आपराधिक दुराश्य- भाग 1.3

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आपराधिक दुराशय (mens rea) क्या है?

आपराधिक कार्य को करने के पीछे के आशय या दुराशय को आपराधिक दुराशय या तकनीकी शब्द में मेंस रिया कहते हैं। वर्तमान न्याय शस्त्र का यह सामान्य नियम यह है “कि कोई कार्य अपने आप मे अपराध नहीं होता है जब तक कि उसमे मेंस रिया यानि अपराध का मानसिक तत्त्व न हो।” यह इस मौलिक सिद्धांत पर आधारित है “मात्र कृत्य किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता जब तक उसका आशय ऐसा न रहा हो” (actus non facit reum nisi mens sit rea)]

मेंस रिया का महत्त्व क्या है?

वर्तमान न्यायशास्त्र सामान्यतः यह मानता है कि अपराध के रूप में परिगणित सभी कार्य अपनेआप में अपराध गठित नहीं करते जब तक कि उस कार्य के लिए मानसिक तत्त्व न हो यद्यपि इस सामान्य नियम के कई महत्वपूर्ण अपवाद भी हैं। पूर्वकाल के विपरीत वर्तमान में अपराध करने वाले बच्चे, पागल, पशु इत्यादि को आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति का आधार यही है कि उनका कृत्य मानसिक दुराश्य से संपोषित नहीं होता है।

मेंस रिया क्यों महत्त्वपूर्ण है?

कई बार कार्य किसी अच्छे आशय से किया जाय लेकिन परिणाम गलत निकल सकता है। जैसे, एक डॉक्टर रोगी की जान बचाने के लिए उसका ऑपरेशन करे। पूर्ण सावधानी रखने के बावजूद मेडिकल कारणों से रोगी की मृत्यु हो जाए। यद्यपि डॉक्टर ने मृत्यु के खतरे को जानते हुए ऑपरेशन किया तथापि उसका उद्देश्य रोगी की जान बचाना था। दूसरी तरफ कोई व्यक्ति किसी की जान मारने के इरादे से उस पर चाकू से प्रहार करता है जिससे उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। अगर दोनों को समान सजा दिया जाय तो यह प्राकृतिक न्याय के विपरीत होगा। व्यवहार में कोई डॉक्टर किसी रोगी को बचाने का प्रयास नहीं करेगा। इसी तरह गलती से पूर्ण सावधानी रखते हुए भी दुर्घटना होने से किसी व्यक्ति को क्षति हो जाए और कोई व्यक्ति जानबूझ कर किसी को कुचल कर मार डाले- तो उन दोनों को एक प्रकार की सजा उचित नहीं होगी।

इसीलिए वर्तमान न्याय प्रणाली कार्य के साथ-साथ उसके पीछे के उद्देश्य यानि आशय को भी ध्यान में रखता है। वर्तमान न्याय प्रणाली का उद्देश्य अपराधी से बदला लेना नहीं बल्कि उसे सुधरने का अवसर देना और उसके द्वारा समाज को और क्षति होने से रोकना है। लेकिन पूर्व काल में, (वर्तमान में भी कुछ स्थानों पर) जहां न्याय का प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त अपनाया गया है, वह कुछ कानूनी अपवादों को छोड़ कर दुराशय को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है।

किन्तु न्याय का वर्तमान सिद्धांत यह मानता है कि किसी आपराधिक कृत्य पर विचार करते समय उस कृत्य के पीछे के मेंस रिया या आशय (intention) को भी ध्यान मे रखा जाना चाहिए। इस सिद्धांत का स्वाभाविक निष्कर्ष यह निकलता है कि आपराधिक कार्य अनिवार्य रूप से किसी मनुष्य द्वारा ही किया जाना चाहिए। साथ ही और वह मनुष्य आशय बनाने के लिए सक्षम हो।

