दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन (Restitution of Conjugal Rights) धारा 9

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दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना वैवाहिक विधि का एक अत्यंत विवादित अनुतोष है। विवाद का मुख्य मुद्दा यह है कि क्या किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के विरूद्ध किसी अन्य व्यक्ति, जो भले ही उसका पति या पत्नी ही क्यों न हो, के साथ रहने और संभोग के लिए बाध्य करना अमानवीय, क्रूर और अपमानजनक नहीं है। इतना ही नहीं यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण जीवन के सिद्धांत के भी विरूद्ध है। दूसरी तरफ इसके समर्थक मानते हैं कि विवाह संस्था के साथ कुछ अधिकार अन्तर्निहित हैं जिनसे किसी एक पक्ष को मनमानी रूप से और बिना किसी कारण के वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि इस वैवाहिक अनुतोष का उद्गम रोमन विधि से हुआ है जिसमें पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता था और भागी हुई पत्नी को पुनः उसके स्वामी को देना राज्य का कर्तव्य था। दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना का यह अनुतोष रोमन विधि से अंग्रेजी विधि में आया जहाँ यह अधिकार पत्नी को भी मिले। अंग्रेजी विधि से यह भारतीय विधि में आया। भारत में लगभग सभी समुदायों के व्यक्ति को यह अनुतोष उपलब्ध हैं जो या तो उनके व्यक्तिक विधि के तहत उन्हें मिले हैं या सामान्य विधि के तहत।

भारतीय विधि में इसमें कुछ संशोधन कर अधिक मानवीय बनाने का प्रयत्न किया गया है। एक वर्ष तक दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना की डिक्री पर तामिल नहीं हो पाने को तलाक की डिक्री का आधार बनाने के पीछे यहीं सिद्धांत है कि अगर विवाह असमाधेय रूप से भंग हो चुका है और दोनों पक्षों में साहचर्य की कोई संभावना नहीं है तो उन्हें बलपूर्वक विवाह बंधन में बाँधने के बजाय इससे मुक्त होने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत तीन शर्तों के पूरा होने पर न्यायालय दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना की डिक्री पारित कर सकती है-

1. प्रतिपक्षी बिना किसी युक्तियुक्त कारण के याचिकाकर्ता के साहचर्य से अलग हो गया है;

2. न्यायालय याचिकाकर्ता द्वारा याचिका में अभिकथित बयानों की सत्यता से संतुष्ट है, और

3. अनुतोष देने के मार्ग में कोई अन्य बाधा नहीं है।

दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना की डिक्री के लिए प्रतिपक्षी अपने बचाव में निम्नलिखित तर्क ले सकता है-

1. प्रत्यर्थी ने अपने को प्रार्थी के साहचर्य से नहीं हटाया हैं।

2. इस साहचर्य से हटने का युक्तियुक्त कारण है।

3. प्रार्थी और प्रत्यर्थी के मध्य कोई मान्य विवाह अस्तित्व में है ही नहीं।

4. प्रार्थी अपनी गलती या अयोग्यता का लाभ उठाना चाह रहा है।

5. याचिका दायर करने में अनावश्यक या अनुचित विलम्ब हुआ है।

6. याचिका प्रत्यर्थी के साथ साँठ-गाँठ करके पेश की गई है।

धारा 9 में उल्लिखित “युक्तियुक्त कारण” शब्द को अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन न्यायिक निर्णयों में माना गया है कि यह विवाह-विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण और विवाह की अकृतता के आधारों से कम भी हो सकते है। कौन से कारण युक्तियुक्त माना जाएगा यह प्रत्येक मामले के विशेष तथ्यों पर निर्भर करता है। सामान्यतः युक्तियुक्त या औचित्यपूर्ण कारण से आशय होता है-

1. वैवाहिक अनुतोष का कोई भी आधार जैसे, क्रूरता, जारकर्म, नपुंसकता, धर्म का संपरिवर्तन इत्यादि।

