अपराध के लिए सामूहिक दायित्व (केस लॉ)-part 2.3

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सामूहिक दायित्व

सामूहिक दायित्व का अर्थ है जब कई व्यक्ति मिल कर कोई अपराध करते हैं, तब उन में से प्रत्येक का उस अपराध के लिए दायित्व।

यह संभव  है कि उन में से प्रत्येक का उस अपराध में भूमिका अलग-अलग हो या उनकी अलग-अलग भूमिका बहुत स्पष्ट न हो। इस स्थिति में उन सब का उस अपराध के लिए अलग-अलग दायित्व का विधिक सिद्धांत सामूहिक दायित्व (group liability) कहलाता है। पिछले लेख में हमने इसके विधिक प्रावधान पर चर्चा किया था। अब हम इस पर कुछ केस लॉ पर देखते हैं।

सुरेश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2001) 3 SCC 673

बेंचः थामस, ज., सेठी, ज., अग्रवाल, ज.

तथ्यः 05 अक्टूबर, 1996 की रात को मृतक (रमेश) अपनी पत्नी (गंगादेवी) और चार बच्चों के साथ अपने घर की छत पर सो रहा था। उसका भाई सुरेश (अभियुक्त 1) और उसकी पत्नी का भाई रामजी (अभियुक्त 2) ने सोते हुए में परिवार के सभी सदस्यों को कुल्हाड़ी और चौपर से मार डाला केवल एक सात वर्षीय बच्चा घायल होने के बावजूद जिंदा बच गया।

दोनों अभियुक्तों के साथ सुरेश की पत्नी पवित्री देवी (अभियुक्त 3) भी घटनास्थल पर उपस्थित थी लेकिन उसकी भूमिका के विषय में गवाहों के बयान में अंतर था। सुरेश, रामजी और पवित्री देवी तीनों को सेशन कोर्ट ने मृत्युदण्ड दिया।

हाई कोर्ट ने सुरेश और रामजी की सजा बरकरार रखा लेकिन पवित्री देवी, जिसे धारा 34 के तहत सेशन कोर्ट ने हत्या के लिए दोषी माना था को बरी कर दिया। राज्य ने उसके दोषमुक्ति के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील किया।

                 विधिक प्रश्नः सुप्रिम कोर्ट के समक्ष प्रश्न यह था कि दिए गए परिस्थितियों में धारा 34 के तहत पवित्री देवी को धारा 302 के तहत दोषी ठहराया जा सकता है या नहीं?

             प्रस्तुत मामले में अभियुक्त 3 पवित्री देवी की भूमिका के संबंध में गवाहों के बयान में अंतर था। इस हत्याकांड में एकमात्र जीवित बचा गवाह (जितेन्द्र), जो कि सात वर्षीय बालक था, के बयान अनुसार उसकी चाची (अभियुक्त 3) उसकी माँ के बालों की चोटी पकड़ कर खींचा और बाद में बाहर आ गई और बोली कि प्रत्येक व्यक्ति मरना चाहिए।

लेकिन अन्य दो गवाहों लालजी और अमरसिंह ने यह बयान दिया कि वह घटनास्थल पर मौजूद थी। लेकिन उसके द्वारा किसी सक्रिय सहभागिता की बात नहीं कही गई।

                कोर्ट ने यह भी ध्यान रखा कि अभियुक्तों का घर मृतकों के घर बिल्कुल पास ही था। सेशन कोर्ट ने विभिन्न तर्कों के आधार पर इन दोनों गवाहों, जिनमें लालजी अभियुक्त सुरेश और मृतक रमेश का चाचा था और अमरसिंह, जो इन दोनों का पड़ोसी था, के बयान को विश्वसनीय माना था।

               इनके अनुसार जब वे घटनास्थल पर पहुँचे तो देखा कि अभियुक्त 3 मृतक के घर के बाहर खड़ी थी जबकि अन्य दोनों अभियुक्त घर के अंदर थे और मृतकों पर आघात कर रहे थे। कोर्ट के अनुसार अभियोजन पक्ष केवल यह सिद्ध कर पाया कि वह भी घटनास्थल पर मौजूद थी।