बहुत छोटे बच्चे और पागल व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को अपराध नहीं मानते हुए दंड नहीं देना इसी  सिद्धांत पर आधारित है। इसी सिद्धांत के कारण अगर किसी मशीन या पशु द्वारा अगर कोई ऐसा कार्य होता है तो उसे दुर्घटना माना जाता है, अपराध नहीं। लेकिन यदि यह दुर्घटना उस पशु या मशीन के मालिक की गलती से हुई हो; तो इसके लिए मालिक दंडित होगा न कि वह पशु या मशीन। पहले जिस स्थानों पर न्याय का प्रतिशोधात्मक सिद्धांत प्रचलित था (आज भी कुछ स्थानों पर यह प्रचलित है)। वहाँ दंड का उद्देश्य बदला लेना होता था (जैसे, आँख के बदले आँख) वहाँ पशु या मशीन को भी अपराधी मान कर दंडित करने का प्रचलन था।

आईपीसी और मेंस रिया    

यद्यपि आपराधिक मनःस्थिति किसी कृत्य को अपराध बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। फिर भी आईपीसी में इसे एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में अनिवार्य नहीं बनाया गया है। आईपीसी में सामान्यततः प्रत्येक अपराध के लिए मानसिक तत्व या आशय का उल्लेख कर दिया गया है। आईपीसी  मे आपराधिक कृत्य के पीछे के मनःस्थिति के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे 11 तरह के है। ये है –

  1. स्वेच्छया (voluntarily)
  2. विश्वास करने का कारण (reason to believe)
  3. बेईमानी (dishonestly)
  4. विद्वेष से (maliciously)
  5. असावधानी से (recklessly)
  6. उपेक्षा से (negligently)
  7. स्वैरिता से (wantonly)
  8. भ्रष्टतापूर्वक (malignantly)
  9. दूषित रीति से (corrupt)
  10. जानबूझकर (knowingly), और
  11. धोखे से (fraudulently)

मेंस रिया सिद्धान्त के अपवाद

आईपीसी मे इन शब्दों के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि मेंस रिया के सामान्य सिद्धांत को इसमे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया है। लेकिन इस सामान्य नियम के कुछ महत्वपूर्ण अपवाद भी है। अर्थात कुछ ऐसे कार्य है जो मेंस रिया या मानसिक आशय के अभाव मे भी अपराध होते है। इन्हे कठोर या पूर्ण दायित्व (strict liability) कहते है।

कठोर या पूर्ण दायित्व (strict liability) सिद्धांत का अर्थ यह है कि कुछ कार्य अपने-आप मे आपराधिक दायित्व (criminal liability) उत्पन्न करते है अर्थात दंडनीय होते है, भले ही इसके लिए आपराधिक आशय या मेंस रिया हो या न हो। इस तरह के अपराधों को तीन वर्गों मे रखा जा सकता है। ये तीन वर्ग निम्नलिखित है:

(1) जहाँ कारित अपराध गंभीर प्रकृति का हो- ऐसे अपराध जिनका दुष्प्रभाव समाज पर वृहत्तर रूप से पडता है, भले ही इसे करने वाले का ऐसा आशय न हो। उदाहरण के लिए भारत सरकार के विरूद्ध युद्ध (धारा 121), राजद्रोह (धारा 124 क), सिक्कों का कूटकरण (धारा 232), अपहरण और व्यपहरण (धारा 259 और 263), बलात्संग (धारा 375) इत्यादि। इसलिए ऐसे अपराधों के लिए विधि द्वारा कठोर आपराधिक दायित्व का सिद्धांत लागू किया जाता है।

आर. बनाम प्रिंस (1875) इस प्रश्न पर एक महत्त्वपूर्ण मुकदमा था। इस मामले में अभियुक्त ने 16 वर्ष की एक नाबालिग लडकी को उसके पिता के विधितः संरक्षण से उसकी मर्जी के विरूद्ध ले गया था। 18 वर्ष से कम उम्र की लडकी को इस तरह ले जाना अपराध था। अभियुक्त ने अपने बचाव में तर्क दिया कि लड़की ने उसे अपनी उम्र 18 वर्ष बताया था और वह उस पर विश्वास करके उसे बालिग मानकर ले गया था। अतः उसे ज्ञात नहीं था और इसलिए विधि विरूद्ध कार्य कारित करने का कोई आशय नहीं था। लेकिन कोर्ट ने कठोर दायित्व का सिद्धांत अपनाते हुए अभियुक्त को दोषी माना।

