गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार

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गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार

गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार से तात्पर्य है जो व्यक्ति किसी भी कारण से गिरफ्तार है और पुलिस या अन्य कानूनी संस्था के नियंत्रण में है, उसे वहाँ मिलने वाले अधिकार। आए दिन देश के विभिन्न भागों से हिरासत मे पुलिस द्वारा प्रताड़णा (custodial violence) की खबरें आती रहती है। इनमें ऐसी शारीरिक प्रताड़णा जिससे विकलांगता या मृत्यु तक हो जाती है, भी शामिल होती है।

पुलिस द्वारा अपने शक्ति का दुरुपयोग कर हिरासत (custody) मे अकेले और असहाय पड़े व्यक्ति को प्रताड़ित करने की आशंका को कानून बनाने वाले भी जानते थे। इसलिए दंड प्रक्रिया संहिता अर्थात कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, जिसे संक्षेप मे CrPC, कहते हैं, मे इससे बचाव के लिए कई उपाय किए गए है।

गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार (right of arrested persons) शब्द का अर्थ के है कि ये उपाय रूप मे अधिकार के रूप में दिए गए है।  ताकि इनका पालन न होने पर वह कानून के द्वारा इसे पूरा करवा सके।  और कुछ परिस्थियों मे इसका उल्लंघन करने वाले अधिकारी के विरुद्ध कानूनी कारवाई की जा सके।

समय-समय पर न्यायालयों ने भी इसके लिए प्रयास किए है। माननीय सुप्रिम कोर्ट ने हिरासत मे प्रताड़णा (custodial violence) के प्रति बहुत कडा रुख अपनाते हुए इसे रोकने के लिए दिशानिर्देश (guidelines) भी जारी किया है। पुलिस के अवैध प्रताड़णा से बचाव के लिए इन कानूनी उपायों और दिशनिर्देशों की जानकारी प्रत्येक भारतीय को होना चाहिए।

गिरफ़्तार व्यक्ति को दिए जाने वाले अधिकारों का मुख्य उद्देश्य होता है उसे पुलिस की अवैध प्रताड़णा से सुरक्षा देना। इन अधिकारों के तीन सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है – दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, i.e. CrPC), भारत का संविधान (Constitution of India) और उच्चतम न्यायालय के निर्णय।

गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार, जो उन्हे   दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 से मिले हैं:

सीआरपीसी का चैप्टर 5, जिसमे सेक्शन 40 से 60A तक है, इसके लिए विशेष महत्वपूर्ण है। इस चैप्टर का शीर्षक है “व्यक्तियों की गिरफ्तारी” (arrest of persons)।

गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार, जो उन्हें भारत के संविधान से मिले हैं:

संविधान मे दिए गए मौलिक अधिकारों (fundamental rights) मे से तीन इसके लिए विशेष महत्वपूर्ण हैं। ये है- अनुच्छेद 21, 22 और 20 ।

अनुच्छेद 21 का शीर्षक है “प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण” (protection of life and personal liberty)

अनुच्छेद 22 का शीर्षक है “कुछ दशाओं मे गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण” “(protection against arrest and detention in certain cases), और

अनुच्छेद 20 का शीर्षक है “अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध मे संरक्षण” (protection in respect of conviction for offences)

गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार:

गिरफ़्तार व्यक्तियों (Arrested Persons) को कानून द्वारा दिए गए अधिकारों को इन वर्गों मे रखा जा सकता है –

  1. सूचना से संबन्धित अधिकार;
  2. सुरक्षा से संबन्धित अधिकार;
  3. विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार;
  4. चिकित्सीय परीक्षण का अधिकार; इनके अतिरिक्त उन्हे ये मत्वपूर्ण अधिकार भी प्राप्त है –
  5. चुप रहने का अधिकार;
  6. स्पीडी और फेयर ट्रायल का अधिकार; और
  7. मुफ्त कानूनी सहायता यानि फ्री लीगल एड पाने का अधिकार।

 सूचना से संबन्धित अधिकार

सीआरपीसी का सेक्शन 50 – गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों और जमानत के अधिकार की सूचना दिए जाने से संबन्धित उपबंध करता है।