                अभियोजन पक्ष का कहना था कि उसकी ऐसी उपस्थिति सामान्य आशय को अग्रसर करने का कार्य था और इसलिए उसे धारा 34 के अनुसार धारा 302 के तहत दोषी माना जाना चाहिए। इसके विपरीत अभियुक्तों के वकील का दलील था कि धारा 34 तभी लागू होगा जबकि अभियुक्त सामान्य आशय को अग्रसर करने में कोई कार्य करे जो कि अभियोजन पक्ष साबित नहीं कर पाया है। केवल उपस्थिति से धारा 34 प्रवर्तनीय नहीं है।

               न्यायमूर्ति थौमस ने धारा 34, 35, 37 और 38 का विस्तृत विवेचना किया और कई न्यायिक निर्णयों का भी अवलोकन किया। न्यायमूर्ति थौमस के अनुसार धारा 34 कहता है ‘‘कई व्यक्तियों द्वारा किया गया कार्य‘‘। धारा 33 कहता है कि ‘‘कार्य‘‘ शब्द कार्यावली का द्योतक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक कार्य का।‘‘ उसका आशय है कि आपराधिक कार्य एक अकेला कार्य हो सकता है, या कार्यों की शृंखला हो सकती है।

               इस संदर्भ में उन्होंने धारा 35, 37 और 38 का भी अवलोकन किया। ये चारों धाराएँ एक ऐसे समूह से संबंधित कहे जा सकते हैं जिसमें एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी एक आपराधिक कार्य में सहभागिता किया जाता है।

धारा 34 और 35 में एकमात्र अंतर यह है कि धारा 34 सामान्य आशय की बात करता है जबकि धारा 35 में तहत अपराध गठित करने के लिये यह पर्याप्त है कि किसी अपराध में सहभागिता करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का वह कार्य करने का आशय (मेन्स रिया) हो।

                 धारा 37 उस स्थिति के लिये उपबंध करता है जब कोई आपराधिक कार्य कई कार्यों को करने से कारित हो और कोई व्यक्ति आशय के साथ इनमें से कोई एक कार्य करे। लेकिन धारा 38 उस स्थिति का वर्णन करता है जब कई व्यक्ति कोई आपराधिक कार्य करते हैं लेकिन उनमें कोई सामान्य आशय बंधन, जैसे ‘‘सामान्य आशय को अग्रसर‘‘ करने का आशय न हो, वहाँ पर प्रत्येक अपने अलग-अलग आपराधिक कार्यों के लिये दण्डनीय होंगे।

      
इसलिये धारा 34 के तहत कोई एक आपराधिक कार्य, जो एक से अधिक कार्यों को शामिल करता हो, एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया जाता हो, और ऐसा कार्य उन सभी व्यक्तियों के सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिये किया जाता हो, तो प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य के लिये दण्डनीय होगा जो कार्य किया गया हो।

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न्यायमूर्ति थौमस ने इन धाराओं को अच्छे से समझने के लिये दृष्टान्त का सहारा लिया कि यदि उस धारा का आशय काई लोगों के सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिये किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गये कार्य के लिये सबको समान रूप से दण्डित करना होता तो इस धारा का रूप ऐसा होता ‘‘जब कोई आपराधिक कार्य किसी एक व्यक्ति द्वारा काई व्यक्तियों के सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिये किया जाता है … ….‘‘ लेकिन ऐसा नहीं है।

इसका अर्थ यह है कि यह धारा ऐसी काल्पनिक स्थिति से व्यवहार नहीं करता बल्कि उस स्थिति के लिये उपबंध करता है जब सह अभियुक्त ने सामान्य आशय को अग्रसर करने वाले कार्यों में से किसी न किसी रूप में सहभागिता की हो। अर्थात् उसका घटनास्थल पर उपस्थिति मात्र का अर्थ यह नहीं कि उस पर धारा 34 लागू हो जाएगा।