2. कोई भी वैवाहिक दुराचार जो वैवाहिक अनुतोष के आधार की परिभाषा में नहीं आता है, जैसे, याचिकाकर्ता द्वारा अपने शाकाहारी ब्राह्मण पत्नी को मांसाहार एवं मदिरापान करने के लिए बाध्य करना (चाँद विरूद्ध सरोज, 1955 राजस्थान 88), याचिकाकर्ता के किसी दूसरी पत्नी का होना (भगवती विरूद्ध साधू 1961 पंजाब 181), आदि। पर ये ऐसे दुराचरण है कि प्रत्यर्थी याचिकाकर्ता के साथ रहना युक्तियुक्त रूप से संभव नहीं रहे।

3. याचिकाकर्ता को कोई ऐसा आचरण या कृत्य जिससे प्रत्यर्थी को युक्तियुक्त रूप से यह आशंका हो कि उसका याचिकाकर्ता के साथ रहना संभव नहीं है या रहने से उसके जीवन या स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। उदाहरण के लिए प्रत्युत्तरदाता द्वारा अंधविश्वास या मानसिक बीमारी के कारण किया गया कोई ऐसा कार्य जिससे प्रार्थी के जीवन या स्वास्थ्य को खतरा हो।

अगर इन कारणों में से कोई कारण हो तो यह कहा जा सकता है कि प्रत्यर्थी के पास याचिकाकर्ता के साहचर्य से स्वयं को अलग करने का युक्तियुक्त कारण था और ऐसी स्थिति में याचिकाकर्ता के पक्ष में दाम्पत्य अधिकारों की प्रस्थापना की डिक्री पारित नहीं किया जा सकता है।

महत्त्वपूर्ण मुकदमें (Case Law)

सुशील कुमारी डांग वर्सेस प्रेम कुमार (AIR 1976 Delhi 321)

याचिकाकर्ता और प्रत्युत्तरदाता का विवाह 25.02.1970 को हुआ था। दोनों क्लर्क थे।

दोनों 15.07.1970 तक पति-पत्नी की तरह साथ रहें। 16.07.1970 से पत्नी अपने माता-पिता के पास रहने लगी। जहाँ फरवरी, 1971 में उसने एक बेटी को जन्म दिया जो कि माँ के साथ ही रहती थी। अलग होने के लगभग एक साल बाद अथात् जुलाई, 1971 में पति ने पत्नी के विरूद्ध धारा 9 के तहत याचिका दायर किया। पति का तर्क था कि पत्नी ने बिना किसी उचित कारण के और बिना उसकी सहमति के उसका साथ छोड़ कर अपने माता-पिता के साथ रहने लगी है। दूसरी तरफ पत्नी का कहना था कि उसका पति रोज शराब पीता था, कभी-कभी लड़कियों को भी लाता था। वह 5-6 रूपये छोड़ कर उसका सारा वेतन ले लेता था। वह उससे उस जगह की चाभी माँगता था जहाँ दहेज का सामान रखा था और मना करने पर उसकी पीटाई करता था। ऐसी ही एक घटना जुलाई, 1971 में हुई थी जब पति ने उसे पिता से 10,000 रूपये लाने के लिए कहा और मना करने पर पीटाई की। इसी घटना के बाद 16 जुलाई, 1970 के बाद वह पिता के घर चली गई और वहीं रहने लगी। यहाँ तक कि उसका पति अपने भाई के साथ उसके मायके गया और उसकी पीटाई की। इस तरह, उसे पति के दुर्व्यवहार के करण उसका साहचर्य छोड़ना पडा़।

विचारण न्यायालय ने पति के पक्ष में फैसला दिया। पत्नी ने उच्च न्यायालय में अपील की। न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि यदि पति दुराश्य से कार्य कर रहा हो तो क्या इस स्थिति में वह धारा 9 के तहत “दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन” की डिक्री का हकदार है?

