनीय भी है। निषिद्ध रिश्तों में विवाह या सपिंडा विवाह करने पर एक महिने के सादे कैद और एक हजार रू तक का जुर्माना हो सकता है। [धारा 18, हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955]

(2), (3) और (4) का उल्लंघन कर किया गया विवाह (मानसिक रूप से अक्षम व्यक्ति द्वारा विवाह) शून्यकरणीय होता है अर्थात् विवाह का कोई पक्ष अगर चाहे तो विवाह शून्य घोषित करवाने के लिए न्यायलय मे जा सकता है। जब तक विवाह शून्य घोषित नहीं कर दिया जाता है तब तक यह वैध विवाह माना जाएगा।

(5) का उल्लंघन कर किया विवाह (अर्थात् निर्धारित आयु सीमा से कम उम्र के व्यक्ति का विवाह) शून्य या शून्यकरणीय नहीं होता है पर यह दंडनीय अपराध है जिसके लिए अधिकत्तम 2 वर्ष तक के सश्रम कारावास और एक लाख तक का जुर्माना हो सकता है। (धारा 18, हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955)

अधिनियम के अन्तर्गत हिन्दू विवाह की वैधता के संबंध में समाज या पति-पत्नी के माता पिता द्वारा विवाह को मान्यता देना कोई पूर्व शर्त नहीं है। यदि धारा 5 में प्रतिपादित शर्तें पूरी होती हैं तो वह विवाह मान्य होता है। [वाल्सम्मा पॉल विरूद्ध कोचीन विश्वविद्यालय (AIR 1996 SC 1011) अगर कोई स्त्री-पुरूष एक लंबें समय तक एक छत के नीचे एक साथ रहे और संबंध बनाए रखे तो यह धारणा (Presumption) बनाया जा सकता है कि वे पति-पत्नी हैं। (एस पी एस बाला सुब्रम्न्यम बनाम सुरूट्टयम– उच्चतम न्यायालय, 1992)

वर्तमान हिन्दू विधि में नातेदारी के आधार पर विवाह की प्रतिषिद्धि को दो भागों में बाँटा गया है- (1) सपिण्ड नातेदारी और (2) प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी।

सपिण्ड नातेदारी प्राचीन हिन्दू विधि के अन्तर्गत भी निषिद्ध थी। हिन्दू विवाह अधिनियम में धारा 5 (v) से यह निषेध यद्यपि बनाए रखा गया है लेकिन इसे सीमित कर दिया गया है। पहले यह पिता की ओर से सात डिग्री तक और माता की ओर से पाँच डिग्री तक था पर अब इसे दो डिग्री कम कर पिता की ओर से पाँच और माता की ओर से तीन डिग्री कर दिया गया है।

सपिण्ड नातेदारी से सामान्य आशय ऐसे लोग से है जो कि एक ही पूर्वज (पितर) की पूजा करते थे। इस सिद्धांत का मूल यह है कि जिन हिन्दुओं के पूर्वज संबंधी हो वे आपस में वैवाहिक संबंध नहीं रखें। सपिण्ड नामकरण के लिए दो मुख्य सिद्धांत हैं। पहला “आहूति सिद्धांत” जिसमें माना जाता था कि एक ही पूर्वजों को पिण्ड दान (चावल का बना एक गोल पिण्ड जिसे श्राद्ध कर्म में हिन्दू अपने पितरों को अर्पित करते थे।) करने वालों में वैवाहिक संबंध नहीं होना चाहिए। हिन्दू अपने पिता की ओर से तीन पितरों को और माता की ओर से दो पितरो को पूर्ण पिण्ड और पिता की ओर से तीन अन्य पितरों को और माता की ओर से दो अन्य पितरों को अर्ध पिण्ड अर्पित करते थे। चूँकि पितरो की डिग्रियाँ या कोटियाँ पिण्ड देने वाले व्यक्ति से आरंभ होता है इसलिए कहा जाता है कि पिता की ओर से वह सात डिग्रियों के पितरों से और माता की ओर से पाँच डिग्रियों से सपिण्ड नातेदारी का संबंध रखता है। विज्ञानेश्वर ने यद्यपि सपिण्ड नातेदारी की डिग्री तो यही माना लेकिन उसने इसका नया सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसमें पिण्ड का अर्थ चावल के पिण्ड के बजाय शरीर के कण से लिया गया। इसका अर्थ था कि जिन व्यक्यिों में एक ही पूर्वज का रक्त प्रवाहित होता है वे एक-दूसरे के सपिण्ड हैं और उनमें विवाह नहीं होना चाहिए।