हो सकता है सहअभियुक्त घटनास्थल से थोड़ी दूर पर हो और अभियुक्तों को हथियार दे रहा हो ताकि वह उस व्यक्ति को आहत कर सके। या वह कुछ दूर से दूरदर्शी यंत्र से देख कर अभियुक्तों को मोबाइल से बता रहा हो कि सामान्य आशय को अग्रसर करने वाला कार्य कैसे प्रभावी रूप से किया जाय।

इसलिये धारा 34 को आकृष्ट करने के लिये दो तत्व अनिवार्य हैं – (1) आपराधिक कार्य (कार्यों की शृंखला) एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया जाना, और (2) ऐसा प्रत्येक कार्य का परिणाम सामान्य आशय को अग्रसर करने वाला हो। इस कार्य में लोप या अवैध लोप भी शामिल हो सकता है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया हो तो धारा 34 उस पर लागू नहीं होगा। घटना के समय रखवाली करना भी कार्य में सहभागिता है।

दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति उसके मस्तिष्क में सामान्य आशय रखता है लेकिन उसके लिये वास्तव में कोई कार्य नहीं करता है, तो उसे धारा 34 की सहायता से दण्डित नहीं किया जा सकता है। यद्यपि आईपीसी की धारा 120ख या 109 के तहत वह गैर-भागीदार व्यक्ति दण्डनीय हो सकता है।

विभिन्न विधिक प्रावधानों पर विचार करने के बाद न्यायमूर्ति ने कई पूर्व निर्णयों पर भी विचार किया। जैसे बारेन्द्र कुमार घोष वर्सेस किंग एम्परर, महबूब शाह वर्सेस एम्परर, पाण्डुरंग वर्सेस स्टेट ऑफ हैदराबाद, स्टेट और उत्तर प्रदेश वर्सेस इफ्तिखार खान (1973) 1 SCC 512) इत्यादि। उन्होंने महबूब शाह केस के इस प्रेक्षण को महत्व दिया कि ‘‘कई व्यक्तियों द्वारा किया गया आपराधिक कार्य‘‘ इस धारा का अनिवार्य तत्व है।

              प्रस्तुत केस में एफआईआर के अनुसार जब घटना हुई तब पवित्री देवी सड़क पर खड़ी थी। यह संभव है कि वह आवाज सुनकर वहाँ आ गई हो क्योंकि उसका घर घटनास्थल से सटा था, या पति और भाई को इतनी रात को इस तरह कुल्हाड़ी और चौपर लेकर जाते देख कर उनका पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गई हो।

राज्य की तरफ से यह तर्क दिया गया कि अगर उसका सामान्य आशय नहीं होता तो वह ऐसा नृशंस कार्य करने से अपने पति और भाई को रोकती। लेकिन न्यायमूर्ति के अनुसार अभियुक्त को नहीं रोकना मात्र यह साबित नहीं करता है कि उसका कोई सामान्य आशय था।

       अन्य दो न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति सेठी और न्यायमूर्ति अग्रवाल भी न्यायमूर्ति थौमस के विचार से सहमति व्यक्त किया और माना कि पवित्री देवी का सामान्य आशय था, यह अभियोजन पक्ष साबित नहीं कर पाया।

घटनास्थल पर उसकी घटना के समय उपस्थिति मात्र से उसे धारा 34 की सहायता से दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन यदि अभियोजन पक्ष यह साबित कर देता है कि उसका सामान्य आशय था तब वह केवल इस आधार पर बरी नहीं हो सकती थी कि उसने वास्तव में कोई कार्य नहीं किया था।

          कोर्ट ने पवित्री देवी को बरी करने के हाई कोर्ट के आदेश को बनाए रखा और राज्य की अपील खारीज कर दिया।

बारेन्द्र कुमार घोष वर्सेस किंग एम्परर (AIR 1925 PC 1)

(इस केस को शंकरी टोला पोस्ट ऑफिस मर्डर केस भी कहते हैं। इसमें प्रीवि कौंसिल और कलकत्ता (अब कोलकाता) हाई कोर्ट दोनों ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही माना और अभियुक्त को हत्या का दोषी माना।)