सीपीआरसी का सेक्शन 50 A – गिरफ्तार किए गए व्यक्ति द्वारा नामित व्यक्ति को गिरफ्तारी आदि के विषय मे सूचना देने के लिए उस व्यक्ति को बाध्य करता है जिसने उसे गिरफ्तार किया है।

इसी कोड का सेक्शन 55 – उस प्रक्रिया के विषय मे प्रावधान करता है जिसका पालन उस समय करना होगा जब पुलिस अधिकारी वारंट के बिना गिरफ्तार करने के लिए अपने अधीनस्थ अधिकारी को प्रतिनियुक्त करता है। इस मे भी यह उपबंध है कि इस प्रकार प्रतिनियुक्त अधिकारी गिरफ्तारी से पहले वह लिखित आदेश, जिसमे उसके अपराध या अन्य कारण जिसके लिए उसे गिरफ्तार किया जा रहा है, लिखित रूप मे होगा, के सार कि सूचना देगा या माँग करने पर आदेश दिखाएगा ।

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    सेक्शन 75 मे भी वारंट का निष्पादन करने वाले व्यक्ति द्वारा गिरफ्तारी से पहले वारंट के सार कि सूचना देने को आवशयक बनाया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 22 (1) के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र गिरफ्तारी के कारणों कि सूचना दिए बिना परिरुद्ध नहीं रखा जा सकता है।

सुरक्षा से संबन्धित अधिकार

सेक्शन 55A – जिसके कस्टडी मे अभियुक्त व्यक्ति हो, उसका यह कर्तव्य बनाता है कि वह उस व्यक्ति के स्वस्थ्य और सुरक्षा की युक्तियुक्त देखभाल करे।

    सेक्शन 56 – इस संबंध मे एक अत्यंत महत्वपूर्ण सेक्शन है। इस सेक्शन के अनुसार वारंट के बिना गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उसे गिरफ्तार करने वाला पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के समक्ष या पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी (ऑफिसर इन चार्ज) के समक्ष बिना अनावश्यक देर किए ले जाएगा या भेजेगा।

     सेक्शन 57 – कहता है की कोई पुलिस अधिकारी वारंट के बिना गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक कस्टडी मे नहीं रखेगा। इस 24 घंटे मे वह समय शामिल नहीं है जो यात्रा मे
आवशयक रूप से लगा हो।

     सेक्शन 76 – इस संबंध मे एक अन्य महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय करता है। इस सेक्शन के अनुसार गिरफ्तार करने वाला अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को अनावशयक देर किए बिना उस न्यायालय के समक्ष लाएगा, जिसके समक्ष उस व्यक्ति को पेश करने के लिए वह विधि द्वारा अपेक्षित है। ऐसा विलंब यात्रा के आवशयक समय को छोड़ कर 24 घंटे से अधिक नहीं हो सकता है।

सेक्शन 58 – के अनुसार पुलिस स्टेशन के इंचार्ज डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट को, या उसके निर्देश पारा सब-डिवीज़नल मैजिस्ट्रेट को, अपने क्षेत्र मे वारंट के बिना किए गए सभी गिरफ्तारियों की सूचना देंगे भले ही उस व्यक्ति ने जमानत ली हो या नहीं ली हो।

                यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद (article) 22 (2) मे भी निहित है। अनुच्छेद 22 का शीर्षक है “कुछ दशाओं मे गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण” “(protection against arrest and detention in certain cases) इसका उपखंड 2 भी गिरफ्तार व्यक्ति को नजदीकी मैजिस्ट्रेट के पास 24 घंटे के अंदर, जिसमे यात्रा मे लागने वाला समय शामिल नहीं है, पेश करने को अनिवार्य बनाता है।

विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार (right to get legal assistance)

             सेक्शन 41 – गिरफ़्तार व्यक्ति को पूछताछ (interrogation) के दौरान अपनी पसंद के एडवोकट से मिलने का अधिकार देता है। यद्यपि एडवोकट पूछताछ के दौरान उपस्थित रह सकता है लेकिन सम्पूर्ण पूछपाछ के दौरान उपस्थित रहने का अधिकार उसे नहीं है।