उच्च न्यायालय के अनुसार धारा 9 के तहत “दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन” की डिक्री का मूल उद्देश्य विवाह को बचाना है। यह तभी पारित किया जाना चाहिए जब याचिकाकर्त्ता वास्तव में वैवाहिक साहचर्य के लिए इच्छुक हो, भले ही उन दोनों में ज्यादा प्यार या लगाव नहीं हो, लेकिन याचिकाकर्त्ता का यदि कोई प्रच्छन्न दुराश्य हो तो वैसी स्थिति में उसके पक्ष में डिक्री पारित नहीं किया जाना चाहिए। डिक्री पाने के लिए याचिकाकर्त्ता को यह भी दिखाना चाहिए कि उसने अपने वैवाहिक संबंधों को बचाने के लिए वास्तव में प्रयास किया है तथा अपने वैवाहिक दायित्वों को पूरा किया है। अगर न्यायालय को लगे कि आवेदक का मूल उद्देश्य इसके प्रावधानों का दुरूपयोग कर तलाक की डिक्री लेना है तो वह  धारा 9 के तहत “दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन” की डिक्री पारित करने से इंकार कर सकता है।

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न्यायालय के अनुसार प्रस्तुत मामले में याचिकाकर्त्ता पति की बातों में अन्तर्विरोध है। एक तरफ वह पत्नी पर किसी अन्य पुरूष से “घनिष्ठता” का आरोप लगा रहा है तो दूसरी तरफ धारा 9 के तहत “वैवाहिक संबंधों की प्रत्यास्थापना” की डिक्री चाहता है। यहाँ तक कि विचारण न्यायालय द्वारा डिक्री मिलने के बाद उसने पत्नी के आने का इंतजार नहीं किया जिसके लिए अधिनियम में 2 वर्ष की अवधि निर्धारित है। इसके विपरीत उसने 7 दिन बाद ही तलाक के लिए याचिका दायर कर दिया। इस तरह उसने पत्नी के लौट आने का रास्ता स्वयं ही बन्द कर दिया। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि पति ने याचिका यद्यपि “दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन” की डिक्री के लिए दायर किया था लेकिन उसका प्रच्छन्न आशय तलाक की डिक्री प्राप्त करना था। उसके पास तलाक की डिक्री के लिए कोई आधार नहीं था। अतः उसने प्रस्तुत वाद दायर किया था। उसे यह डिक्री देने का अर्थ उसे उसकी दोष का लाभ देना होगा। उपर्युक्त तर्कों के आधार पर न्यायालय ने पत्नी की अपील स्वीकार कर लिया।

कैलाशवती वर्सेस अजोधिया प्रकाश

याचिकाकर्त्ता (petitioner) और प्रत्युत्तरदाता (respondent) का विवाह 1964 में हुआ था। विवाह के समय दोनों ही अलग-अलग जगहों पर शिक्षक थे। विवाह के बाद पत्नी का स्थानांतरण (transfer) पति के पास हो गया। यहाँ वे दोनों 8-9 महिने साथ रहे। इसके बाद पत्नी ने पति के मर्जी के बिना अपने पिता के गाँव में ट्रांसफर करा लिया और माता-पिता के साथ रहने लगी। लगभग छह वर्ष बाद 1971 में पति ने धारा 9 के तहत याचिका दायर किया।