               तथ्य – 3 अगस्त, 1923 को शंकरीटोला पोस्ट ऑफिस का पोस्ट मास्टर अपने टेबल पर पैसे गिन रहा था, तभी कुछ लोग आए और पैसे देने की माँग की। तुरंत ही उन्होंने पिस्तौल से फायर कर दिया। पोस्ट मास्टर को दो गोली लगी और तुरंत ही उसकी मृत्यु हो गई।

बिना पैसे लिए ही हमलावर अलग-अलग भाग निकले। उनमें से एक, जो कि प्रस्तुत केस में अपीलार्थी था, पोस्ट ऑफिस सहायक और अन्य व्यक्तियों द्वारा पकड़ लिया गया। भागने के क्रम में उसने कई बार पिस्तौल से फायर भी किया और अन्ततः पिस्तौल को फेंक दिया, जो कि ट्रायल में पेश किया गया।

हमलावरों की संख्या के संबंध में गवाहों के बयान में अंतर था लेकिन तीन लोगों ने फायर किया था, इस पर सब सहमत थे।

               अपीलार्थी बारीन्द्र कुमार घोष के अनुसार वह केवल आँगन में खड़ा था। फायर की आवाज सुनकर वह बहुत घबड़ा गया था। उसने यह भी कहा कि यह उसका पहला अपराध है और केवल तीन महिने पहले उसकी शादी हुई थी इसलिये उस पर दया की जाय।

लेकिन गवाहों के अनुसार उसने फायर किया था और उसके पिस्तौल कमरे में मिली गोली से मेल कर रहा था अर्थात् उसी पिस्तौल से गोली चली थी। दूसरी बात यह कि वह दरवाजे के इतने पास खड़ा था कि अंदर फायरिंग को देख सकता था।

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               अपीलार्थी पर आईपीसी की धारा 34, 302 और 394 के तहत विचारण हुआ। अपीलार्थी ने डकैती में अपनी भूमिका माना लेकिन हत्या में नहीं ट्रायल कोर्ट ने माना कि अपीलार्थी कमरे के अंदर था, वह उनमें शामिल था जिन्होंने फायर किया। संभव है कि उसके द्वारा पहुँचाई गई क्षति घातक सिद्ध हुआ हो जिससे मृत्यु कारित हुई हो।

अगर उसका कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करने के क्रम में था तो धारा 34 के तहत वह हत्या के लिए दोषी होगा, भले ही उसके द्वारा किया गया फायर घातक हुआ हो या नहीं। दूसरी तरफ अपीलार्थी के तरफ से दलील दिया गया कि ऐसा कोई सबूत नहीं है कि अपीलार्थी ने हत्या की थी।

             कोर्ट ने विभिन्न न्यायिक निर्णयों पर विचार किया और कहा कि अगर कई लोग मिलकर किसी व्यक्ति को आघात पहुँचाए या चाकू मारे, जिससे पीड़ित की मृत्यु हो जाय, लेकिन यह पता नहीं चल सके कि कौन सा आघात या घाव घातक सिद्ध हुआ जिससे मृत्यु कारित हुई, तो ऐसे में न्याय करना कठिन हो जाएगा। ऐसा भी हो

सकता है कि मृतक पर कई फायरिंग की गई हो लेकिन उसके शरीर पर एक ही घाव लगा हो। यहाँ सामान्य आशय का सिद्धांत लगाना होगा। सामान्य आशय का तात्पर्य घटनास्थल पर उपस्थिति मात्र से भिन्न आपराधिक कार्य में भागीदारी है।

          अपीलार्थी की तरफ से तर्क दिया गया कि धारा 34 ऐसी स्थिति के लिए उपबंध करता है जब कोई अपराधिक कार्य अकेले नहीं किया गया है लेकिन अभियुक्त का दायित्व होगा जैसे कि उसने अकेले ही वह कार्य किया हो।

कोर्ट ने उदाहरण देते हुए कहा कि तीन हमलावरों ने पीड़ित पर एक ही समय फायर किया। दो गोली उसके सिर में लगी लेकिन तीसरी गोली कान में लगी। तब तीनों ही हत्या के लिए दोषी होंगे लेकिन अगर गोली केवल कान में लगी हो तो उनमें से कोई हत्या का दोषी नहीं होगा और तीनों को संदेह का लाभ मिलेगा।