(2) लोक सुरक्षा और लोक कल्याण के हित में- जो कार्य सामान्य रूप से लोगों की सुरक्षा और कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव डाले ऐसे कार्यों को कारित करने में विधि द्वारा कठोर दायित्व का सिद्धांत अपनाया जाता है। सड़क दुर्घटना, प्रदूषण, रिश्वत, तस्करी, मिलावटी सामान बेचने, विदेशी मुद्रा के लेनदेन, घातक हथियार रखना या बेचना, नशीले पदार्थों को रखना या बेचना इत्यादि ऐसी श्रेणी के विधिक अपराध है और तत्संबंधी अधिनियम में कठोर दायित्व का प्रावधान किया गया है।

सरजु प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 1961 SC 631) मामले में सुप्रिम कोर्ट ने मिलावटी खाद्य पदार्थों की बिक्री करने वाले कर्मचारी के इस दलील को खारिज कर दिया कि वह तो नौकर की हैसियत से दुकान पर कार्य कर रहा था और मिलावटी खाद्य पदार्थ बेचने के अपराध के लिए उसका कोई दुराश्य (मेन्स रिया) नहीं था। कोर्ट ने कहा कि प्रिवेंशन ऑफ फूड एडलटरेशन एक्ट, 1954 की धारा 7 के तहत किया गए कार्य के लिए कठोर दायित्व का प्रावधान है जो कि मेन्स रिया की अनुपस्थिति में भी धारा 16 के तहत दण्डनीय है।

एम सी मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1988) (1 SCC 471) में सुप्रिम कोर्ट ने माना कि स्वच्छ और स्वास्थ्य के अनुकूल पर्यावरण नागरिकों का मौलिक अधिकार है जिसका कि गंगा नदी के प्रदूषण से उल्लंघन हुआ है। अतः उसने उन्तीस ऐसे चर्मशोधक संयंत्र को बंद करने का आदेश दिया जिन्होंने जल शोधक संयंत्र नहीं लगाया था। कोर्ट ने यह दलील भी नहीं माना कि ये आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं है कि इतने महँगे संयंत्र लगाए।

प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liablity)- कुछ आपराधिक कृत्य ऐसे होते हैं जिनमें व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के कृत्य के लिए प्रतिनिधि होने के नाते उत्तरदायी होता है। उदाहरण के लिए नौकर या कर्मचारी के कुछ अपराधिक कृत्यों के लिए उसके मालिक या नियोक्ता का भी दायित्व होता है। ऐसे मामले में यह हो सकता है कि उस विधि विरूद्ध कार्य करने के लिए मालिक या नियोक्ता का न तो आशय हो या न तो ज्ञान। इसे प्रतिनिधिक दायित्व कहते हैं।

उदाहरण के लिए, क एक दुकान का मालिक है। ख उसका नौकर है जो दुकान पर बैठता है। ख ने दुकान पर आए किसी ग्राहक ग को आघात पहुँचाया। ऐसे मामले में ख को दण्ड मिलेगा लेकिन क, जिसका व्यक्तिगत रूप से इस मामले से कोई लेनादेना नहीं था, भी मालिक होने के नाते ग को क्षतिपूर्ति देने के लिए उत्तरदायी होगा। इसी सिद्धांत के अनुसार अगर कोई कर्मचारी अपने कार्यकाल के दौरान किसी दुर्घटना में मारा जाय तो मालिक उसके विधिक उत्तराधिकारियों को क्षतिपूर्ति देता है यद्यपि इस दुर्घटना में व्यक्तिगत रूप से उसका कोई हाथ नहीं हो। 

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