पति का तर्क था कि उसकी पत्नी ने वैवाहिक घर में रहने से अपने को एकतरफा ढ़ंग से अलग कर लिया। उसका यह भी कहना था कि वह अपनी नौकरी और कृषि भूमि से होने वाले आय से इतना सक्षम है कि अपनी पत्नी को एक गरिमापूर्ण एवं आरामदायक जिंदगी दे सकता है। लेकिन पत्नी द्वारा साथ नहीं रहने के कारण उसके अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष उसे वैवाहिक सुखों से वंचित होना पड़ा और पत्नी की इस जिद़ के कारण सेवानिवृति से पहले वे साथ नहीं रह पाऐंगे। पत्नी का कहना था कि विवाह के समय वह कार्यरत थी और पति यह भलीभाँति जानता था कि नौकरी की जरूरतों के कारण वह साथ नहीं रह सकती। चूँकि पति ने यह जानते हुए उससे विवाह करना स्वीकार किया था इसलिए पति के साथ रहने की उसकी बाध्यता नहीं है। उसका यह भी कहना था कि उसने कभी पति द्वारा उसके पास आने या छुट्टियों में मिलने से इंकार नहीं किया है। पति ट्रांसफर करा कर उसके पास आ सकता है। उसने अपने वैवाहिक जिम्मेदारी निभाने से कभी इंकार नहीं किया है लेकिन वह नौकरी से त्यागपत्र देने और पति के घर वापस जाने के लिए तैयार नहीं है।

विचारण न्यायालय और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने पति के पक्ष में मत दिया। पत्नी ने इसके विरूद्ध लेटर पेटेंट अपील (LPA) दायर किया।

न्यायालय के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम में वैवाहिक दायित्व की चर्चा तो है लेकिन इसे परिभाषित नहीं किया गया है। सामान्यतः परम्परागत रूप से मान्य जो वैवाहिक दायित्व हैं उनके अनुसार पत्नी का पति के साथ उसके घर में रहना उसका दायित्व माना जाता है। न्यायालय के समक्ष मूल प्रश्न यह था कि क्या पत्नी अपनी इच्छा से एकतरफा रूप से अलग रहने के फैसले द्वारा वैवाहिक घर की पवित्र संकल्पना को पति-पत्नी के कभी-कभार मिलने तक सीमित कर सकती है? पत्नी जो कि अपने वैवाहिक घर से दूर लाभप्रद रूप से नौकरी कर रही हो पति की बार-बार माँग के बावजूद इसे छोड़कर पति के पास रहने के लिए तैयार नहीं हो, तो क्या यह विधि द्वारा न्यायपूर्ण माना जाएगा?

उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर दो दृष्टिकोण से विचार कियाय पहला, सामान्य सिद्धांतों के अनुसार और दूसरा, हिन्दू वैवाहिक विधि एवं प्राचीन विधि ग्रन्थों के अनुसार।

न्यायालय के अनुसार विश्व के सभी सभ्य समाज में यह सामान्य रूप से स्वीकृत संकल्पना है कि विवाह के बाद पति-पत्नी वैवाहिक घर में साथ रहतें हैं क्योंकि कई वैवाहिक, पारिवारिक और सामाजिक दायित्व इस संबंध से जुड़ें होते हैं। अगर पति और पत्नी दोनों ही विवाह से पहले से ही नौकरी कर रहें हों और यह जानते हुए विवाह किया हो इसका आशय यह है कि दोनों वैवाहिक दायित्वों को निभाने के लिए तैयार हैं। पति द्वारा अपने अधिकारों का त्याग करने का कोई आशय नहीं है। यहाँ तक कि अगर पति विवाह के बाद भी पत्नी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित करता है या अनुमति देता है तब भी इसका आशय यह नहीं है कि उसने उसके साथ रहने के अपने वैवाहिक अधिकार का अधित्यजन कर दिया है। दूसरी तरफ नौकरीपेशा लड़की से विवाह करना या विवाह से पहले या बाद में पत्नी को नौकरी करने की अनुमति देने का तात्पर्य यह नहीं है कि पत्नी को हमेशा के लिए पति से दूर रहने का अधिकार मिल गया है।

पति द्वारा पत्नी के साथ रहने का दावा केवल दो शर्तों के अधीन होता है- पहला, पति अपने साधनों एवं सामाजिक स्तर के अनुसार पत्नी को एक गरिमापूर्ण एवं सुविधाजनक घर दे और दूसरा, पति यह दावा सद्इच्छा से करे न कि कोई वैवाहिक अपराध करने के आशय से। इन दोनों शर्तों के पूरा होने पर पति वैवाहिक घर में पत्नी के साथ रहने का हकदार है और पत्नी को यह अधिकार नहीं है कि वह एकतरफा रूप से अपने को पति के साहचर्य एवं समाज से अलग कर ले।