यदि धारा 34 का ऐसा पर्याय निकाला जाय कि इसमें शामिल सभी व्यक्ति बिल्कुल एक जैसा कार्य करे तो इससे धारा का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।

           कोर्ट ने धारा 34 के साथ 33, 37 और 38 की भी व्याख्या की और कहा कि चूँकि ‘‘कार्य‘‘ में ‘‘कार्यों की शृंखला‘‘ शामिल है और कार्य या कार्यों के अन्तर्गत लोप या लोपों की शृंखला भी शामिल है और धारा 37 के अनुसार कई कार्यों में से किसी एक कार्य को करता है।

अर्थात् यदि कोई चुपचाप खड़ा है या प्रतीक्षा कर रहा है और ऐसा वह अपराध को गठित करने वाले कार्यों या लोपों की समस्त शृंखला के किसी कार्य या लोप के रूप मे कर रहा है तो वह भी कार्य में सहभागिता माना जाएगा।

           कोर्ट ने धारा 34 और धारा 149 की तुलना करते हुए कहा कि दोनों ही धाराएँ कई व्यक्तियों द्वार सहभागिता से किसी आपराधिक कार्य करने से संबंधित है इसलिए दोनों में कुछ समरूपता या सामान्य तत्व है लेकिन दोनों में मूल अंतर यह है कि धारा 34 में आशय सामान्य है जबकि धारा 149 में उद्देश्य सामान्य है। धारा 34 संयुक्त कार्य के बारे में उपबंध करता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अपीलार्थी को दोषी माना गया और उसकी अपील खारीज कर दी गई।

मिजाजी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य(1959 Supp (1) SCR 940: AIR 1959 SC 572

                तथ्य – जमीन के एक टुकड़े (नाम-सुखना) के संबंध में दो पक्षों में विवाद था। जमीन रामेश्वर (मृतक) और चार अन्य लोगों के कब्जे में था। अपीलार्थी पक्ष उस जमीन पर कब्जा करना चाहता था।

27 जुलाई, 1957 को अपीलार्थी पक्ष के तेजसिंह (पिता), मिजाजी (तेजसिंह का पुत्र), सूबेदार (तेजसिंह का भतीजा), मचल (तेजसिंह के रिश्ते का भाई) और मैकु (तेजसिंह का नौकर) – ये पाँच लोग उस जमीन पर बलपूर्वक कब्जा करने के लिए गए। तेजसिंह भाला (spear) मिजाजी पिस्तौल और बाकी तीन लोग लाठी लिए हुए थे।

              उस जमीन के तीन हिस्से थे। एक में गन्ना और दूसरे में ज्वार लगा था जबकि तीसरा हिस्सा खाली था। मैकु ज्वार वाल हिस्से को हल से जोतने लगा जबकि तेजसिंह भाला के साथ रखवाली कर रहा था। किसी व्यक्ति ने यह देखा और दूसरे पक्ष अर्थात् जिनके कब्जे में जमीन थी, को यह सूचना दी।

दूसरे पक्ष के रामस्वरूप, रामेश्वर (मृतक) और दो अन्य लोगों के साथ उस जमीन पर आया। ये चारों बिना किसी हथियार के थे। तेजसिंह ने कहा कि उसने वह जमीन खरीद लिया है इसलिए वह जो कर रहा है, वह करेगा। इस पर दोनों के बीच झगड़ा होने लगा।

इसी बीच अन्य चार अभियुक्त मजाजी, सूबेदार, मचल और मैकु, जो कि गन्ना काट रहे थे, वहाँ आ गए। तेजसिंह के कहने पर मिजाजी ने अपनी धोती से पिस्तौल निकाला और रामेश्वर पर फायर कर दिया। रामेश्वर गिर गया और आधे घण्टे बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके गिरते ही पाँचों अभियुक्त वहाँ से भाग निकले।