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नीचे दिए आरेख में माता की ओर से अंतिम दो और पिता की ओर से अंतिम तीन अर्ध पिण्ड के आते हैं। प्राचीन विधि के तहत ये सभी निषिद्ध नातेदारी में आते थे। लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम ने इनकी डिग्रियाँ अर्थात् पीढ़ियाँ घटा कर माता की ओर से तीन और पिता की ओर से पाँच तक कर दिया गया है। यह गिनती पिण्डदाता (निम्न आरेख में क) से होती हैं।

सपिण्ड की तरह ही प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी (degrees of prohivited relationship) में विवाह भी मान्य नहीं है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 (iv) में यह उपबंध है कि जो प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी में आते हैं, वे आपस में विवाह नहीं कर सकते हैं। धारा 3 (छ) प्रतिषिद्ध कोटि के विवाह की परिभाषा देती है। इस धारा के अनुसार निम्नलिखित चार कोटि के नातेदारी में विवाह वर्जित है-

1. जब एक-दूसरे के पारम्परिक पूर्व-पुरूष (पूर्वज) हो या उनके पति या पत्नी हो अर्थात् पिता, पितामह (दादा), परपितामह (परदादा), परपरपितामह, पर पर पर पितामह और उनकी पत्नियाँ। यह निषेध माता, नानी, परनानी और पर परनानी और उनके पतियों के लिए भी है।

2. जब एक-दूसरे के पारम्परिक पूर्व-पुरूषों के पारम्परिक वंशज के पति या पत्नी हो अर्थात् पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, प्रपौत्र का पुत्र और उनकी पत्नियाँ।

3. इस प्रवर्ग मे निम्न नातेदार आते हैं-

  • (क) भाई
  • (ख) पिता का भाई
  • (ग) माता का भाई
  • (घ) दादा और नाना का भाई
  • (ङ) दादी और नानी का भाई

4. चौथे प्रवर्ग में निम्न नातेदार आते हैं-

  • (क) भाई और बहन
  • (ख) चाचा और भतीजी एवं मामा और भांजी
  • (ग) दो भाईयों की संताने और
  • (घ) दो बहनों की संताने
  • (ङ) भाई और बहन की संताने

प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी संबंधी निषेध जैसा कि धारा 5 (iv) में वर्णित है के अपवाद है रूढ़िगत विवाह अर्थात् यदि रूढ़ि या परम्परा किसी प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी में विवाह को मान्य ठहराती है तो वह विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत भी मान्य होगा। उदाहरण के लिए पंजाब के जाटों में विधवा भाभी से विवाह मान्य है। ऐसे विवाह मान्य होंगे।

हिन्दू विवाह अधिनियम में विवाह के लिए जिन निषेधों का उपबंध किया गया है उनमें एक है मानसिक सामर्थ्य। इस अधिनियम के आरंभ में यह नियम था कि विवाह के समय वर या वधू को जड़ या पागल नहीं होना चाहिए। परन्तु ऐसा विवाह शून्य नहीं था। यह केवल शून्यकरणीय था अर्थात् जब तक न्यायालय शून्यकरणीय की डिक्री पारित न कर दे तब तक विवाह वैध था। वर्ष 1976 में इस धारा को संशोधित किया गया। वर्तमान में यह धारा इस प्रकार है-

“विवाह के समय वर और वधू दोनों में से कोई भी: (क) चित्तविकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हों, या (ख) विधिमान्य सम्मति देने में समर्थ होने पर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से ग्रस्त न हो कि वह विवाह और संतानोत्पत्ति के अयोग्य हो, या (ग) उसे उन्मत्तता (या मिरगी) का दौरा बार-बार न पड़ता हो।” इस संशोधन का तात्पर्य यह है कि अब वर या वधू जड़बुद्धि या पूर्ण पागल होने पर ही विवाह के अयोग्य नहीं हैं, बल्कि पागलपन की कुछ स्थितियों में भी वे विवाह करने के अयोग्य हैं। मस्तिष्क की दुर्बलता, सनकी होना या झक्की होना, मूढ़ता, बेवकूफी, अक्खड़पन और अत्यधिक भावुकता पागलपन की परिभाषा में नहीं आते हैं।