            संविधान के अनुच्छेद 22 के उपखंड (1) के अनुसार भी गिरफ़्तार व्यक्ति को अपनी पसंद के विधि व्यवसायी से सलाह लेने का अधिकार है।

            मुफ्त कानूनी सहायता (free legal aid) के अधिकार को मान्यता उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 21 के तहत जीवन की व्याख्या करते हुए दिया गया है। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी गरीबी के कारण संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित हो जाए तो इससे मौलिक अधिकारों का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने सुकदास बनाम संघ राज्य क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश [1986 AIR 991, 1986 SCR (1) 590] केस मे मुफ्त कानूनी सहायता के संबंध मे विस्तार से विचार किया और कहा कि यह सांवैधानिक अधिकार है और इस अधिकार से किसी व्यक्ति को उस स्थिति मे भी वंचित नहीं किया जा सकता है जब उसने इसके लिए आवेदन नहीं किया है।

4     चिकित्सीय परीक्षण का अधिकार (right to examine by medical practitioner)

सीआरपीसी का सेक्शन 54 एक अत्यंत महत्वपूर्ण अधिकार देता है, यह है किसी चिकित्सा व्यवसायी से गिरफ़्तार व्यक्ति का परीक्षण करवाना। इससे यह पता चल जाता है कि गिरफ़्तार व्यक्ति के शरीर पीआर कोई घाव इत्यादि तो नहीं था, ताकि बाद मे हिरासत मे पुलिस द्वारा प्रताड़णा करने पर लगे घाव का पता लगाया जा सके।

          इन अधिकारों के अतिरिक्त भारत का संविधान गिरफ़्तार व्यक्ति को कुछ अन्य अधिकार भी देता है। ये अधिकार है:

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         चुप रहने का अधिकार (right to silence) 

                       यह अधिकार अनुच्छेद 20 के उपखंड 3 मे निहित है। इस उप-अनुच्छेद के अनुसार “किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा”।

          शीघ्र और निष्पक्ष विचारण का अधिकार (right to speedy and fair trial)

           हुस्नआरा खातून [IV] बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य, [(1980) 1 SCC 98] केस मे सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुछेद 21 के तहत जीवन के अधिकार मे शीघ्र और निष्पक्ष विचारण के अधिकार को मान्यता दिया था।

 उच्चतम न्यायालय ने हिरासत मे मृत्यु और प्रताड़णा को बहुत ही गंभीरता से लिया है और कई केस मे इसके विरुद्ध कठोर रुख अपनाया है। ऐसे केसों मे डी के बसु केस सबसे महत्वपूर्ण है जिसमे न्यायालय ने हिरासत मे मृत्यु और प्रताड़णा रोकने के लिए गाइडलाइंस बनाए है। इस केस के बारे मे थोड़ा विस्तार से जानते है।

     गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकार: केस लॉ

        डी के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य [(1997) 1 SCC 416]

निर्णय की तिथि – 18 दिसंबर, 1996

निर्णय करने वाले दो सदस्यीय बेंच के सदस्य थे – न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और न्यायमूर्ति ए एस आनंद। न्यायमूर्ति आनंद ने यह निर्णय लिखाया था।

          इस केस के तथ्य इस तरह थे – डी के बसु, जो की पश्चिम बंगाल के एक गैर राजनीतिक संगठन“लीगल एड सर्विसेस” के एक्सीक्यूटिव चेयरमैन थे, 26 अगस्त, 1986 को भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर उनका ध्यान टेलीग्राफ न्यूजपेपर मे छपे कुछ ऐसे खबरों की तरफ खींचा जो पुलिस हिरासत मे हुई मौतों से संबन्धित था। उन्होने इस पत्र को जनहित याचिका (public interest litigation) की तरह मानने का आग्रह भी किया था।