एफआईआर में पाँचों अभियुक्त का नाम था। उनपर 302, 149 आईपीसी के तहत चार्जशीट फाइल हुआ। विद्वान सेशन जज ने अभियोजन के उपर्युक्त तथ्य को माना। सेशन जज के अनुसार सभी अभियुक्तों का सामान्य उद्देश्य था बलपूर्वक जमीन का कब्जा लेना और इसके लिए यदि आवश्यकता होता तो वे किसी सीमा तक जा सकते थे जिसमें किसी की जान लेना भी शामिल था।

वे सभी इसके लिए भलीभाँति तैयार होकर हथियारों के साथ आए थे। इसलिए यद्यपि फायर मिजाजी ने किया लेकिन सभी अभियुक्त धारा 302 और 149 के तहत दोषी होंगे। हाई कोर्ट ने भी माना कि सभी अभियुक्त विधि विरूद्ध जमाव कर रहे थे जिसका सामान्य उद्देश्य था बलपूर्वक जमीन पर कब्जा करना।

                 हाई कोर्ट ने यह भी माना कि सभी अभियुक्त साथ ही जमीन पर बलपूर्वक कब्जा करने के सामान्य उद्देश्य से भिन्न हथियारों से लैस होकर वहाँ गए। ये सभी आपस में भलीभाँति परिचित थे और जानते थे कि दूसरे ने क्या हथियार लिया है।

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मिजाजी के पास पिस्तौल था और अन्य अभियुक्त यह जानते थे अगर उनके द्वारा बलपूर्वक जमीन लेने के क्रम में कोई व्यक्ति रूकावट डालता तो मिजाजी उसके विरूद्ध पिस्तौल का प्रयोग कर सकता था, और हथियार की प्रकृति इस तरह की थी कि उससे जान भी जा सकती थी।

स्पष्टतः सभी अभियुक्त जमीन पर बलपूर्वक कब्जा लेने के सामान्य उद्देश्य से आए थे और अगर इसके लिये आवश्यक होता तो हत्या तक कारित करने के तैयारी के साथ आए थे।

गवाहों के बयान के अनुसार सभी अभियुक्तो ने रामस्वरूप और उसके आदमियों को वहाँ से जाने के लिये कहा नहीं तो उनमें से सभी के मारे जाने की बात की। जब उन्होंने जाने से मना कियाऔर प्रतिरोध जारी रखा तो मिजाजी ने उनमें से एक पर फायर कर दिया।

हाई कोर्ट ने यह भी माना कि अभियुक्तों का यह कार्य पूर्वनियोजित और सुनिश्चित योजनानुसार किया गया। होई कोर्ट ने गवाहों के इस बयान को माना कि तेजसिंह मिजाजी के पास पिस्तौल होने की बात अवश्य जानता था। लेकिन अभियुक्त के वकील का कहना था कि इसका आशय यह नहीं है कि सभी अभियुक्तों को पता था कि मिजाजी के पास पिस्तौल था।

विधिक प्रश्न – सुप्रिम कोर्ट के समक्ष प्रश्न यह था कि इस विधि विरूद्ध जमाव का उद्देश्य क्या था – केवल बलपूर्वक जमीन पर कब्जा करना या हत्या कारित करना भी उसका सामान्य उद्देश्य था?

कोर्ट के अनुसार सभी अभियुक्तों द्वारा जमीन पर बलपूर्वक कब्जा करने का सामान्य उद्देश्य था और इसलिए यह एक विधिविरूद्ध जमाव था, यह संदेह रहित है।

अभियुक्तों की ओर से यह दलील दिया गया था कि हत्या कारित करना न तो उनका सामान्य उद्देश्य था और न ही अन्य सदस्य जानते थे कि ऐसा होगा। इस जमाव का एक सदस्य तेजसिंह भाला के साथ था। उसका पुत्र मिजाजी पिस्तौल और अन्य तीन सदस्य लाठी लिये हुए थे।