धारा 5 (ii) के अन्तर्गत विवाह के समय की चित्तविकृति ही विवाह को शून्यकरणीय बनाने का आधार है। विवाह के पश्चात् चित्तविकृत का होना शून्यकरणीय होने का आधार नहीं है। लेकिन यह न्यायिक पृथक्करण और विवाह-विच्छेद का आधार है।

विकृतचित्तता के आधार पर शून्यकरणीय डिक्री उस पक्षकार की याचिका पर पास हो सकता है जो स्वयं स्वस्थचित्त हो लेकिन यदि दोनों ही पक्ष विकृतचित्त हो तो कोई भी पक्ष इसके लिए डिक्री की माँग कर सकता है क्योंकि धारा 12 (1) के खण्ड (ख) के अनुसार कोई भी विवाह शून्यकरणीय होगा यदि वह धारा 5 (ii) का उल्लंघन कर सम्पन्न हुआ हो। एक पक्ष अथवा दोनों पक्ष चितविकृत्त हो तो विवाह शून्यकरणीय ही है।

अलका शर्मा विरूद्ध अविनाश चन्द्र (1991 मध्य प्रदेश 205) मामले में हाई कोर्ट ने मत दिया था कि अगर कोई व्यक्ति इस प्रकार के मानसिक विकार से ग्रस्त हो कि विवाह और संतानोत्पत्ति के अयोग्य हो अथवा विवाह या संभोग का अर्थ समझने के अयोग्य है तो उसे चितविकृत्ति माना जाएगा।

चित्तविकृत्त तथ्य का विषय है और सबूत का (burden of proof) उस पक्षकार की होती है, जो इस आधार पर डिक्री के लिए याचिका दायर करता है।

प्राचीन हिन्दू विधि से भिन्न हिन्दू विवाह अधिनियम में विवाह के विधिक सामर्थ्य के लिए न्यूनतम आयु का प्रावधान किया गया है। पर यह पहला अवसर नहीं था जब कि ऐसा प्रयास किया गया था। बालविवाह की कुप्रथा को रोकने के लिए विधिक प्रयास उन्नींसवीं शताब्दी से ही शुरू हो गया था। शारदा अधिनियम, 1929 (1978 में संशोधित) इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास था। शारदा अधिनियम के अधिकांश प्रावधानों को हिन्दू विवाह अधिनियम में शामिल कर लिया गया है। दोनों ही अधिनियम में बाल विवाह अवैध या शून्य नहीं बल्कि अपराध माना गया है। इसका कारण यह है भारतीय समाज, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों, में बाल विवाह अब भी बड़ी संख्या में होते है इन्हे अवैध या शून्य घोषित करने से उन बच्चियों जिनका कम उम्र में विवाह हो गया है और उनके बच्चों के समक्ष कई सामाजिक और विधिक समस्याएँ होगी। इसलिए संसद ने दोनों अधिनियमों में इसे वैध माना। लेकिन विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अन्तर्गत इस तरह का विवाह शून्य है। इस अंतर का कारण संभवतः संसद का यह विचार हो कि विशेष विवाह के तहत पढ़े-लिखे और आधुनिक विचार के लोग ही विवाह करते हैं और वे ऐसे विवाह का विधिक परिणाम समझ सकते हैं।

शारदा अधिनियम के तहत यदि 18 वर्ष से अधिक और 21 वर्ष से कम आयु का कोई पुरूष 15 वर्ष से कम आयु की लड़की से विवाह करता है तो उसे 15 दिन के सादा कारावास या 1000 रूपये तक के जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। यदि 15 वर्ष कम आयु की लड़की से विवाह करने वाले पुरूष की आयु 21 वर्ष से अधिक है तो उसे तीन महीने तक के सादा कारावास और जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। बाल विवाह करवाने वाले माता-पिता, संरक्षक, मध्यस्थ और पुरोहित को भी तीन महिने तक के सादे कारावास और जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। लेकिन स्वागत समारोह में उपस्थित अतिथि और बरातियों को दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत अभियुक्त यह सिद्ध करके दण्ड से छूट सकता है कि उसने इस विश्वास से विवाह में सहायता किया कि विवाह के दोनों पक्ष विधि द्वारा निर्धारित आयु पूरी करते हैं। इसी अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत बालक के कल्याण में उसके विवाह को रोकने के लिए प्रतिषेधात्मक व्यादेश जारी करने की शक्ति सिविल न्यायालय को है।