सामान्य सिद्धांतो के साथ-साथ हिन्दू विधि भी इसी पक्ष में है और दोनों में ही वैवाहिक घर एवं स्थिति सामान्यतः पति से ही जुड़ा होता है। दूसरी तरफ लगभग सभी विधि पत्नी एवं बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी पति को देते हैं, पत्नी को नहीं। इस जिम्मेदारी के लिए उसे कमाना पड़ता है और व्यवसाय के स्थान के पास ही रहना पड़ता है इसलिए सामान्यतः वैवाहिक घर का स्थान पति द्वारा ही चुना जाता है। न्यायालय ने उस स्थिति का भी उल्लेख किया जब बच्चा माता के अभिभावकत्व में रहता है जबकि इस दौरान भी उसके पालन-पोषण का खर्च उठाने की जिम्मेदारी पिता की होती है। (धारा 6 हिन्दू भरण-पोषण एवं अभिभावकत्व अधिनियम)।

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अब प्रश्न यह है कि हिन्दू पति अपनी पत्नी एवं बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व उसके अपने चुने हुए स्थान पर या वहाँ भी जहाँ वह चुन नहीं सके, उठाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है। अगर पति और पत्नी अलग-अलग स्थान पर रह रहे तो बच्चे कहाँ रहे, यह भी एक समस्या होगी। पत्नी को यह अधिकार दिया गया है तो साथ रहने का उसका कर्त्तव्य भी है। न्यायालय ने प्रसिद्ध लेखक मुल्ला की किताब के कुछ संदर्भों का भी हवाला दिया।

प्रस्तुत मामले में पत्नी ने जानबूझ कर अपना स्थानांतरण पति से दूर अपने पिता के गाँव में कराया ताकि वह अपने माता-पिता के साथ रह सके। पिछले लगभग सात इस वर्षों से वह पति से लगातार अलग रह रही थी उन कुछ अपवादों को छोड़ कर जब दबाव में आकर उसे दो या तीन दिनों के लिए पति के साथ रहना पड़ा। उसने एकतरफा रूप से जिस तरह पति के साहचर्य से अपने को अलग किया वह धारा 9 के तहत बताए गए कारणों में नहीं आता। पति ने धैर्यपूर्वक एक लंबी अवधि तक उसकी प्रतीक्षा की। अब असीम समय तक उससे प्रतीक्षा कराना क्रूरता होगी।

उपर्युक्त सभी परिस्थितियों एवं विधियों को देखते हुए न्यायालय ने निचली न्यायालय के निर्णय को सही पाया तथा पत्नी के अपील को खारिज कर दिया।

श्रीमती स्वराज गर्ग वर्सेस श्री के एम गर्ग (AIR 1978 Del 296)

याचिकाकर्त्ता (petitioner) और प्रत्युत्तरदाता (respondent) का विवाह 1964 में हुआ था। पत्नी 1956 से अर्थात विवाह के बहुत पहले से शिक्षक की नौकरी करती थी और मुकदमें के दौरान जब उसकी गवाही हो रही थी उस समय तक वह पंजाब के एक गवर्नमेंट हाई स्कूल में हेड मिस्ट्रेट हो गई थी। पति यद्यपि उच्च शिक्षित था लेकिन उसे भारत में अच्छी नौकरी नहीं मिल सकी थी। कुछ दिनों तक वह विदेशों में भी रहा। भारत लौटने पर 1966 में उसे दिल्ली में नौकरी मिली। पर उसकी आय पत्नी से कम थी। दिल्ली में उसका अपना कोई घर नहीं था। विवाह के बाद दोनों बहुत कम समय साथ रहे थे। पत्नी पंजाब में अपने नौकरी के स्थान पर रहती थी, जबकि पति दिल्ली में (कुछ दिन विदेश) में रहता था। कुछ महिनों तक वह पति के साथ दिल्ली में रही थी लेकिन फरवरी, 1956 के बाद वह नहीं लौटी। पति चाहता था कि वह नौकरी छोड़ कर उसके साथ दिल्ली में रहे जबकि पत्नी उससे अच्छे स्तर का जीवन पंजाब में जी रही थी। पति ने पत्नी के विरूद्ध धार 9 के तहत “दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन” के लिए याचिका दायर किया। उसका तर्क था कि पत्नी ने बिना किसी युक्तियुक्त कारण के पति के साहचर्य एवं समाज से अपने को अलग कर लिया है, इसलिए वह धारा 9 के तहत डिक्री पाने का हकदार है।