पत्र मे उठाए गए मुद्दे के महत्त्व को देखते हुए इसे जनहित याचिका मे परिवर्तित कर दिया गया और प्रतिवादी को नोटिस भेजा गया । इसी बीच अशोक कुमार जौहरी नामक एक व्यक्ति ने भी मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा जिसमें उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के पास पिलखाना में महेश बिहारी नामक व्यक्ति के पुलिस कस्टडी में मौत के बारे में उनका ध्यान आकृष्ट किया गया था। यह केस अशोक कुमार जौहरी वर्सेस स्टेट ऑफ यूपी के नाम से रजिस्टर्ड हुआ।

कोर्ट ने इन दोनों केसेस को मिलाकर एक साथ सुनवाई शुरू किया और सभी राज्य सरकारों और लॉ कमीशन को रेस्पोंडेंट बनाते हुए नोटिस जारी किया। इस केस में कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण ऑब्जर्वेशन और गाइडलाइंस दिए:


1.हिरासत मे हिंसा जिसमे कि शारीरिक उत्पीड़न और मृत्यु भी शामिल है, “कानून के शासन” के लिए आघात है। 

2. नागरिकों के व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और जीवन की सुरक्षा के लिए कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के होते हुए भी हिरासत में उत्पीड़न और मृत्यु के अनेक मामले होते है जो क्षुब्ध करने वाले तथ्य है।

3. न्यायालय ने हिरासत मे मृत्यु कि तीक्ष्ण आलोचना की और इस कानून से शासित होने वाले एक सभ्य समाज में होने वाले निकृष्टतम अपराधों में से एक बताया।

4. न्यायालय ने यह भी माना कि गिरफ्तार व्यक्ति भले ही किसी भी कारण से और किसी भी रूप में हिरासत में लिया गया हो, संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए जीवन के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि कानून द्वारा अनुमत विधि से ऐसा नहीं किया जाए।

   5· न्यायालय ने इस केस मे 11 ऐसे दिशा-निर्देश जारी किए जिसका पालन गिरफ्तारी के प्रति केस में होना अनिवार्य है। यह 11 दिशानिर्देश हैं:-

1. गिरफ्तारी या पूछताछ (interrogation) करने वाला पुलिस अधिकारी स्पष्ट और सही शब्दों में लिखा हुआ नाम और पदनाम वाला टैग इस तरह पहनेगा जिससे वह स्पष्ट रूप से देखा जा सके। जिस व्यक्ति को गिरफ्तार व्यक्ति का पूछताछ करने का दायित्व सौंपा जाएगा उसका ब्यौरा रजिस्टर में अनिवार्य रूप से दर्ज कराना होगा।

2.गिरफ्तारी के समय गिरफ्तार करने वाला पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी का ब्यौरा यानि अरेस्ट मेमो तैयार करेगा। इस पर कम से कम 2 गवाहों के हस्ताक्षर होंगे। ये दो गवाह या तो गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार का कोई सदस्य होंगे या उस स्थान कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति होगा। इस पर गिरफ्तार व्यक्ति के प्रति-हस्ताक्षर भी होंगे। इस पर समय और तारीख जरुर लिखा जायेगा।

3. गिरफ्तार व्यक्ति को जिस जगह पर रखा जाएगा उसकी सूचना यथाशीघ्र उसके किसी संबंधी, मित्र, या किसी ऐसे व्यक्ति को दे दी जाएगी जो उससे हितबद्ध हो।

4. गिरफ्तारी का समय, स्थान और वह स्थान जहां उसे परिरुद्ध करके रखा गया हो, की सूचना उस जिला या उस शहर के बाहर रहने वाले उसके मित्र या संबंधी को गिरफ्तारी के 8 से 12 घंटे के अंदर उस जिला के लीगल एड ऑर्गेनाइजेशन, या पुलिस स्टेशन द्वारा दे दिया जाएगा।

5. गिरफ्तार व्यक्ति को उसके किसी संबंधी या मित्र को उसके गिरफ्तारी की सूचना से संबंधित उसके अधिकार की सूचना उसकी गिरफ्तारी या परिरोध के तुरंत बाद अनिवार्य रूप से दे दी जाएगी।