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हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत न्यूनतम आयु की शर्त का उल्लंघन कर किया गया विवाह वैध है पर धारा 18 के तहत दण्डनीय है। इसमें 15 दिनों तक के सादा कारावास या 1000 रूपये तक के जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।

हिन्दू विवाह अधिनियम के लागू होने से पहले माना जाता था कि नपुंसक व्यक्ति का विवाह भी विधिमान्य है। किन्तु इस अधिनियम के लागू होने के बाद इस स्थिति में कुछ परिवर्तन आया है। ऐसा विवाह अब शून्यकरणीय है अर्थात् जब तक कि न्यायालय शून्य घोषित न कर दे तब तक ऐसा विवाह वैध रहता है लेकिन पीड़ित पक्ष को यह अधिकार है कि वह दूसरे पक्ष के नपुंसक होने के आधार पर विवाह को शून्य घोषित करने की डिक्री प्राप्त कर सकते हैं। विशेष विवाह अधिनियम के तहत ऐसा विवाह शून्य होता है। अंग्रेजी विधि मे तहत ऐसा विवाह यद्यपि शून्यकरणीय है लेकिन वहाँ नपुंसक पक्षकार को भी यह अधिकार है कि विवाह को शून्य घोषित कराने के लिए न्यायालय में याचिका प्रेषित कर सकता है।

नपुंसकता का आशय है किसी शारीरिक या मानसिक कारणों के विवाह को संसिद्ध करने में असमर्थता। बांझपन या बन्ध्यत्व नपुंसकता की परिभाषा में नहीं आते है। यदि नपुंसकता अगर चिकित्सा या शल्य क्रिया द्वारा उपचारयोग्य हो तो नपुंसकता तब तक नहीं कहा जाएगा जब तक कि यह सिद्ध न हो जाए कि वह चिकित्सा या शल्यक्रिया से जानबूझ कर इंकार न कर दे। लेकिन यह तर्क कि नपुंसकता चिकित्सा द्वारा ठीक हो सकता है, के आधार पर शून्यकरणीय घोषित करने की डिक्री देने से न्यायालय इंकार नहीं कर सकते है। 

महत्वपूर्ण मुकदमें (Case Laws)

सरला मुदगल वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया (AIR 1995 SC 1531; (1995) 3 SCC 635)          

हिन्दू विवाह अधिनियम द्विविवाह का स्पष्ट रूप से निषेध करता है। अतः जो हिन्दू अपनी पत्नी से तलाक नहीं ले सकते थे वे दूसरे विवाह के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते थे। वे धर्म परिवर्तन केवल विवाह के लिए करते थे अन्य मामलों में वे पूर्ववत् हिन्दू धर्म को मानते थे। वे विवाह के बाद पुनः हिन्दू धर्म अपना लेते थे जिससे एक हिन्दू के रूप उनके सम्पत्ति संबंधी सभी अधिकार सुरक्षित रहते थे। जब बड़ी संख्या में इस तरह के मामले होने लगे तो जागरूक लोगों का ध्यान इस तरफ गया और चार गैर सरकारी संगठनों ने समान मुद्दे पर संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय में चार अलग-अलग याचिका दायर किया। सरला मुदगल महिलाओं के लिए कार्य करने वाली संगठन कल्याणी की अध्यक्षा थीं जिसने भी याचिका दायर की थी। न्यायालय ने चारों की साथ सुनवाई करते हुए साथ निपटारा किया। इन सभी मामलों में समान कानूनी मुद्दे शामिल थे:

  • 1. हिन्दू पतियों द्वारा मुस्लिम धर्म अपना कर किया गया विवाह क्या एक पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करना माना जाएगा?
  • 2. ऐसा दूसरा विवाह क्या वैध विवाह है?
  • 3. ऐसे मामलों में क्या पति को द्विविवाह को दोषी माना जा सकता है?

उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न न्यायिक निर्णयों एवं कानूनी प्रावधानों का विस्तृत विवेचन किया। न्यायालय ने बंबई राज्य बनाम गंगा (ILR (1880) 4 Bom) मामले में हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होने से पहले दिए गए निर्णय का हवाला दिया जिसमें एक हिन्दू विवाहित महिला द्वारा हिन्दू पति के जीवित होते हुए मुस्लिम धर्म अपनाकर एक मुस्लिम व्यक्ति से विवाह करने को बहुपतित्व माना था क्योंकि न्यायालय के अनुसार धर्म परिवर्तन से विवाह अपनेआप समाप्त नहीं होता है। न्यायालय ने अमर नाथ बनाम अमरनाथ (AIR 1948 Lah 129) मामले का भी हवाला दिया जिसमें यह तर्क दिया गया था कि वैदिक धर्म में विवाह शाश्वत संबंध माना जाता था जो कि किसी एक पक्ष के ईसाई धर्म अपना लेने से अपनेआप समाप्त नहीं हो जाता है जब तक इसके लिए कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं की जाए।

न्यायालय के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 में विवाह-विच्छेद के लिए कुछ निश्चित आधार दिए गए हैं और इसके अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर विवाह-विच्छेद का प्रावधान नहीं है। इन आधारों में विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा धर्म परिवर्तन कर लेने से अपनेआप विवाह-विच्छेद की कोई संकल्पना नहीं है। धर्मांन्तरित व्यक्ति द्वारा दूसरा विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत शून्य नहीं है क्योंकि धर्मांतरण के बाद वह व्यक्ति हिन्दू नहीं रह जाता लेकिन चूँकि उसकी पहली हिन्दू पत्नी जीवित है इसलिए दूसरा विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के विरूद्ध है और इसलिए शून्य है। ऐसा दूसरा विवाह तब तक वैध नहीं होगा जब तक कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार न्यायालय की डिक्री द्वारा पहले विवाह का विच्छेद (तलाक) नहीं होगा। 

पहली पत्नी के जीवित रहते उससे तलाक लिए बिना धर्मांन्तरण के बाद किया जाने वाला विवाह बहुविवाह की परिभाषा में आएगा जो कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अनुसार दण्डनीय है। ऐसा दूसरा विवाह समता और न्याय के सिद्धांत के अनुसार भी शून्यकरणीय है।

लिलि थॉमस वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया (2000) 6 SCC 224: AIR 2000 SC 1650

सरला मुदगल केस में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के विरोध में कई व्यक्तियों और जमात-ए-उलेमा जैसे कुछ संगठनों ने न्यायालय में कई वाद दायर किया। उनका मुख्य तर्क यह था कि यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 20, 21, 25 और 26 में दिए गए मौलिक अधिकारों के विरूद्ध है। लिलि थॉमस केस में न्यायालय ने इन सभी मामलों का अंतिम रूप से निपटारा किया।

इस केस के मौलिक तथ्य भी सरला मुदगल के केस की तरह ही थे। अर्थात एक हिन्दू विवाहित पुरूष ने विधिवत् रूप से हिन्दूत्व त्याग दिया और इसके बाद उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया। अब उसने पहली पत्नी से तलाक लिए बिना ही इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार दूसरी शादी कर ली।

यहाँ मूल मुद्दा यह था कि यदि कोई गैर-मुसलमान केवल दूसरा विवाह करने के लिए या पहले विवाह को निष्प्रभावी करने के लिए मुस्लिम धर्म अपनाता है तो क्या धर्मांतरण के बाद उसके द्वारा किया गया विवाह वैध होगा? दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि यदि कोई हिन्दू धारा 17 के तहत द्विविवाह के लिए किए गए दाण्डिक प्रावधानों से बचने के लिए धर्मांतरण कर लेता है तो इस परिस्थितियों में उसका भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अनुसार उसका आपराधिक दायित्व क्या होगा?

उच्चतम न्यायालय (न्यायमूर्ति सगीर अहमद) ने इस मामले में इन तर्कों को माना:

धारा 5 के अनुसार एक वैध हिन्दू विवाह के लिए यह आवश्यक है कि विवाह के समय दोनों पक्षों में से किसी का जीवित पति या पत्नी न हो। अगर पति या पत्नी के जीवित रहते कोई विवाह सम्पन्न होता है तो ऐसा विवाह धारा 11 के अनुसार शून्य होगा। धारा 17 भी ऐसे विवाह को शून्य घोषित करता है। यही धारा (धारा 17) द्विविवाह को अपराध घोषित करता है और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 और 495 के अनुसार उसे दण्डनीय बनाता है। दूसरी तरफ धारा 494 कहता है कि कोई भी विवाह जो इस कारण शून्य हो कि वह विवाह के पक्षकारों के जीवित पति या पत्नी के रहते सम्पन्न हुआ हो। चूँकि धर्मांतरण से विवाह स्वयंमेव ही समाप्त नहीं हो जाता है जब तक कि न्यायिक डिक्री द्वारा इसे समाप्त नहीं घोषित कर दिया जाए, इसलिए धर्मांतरण के बाद भी विवाह के पक्षकार पति और पत्नी बने रहते हैं। इन दोनों धाराओं को एक साथ एक परिप्रेक्ष्य में पढ़ने से स्पष्ट होता है कि विवाह वैधता विवाह के पक्षकारों पर लागू व्यक्तिगत कानून के अनुसार होना चाहिए अर्थात अगर व्यक्तिगत विधि के अनुसार विवाह अवैध है और वे दोनों पति एवं पत्नी के रूप में मान्य नहीं हैं या व्यक्तिगत विधि के अनुसार द्विविवाह मान्य है तो वैसी स्थिति में धारा 494 लागू नहीं होगा। मुस्लिम व्यक्तिगत विधि द्विविवाह को अपराध नहीं मानता है इसलिए उनके मामले में धारा 494 लागू नहीं होगा, लेकिन ऐसा तभी होगा जब कि उसका पहला विवाह भी मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ होगा। अगर पहला विवाह किसी ऐसे व्यक्तिगत विधि के अनुसार हुआ हो जिसमें द्विविवाह अपराध हो तो उस विवाह के रहते हुए दूसरा विवाह मान्य नहीं होगा।

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न्यायालय ने यह भी कहा कि धर्म आंतरिक विश्वास और आस्था का विषय है जो कि आसानी से परिवर्तित नहीं होता है। अगर कोई व्यक्ति किसी सांसारिक लाभ को प्राप्त करने के लिए कोई धर्म अपनाता है तो यह धार्मिक धोखाधड़ी है। यदि उसे धर्म परिवर्तित कर कानूनी दण्ड से बचने और दूसरा विवाह जो कि कानूनी रूप से मान्य नहीं है करने दिया जाए तो यह उसे अपने गलती का लाभ देना होगा। सभी धर्मों में विवाह को एक पवित्र संस्था माना गया है। अवांछित वासनापूर्ति के लिए धर्म को माध्यम बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर न्यायालय ने अपना मत दिया कि सरला मुदगल मामले के निर्णय से किसी धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का कोई हनन नहीं हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत जो धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है उसका उपयोग किसी अन्य व्यक्ति के धर्म की समान स्वतंत्रता के उल्लंघन के लिए नहीं किया जा सकता है। इसलिए पहली हिन्दू पत्नी के जीवित रहते धर्म परिवर्तन कर किया गया दूसरा विवाह शून्य है और हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के प्रावधानों के अनुरूप दण्डनीय है।

अभ्यास प्रश्न

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार एक वैध विवाह की शर्तों का विवेचन किजिए। (2010)

प्रश्न- एक वैध हिन्दू विवाह के लिए किन-किन शर्तों का पूरा होना आवश्यक है? (DJS 2010)

प्रश्न- 17 वर्षीय सागर और 15 वर्षीया प्रीति की शादी वर्ष 2000 में हुई। वर्ष 2007 में सागर ने अपनी मित्र रूक्साना से शादी कर ली और उसके साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताने लगा। प्रीति ने उस पर द्विविवाह (Bigamy) के लिए अभियोग लगाया। सागर ने अपने बचाव में कहा कि उसने इस्लाम धर्म अपना लिया है और अपना नाम बदल कर सलीम रख लिया है। उसका तर्क था कि मुस्लिम विधि के अनुसार दूसरा विवाह अपराध नहीं है इसलिए उसे द्विविवाह के अपराध का दोषी नहीं माना जा सकता है।

(संकेत- सरला मुदगल, 1955 और लिलि थॉमस, 20000)

प्रश्न- अगर कोई व्यक्ति पति या पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करता है तो हिन्दू विधि और मुस्लिम विधि में उसकी स्थिति क्या होगी। अगर कोई विवाहित हिन्दू पुरूष इस्लाम धर्म अपना कर दूसरी शादी एक ऐसी लड़की से कर लेता है जो स्वयं भी इस्लाम में परिवर्तित हुई है। इस धर्मांतरण का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम व्यक्तिगत विधि का लाभ लेकर दूसरा विवाह करना था, तो इस विवाह का विधिक परिणाम क्या होगा। (2009)