विचारण न्यायालय ने पति की याचिका खारिज कर दी लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के एकल पीठ ने पति के पक्ष में डिक्री पारित किया। पत्नी ने इसके विरोध में लेटर्स पेंटेंट अपील (LPA) दायर किया।

न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए दो मूल प्रश्न थे- पहला, अगर पति और पत्नी दोनों विवाह से पहले अलग-अलग स्थानों पर लाभप्रद नौकरी कर रहे हों तो विवाह के बाद वैवाहिक घर कहाँ होना चाहिए?

और दूसरा, अगर पत्नी पति की तुलना में अच्छी और लाभप्रद नौकरी कर रही हो और पति या तो नौकरी नहीं कर रहा हो या पत्नी की तुलना में कम आय अर्जित कर रहा हो तो क्या इस स्थिति में भी पति को ही यह अधिकार होगा कि वह निर्णय करे कि वैवाहिक घर कहाँ हो और उसके निर्णय के अनुरूप पत्नी अपनी अच्छी नौकरी छोड़कर उसके साथ रहने के लिए बाध्य है।

न्यायालय ने इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए धार 9 के मूल उद्देश्यों और सिद्धांतों का विस्तार से विवेचन किया। न्यायालय के अनुसार वर्तमान समय में बड़ी संख्या में महिलाएँ नौकरी और व्यावसाय करने लगी हैं और विवाह के बाद भी इसे जारी रखना चाहती हैं। ऐसे में वैवाहिक घर का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है और इसे तय करने में पति और पत्नी दोनों की सुविधाओं और नफे-नुकसान को दृष्टि में रखना चाहिए। न्यायालय ने हेल्सबरी द्वारा लिखित इंग्लैंड की विधि का भी हवाला दिया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सामान्यतः यह पति का कर्त्तव्य माना जाता है कि वह परिस्थितियों के अनुसार एक उचित घर पत्नी को उपलब्ध कराए लेकिन वैवाहिक घर कहाँ हो इस विषय में कोई कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता अपितु यह दोनों पक्षों की सहमति और सुविधा के अनुसार ही तय किया जाना चाहिए।

पति के जीविकार्जन और उसके स्थान को महत्त्व मिलना चाहिए लेकिन कुछ परिस्थितियों में पत्नी का जीविकार्जन अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है। इस संबंध में किसी एक को निर्णायक शक्ति नहीं दी जा सकती है। अगर पति और पत्नी अलग-अलग जगहों पर रहना चाहते हों और उनमें किसी एक स्थान के लिए सहमति नहीं बन सके तो उस स्थिति में असहमति के कारणों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। इंग्लैंड और भारतीय दोनों कानूनों के अनुसार पति और पत्नी का अलग रहना वरेण्य स्थिति नहीं है। हाई कोर्ट ने पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा कैलाशवती केस में दिए गए ऑवजर्वेशन को माना कि हमेशा पति को ही यह अधिकार नहीं है कि वह तय करे कि वैवाहिक घर कहाँ हो। कोर्ट ने यह भी माना कि हिन्दू विधि भी पति को यह एकाधिकार नहीं देता कि वैवाहिक घर का स्थान वही तय करे और न ही पत्नी को ऐसा करने से रोकता है। संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समानता का अधिकार देता है इसलिए भी पति को ऐसा एकाधिकार देना असंवैधानिक होगा।