6. केस डायरी में परिरोध का स्थान, उस पुलिस अधिकारी का नाम जिसके हिरासत में वह है, और गिरफ्तार व्यक्ति ने अपने जिस संबंधी या मित्र को सूचना देने के लिए कहा हो, उसका नाम अनिवार्य रूप से दर्ज किया जाएगा।

7.गिरफ्तारी के समय गिरफ्तार व्यक्ति के आग्रह पर उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाएगा और उसके शरीर पर होने वाले सभी छोटे या बड़े घाव को अनिवार्य रूप से इंस्पेक्शन मेमो में दर्ज किया जाएगा। इस पर गिरफ्तार व्यक्ति और उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी दोनों के हस्ताक्षर होंगे और इसकी एक कॉपी गिरफ्तार व्यक्ति को दिया जाएगा। 

8. संदर्भित राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के स्वास्थ्य सेवा के निदेशक द्वारा मान्यता प्राप्त डॉक्टरों का एक पैनल बनाया जाएगा। गिरफ्तार व्यक्ति का प्रत्येक 48 घंटे बाद मेडिकल परीक्षण इन डॉक्टर द्वारा होगा।

9. गिरफ्तारी से संबंधित प्रत्येक दस्तावेज़, जिसमे मेमो ऑफ अरेस्ट भी शामिल है, मैजिस्ट्रेट को भेजा जाएगा।10. गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ (interrogation) के दौरान अपने वकील से मिलने की अनुमति होगी,यद्यपि पूछताछ के पूरे समय वकील का उपस्थित रहना आवश्यक नहीं होगा।

11. प्रत्येक जिला और राज्य हेड क्वार्टर में एक पुलिस कंट्रोल रूम होगा, जहां गिरफ्तारी और परिरोध के स्थान के विषय में गिरफ्तार करने वाला अधिकारी 12 घंटे के अंदर सूचना देगा। यह सूचना कंट्रोल रूम के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित होगा।

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा डी के बसु मामले में जारी किए गए ये दिशानिर्देश उन सुरक्षा उपायों के अतिरिक्त हैं जो सीआरपीसी और भारत के संविधान द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति को दिए गए हैं। 2008 में सीआरपीसी में किए गए संशोधन में इन मे से कुछ को शामिल कर लिया गया है।

                       2005 के संशोधन द्वारा सीआरपीसी मे धारा 50A जोड़ा गया है। इस धारा के अनुसार गिरफ्तार करने वाले अधिकारी के लिए गिरफ्तारी आदि की सूचना गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा नामित व्यक्ति को देना अनिवार्य कर किया गया है।

2008 के संशोधन द्वारा शामिल किए गए धारा 60A के अनुसार गिरफ्तारी सीआरपीसी और उस समय प्रवृत्त अन्य कानूनों के अनुसार ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

       सुनील बत्रा वर्सेस दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन

·     हिरासत में प्रताड़ना के लिए एक अन्य लीडिंग केस है सुनील बत्रा वर्सेस दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन। इस केस में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी कुछ विशेष मामलों में और विशेष आदेश से ही लगाया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

                     अवैध गिरफ्तारी के लिए सीआरपीसी में यद्यपि स्पष्ट रूप से क्षतिपूर्ति (compensation) का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई लिडिंग केस मे कहा है कि यह अधिकार संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के हनन के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को क्रमश अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद32 के तहत दिये गए शक्ति मे अंतर्निहित है।

                        इन सुरक्षा उपायों का एकमात्र उद्देश्य है पुलिस के हिरासत में किसी व्यक्ति का शारीरिक उत्पीड़न नहीं हो। पर इन तमाम उपायों के बावजूद हिरासत में प्रताड़ना और मृत्यु के मामले आज भी सामने आते रहते हैं। इसके लिए जनता मे अपने अधिकारों के विषय में जागरूकता, तत्संबंधी कानूनों का सख्ती से पालन, पुलिस की ट्रेनिंग में सुधार, इंटेरोगेशन के अन्य वैज्ञानिक तरीकों का अधिकाधिक प्रयोग, इत्यादि उपाय करने होंगे तभी ऐसे जघन्य अपराध रुक पाएंगे।

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