जब तेज सिंह का मृतक के पक्ष वाले व्यक्तियों से विवाद हुआ तो सभी अभियुक्त वहाँ एकत्र हो गए। उनके कार्य, व्यवहार और उनके द्वारा बोले गए शब्दों से यह प्रकट है कि उनका सामान्य उद्देश्य जमीन को बलपूर्वक कब्जा करना था भले ही इसके लिये उन्हें हत्या ही क्यों न करना पड़े।

यह विचार गवाहों के इस बयान पर आधारित था जिसमें दो गवाहों ने बताया था कि जब परिवादी (मृतक) पक्ष घटना स्थल पर पहुँचा और अपीलार्थियों से पूछा कि वे क्या कर रहे थे, तब सभी अभियुक्त एक जगह पर इकट्ठे हो गये और कहा कि वे वापस चले जाए नहीं तो उन सभी को खत्म कर दिया जाएगा।

इंकार करने पर पिस्तौल से फायर किया गया। यह धारा 149 के दूसरे खण्ड में आता है जिसमें आयुध के साथ विधिविरिूद्ध जमाव के विषय में प्रावधान है।

अपीलार्थियों के एडवोकेट ने क्वीन वर्सेस साबिद अली (1873) 20 WR 5 Cr) केस को अपने समर्थन में उद्धृत किया। इस केस में विधिविरूद्ध जमाव के सदस्य जमीन के टुकड़े पर बलपूर्वक कब्जा करने लेने गए थे।

कोर्ट ने बहुमत से यह पाया कि दूसरे पक्ष के एक सदस्य ने अप्रत्याशित रूप से प्रतिरोध किया और इन पर भारी पड़ा। विधिविरूद्ध जमाव का एक सदस्य, जिसका उस जमाव का सदस्य बनने का समय निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो सका, ने बन्दूक से फायर कर दिया जिससे दूसरे पक्ष के एक व्यक्ति, जो प्रतिरोध कर रहा था, की मृत्यु हो गयी।

यह पाया गया कि यह विधिविरूद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य कि दूसरे पक्ष को बाहर कर दिया जाय, के क्रम में नहीं हुआ था बल्कि अप्रत्याशित प्रति आक्रमण के परिणामस्वरूप हुआ था।

अपीलार्थियों की तरफ से चिकारंग गौड़े वर्सेस स्टेट ऑफ मैसूर (AIR) 1956 SC 731) केस को भी अपने समर्थन में बताया गया। अपीलार्थियों के एडवोकेट के अनुसार जब वे उस जमीन पर कब्जा करने गये थे, उस समय वहाँ दूसरे पक्ष का कोई नहीं था। इसलिये मृत्यु कारित करने का उनका कोई आशय नहीं था।

लेकिन सुप्रिम कोर्ट ने इन दलीलों को नहीं माना। नीचे के दोनों कोर्ट ने माना था कि मिजाजी ने फायर किया था, इसलिये वह हत्या के लिये दोषी था। तेजसिंह ने उसे फायर करने के लिये कहा था, इसलिये वह हत्या के दुष्प्रेरण के लिये दोषी था।

लेकिन प्रश्न यह था कि प्रस्तुत परिस्थितियों में क्या धारा 149 लागू होगा और सभी अभियुक्त इस धारा के अनुसार हत्या के लिये दोषी होंगे? उनमें से दो अभियुक्त भाला और पिस्तौल लिए हुए थे। बाकी लोग लाठी लिए हुए थे।

साक्ष्यों से प्रकट होता है कि जब अभियोजन पक्ष ने उनके कार्यों पर आपत्ति की तो सभी अभियुक्त वहाँ एकत्र हो गए और उन्हे धमकी देते हुए कहा कि वे वहाँ से चले जाय नहीं तो उन्हे खतम कर दिया जाएगा और यह साक्ष्य हाई कोर्ट ने भी माना था।

अभियुक्तों के इस व्यवहार से स्पष्ट होता है कि वे विधिविरुद्ध जमाव गठित करते थे जिसका उद्देश्य था किसी भी शर्त पर बलपूर्वक कब्जा लेना। इसलिए यह मामला धारा 149 के तहत आता है और सभी अभियुक्त हत्या के लिए दोषी है। अभियुक्तों की अपील खारीज कर दी गयी।     

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