प्रश्न- अशोक और आशा का विवाह हिन्दू रीति-रिवाजो के अनुसार हुआ। विवाह के बाद अशोक की घनिष्ठता प्रीति से हो गई और दोनों ने विवाह करने का निर्णय किया। एक मित्र की सलाह पर वह और प्रीति दोनों ने इस्लाम धर्म अपना लिया और मुस्लिम विधि के अनुसार शादी कर ली। आशा ने अशोक के विरूद्ध द्विविवाह के लिए क्रिमिनल केस किया। कानूनी प्रावधानों और न्यायिक निर्णयों के प्रकाश में द्वितीय विवाह की विधिमान्यता (validity) का परीक्षण कीजिए। (2012, 2013)

प्रश्न- 20 वर्षीय रमेश का विवाह 2006 में 17 वर्षीया रश्मी से हुआ। 2010 में रमेश ने धर्मांतरण कर इस्लाम अपना लिया और रहिमा से मुस्लिम विधि के अनुसान विवाह कर लिया। जब रश्मि को इस विवाह के विषय में पता चला तो उसने रमेश के विरूद्ध द्विविवाह के अपराध के लिए अभियोग शुरू किया। रमेश ने यह तर्क दिया कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अनुसार रश्मि से उसका विवाह कानूनी रूप से मान्य नहीं था इसलिए उसे द्विविवाह के लिए दोषी नहीं माना जा सकता है। निर्णय कीजिए। (2011, 2013)

प्रश्न- हिन्दू विधि में धर्मांतरण के बाद विवाह के अस्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है। संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2010)

प्रश्न- पति या पत्नी द्वारा धर्मांन्तरण का हिन्दू विवाह पर प्रभाव पर विचार कीजिए। (2008 2011)

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 में बाल विवाह (child marriage) की विधिक स्थिति में क्या अंतर है? (2010, 2008, 2007)

प्रश्न- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अन्तर्गत बाल विवाह की स्थिति बताइए? (2009)

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अन्तर्गत बाल विवाह की विधिमान्यता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2012) 

प्रश्न- एक पिता अपनी 16 वर्षीया पुत्री की शादी उसकी सहमति लिए बिना कर देता है, इस विवाह की वैधता का विवेचन करें। (2010)

प्रश्न- बाल विवाह के संदर्भ में फैक्टम वैलेट का सिद्धांत क्या है?

प्रश्न- हिन्दू विधि के अन्तर्गत निम्नलिखित विवाह की वैधता बताइए:

  • (क) मृत पत्नी की बहन से विवाह।
  • (ख) पुत्र के पुत्र की विधवा से विवाह।
  • (ग) भाई की गर्भवती विधवा से विवाह।
  • (घ) अपने मामा की पुत्री से विवाह।
  • (ङ) अपने बड़े भाई की विधवा से विवाह।
  • (च) अपनी बहने की पुत्री से विवाह।
  • (छ) ए और डब्ल्यू विवाह करते हैं। ए डब्ल्यू के दादा के भाई की पुत्री का पुत्र है।
  • (ज) ए अपने दादा की बहन के पुत्र की पुत्री से विवाह करता है।
  • (झ) एक हिन्दू क ख से विवाह करता है जो कि उसके दादा की बहन की पुत्री है। (2007, 2008, 2010, 2011, 2012)

प्रश्न- हिन्दू विधि के अन्तर्गत निम्नलिखित विवाह की वैधता बताइए:

  • (क) एच डब्ल्यू से विवाह करता है जो कि उसकी माता की बहन की पुत्री है।
  • (ख) एच डब्ल्यू से विवाह करता है जो कि उसके पुत्र की तलाकशुदा पत्नी है।
  • (ग) एच डब्ल्यू से विवाह करता है जो कि उसकी दत्तक (adopted) बहन की जैवीय बहन है।
  • (घ) एच डब्ल्यू से विवाह करता है जो कि उसके दादा के भाई की पुत्री की पुत्री की पुत्री है। 2009 2013
22 thoughts on “हिन्दू विवाह (Hindu Marriage) (धारा 5-8)”
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