प्रस्तुत मामले में पत्नी द्वारा नौकरी से न्यागपत्र न देने और पति के साथ दिल्ली में नहीं रहने के लिए युक्तियुक्त कारण था। इस मामले में पत्नी द्वारा पति के साहचर्य एवं समाज से अपने को अलग करने का आरोप भी सही नहीं माना जा सकता क्योंकि पति और पत्नी यही निर्णय नहीं कर सके थे कि दोनों का वैवाहिक घर कहाँ हो और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि पत्नी ने पति के साहचर्य एवं समाज से अपने को अलग कर लिया था।

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उपर्युक्त तर्को के आधार पर कोर्ट ने पत्नी की अपील स्वीकार कर लिया।  

सरोज रानी वर्सेस सुदर्शन कुमार (AIR 1984 SC 1562)

दोनों पक्षों का विवाह 24.01.1975 को हिन्दू रीति-रिवाजो के अनुसार हुआ। इस विवाह से दोनों को दो बेटियाँ भी थी। 16.05.1977 को पति ने पत्नी को घर से निकाल दिया और उसके साहचर्य एवं समाज से स्वयं को अलग कर लिया। 06.08.1977 को छोटी बेटी की मृत्यु हो गई। 17.10.1977 को पत्नी ने पति के विरूद्ध धारा 9 के हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 अधीन वैवाहिक संबंधों की प्रत्यास्थापन के लिए याचिका दायर किया।

न्यायालय ने दोनों पक्षों की सहमति से दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए डिक्री पास कर दिया लेकिन इस डिक्री के बाद भी दोनों साथ नहीं रहें अर्थात् दाम्पत्य संबंध पुनर्स्थापित नहीं हुआ। तब पति ने तलाक के लिए याचिका दायर किया। 15.10.1979 को जिला न्यायालय ने पति के तलाक की याचिका खारिज कर दिया। जिला न्यायलय ने यह माना कि डिक्री पास होने के बावजूद इस पर तामिल नहीं हुआ और संबंधों की पुनर्स्थापित नहीं हुई। दोनों 28.03.1978 के बाद कभी साथ नहीं रहें। न्यायलय के समक्ष दूसरा प्रश्न था कि इस मामलें में उचित तोषण (relief) क्या हो? धारा 23 के अनुसार धारा 9 की डिक्री दोनों को सहमति के आधार पर मिला था और उस समय आपसी सहमति से तलाक के लिए धारा 13 (B) अधिनियम में नहीं था। अतः पति को तलाक की डिक्री नहीं मिल सकती थी।

पति ने हाई कोर्ट में अपील किया। हाई कोर्ट ने धर्मेन्द्र कुमार वर्सेस उषा कुमार (AIR 1977 SC 2218) मामले में प्रतिपादित सिद्धांत को माना। उसने यह भी कहा कि प्रस्तुत मामलें में यह नहीं कहा जा सकता है कि पति अपनी गलती का लाभ ले रहा था।

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार पति या पत्नी के दाम्पत्य अधिकार कोई ऐसे अधिकार नहीं हैं जो उन्हें कानून द्वारा मिला हो बल्कि ये अधिकार तो स्वयं विवाह संस्था में ही अन्तर्निहित होतें हैं। कोर्ट ने विधि आयोग के 71वें रिपोर्ट को भी उद्धृत किया जिसमे कहा गया है कि “… … … विवाह का सार है जीवन में सहभागी होना, जीवन के हर खुशी, हर दुख, हर अनुभव में सहभागी होना और बच्चों को प्रेम और स्नेह देना। साथ रहना इसी सहभागिता का प्रतीक है जबकि अलग रहना इसका नकारात्मक संकेत है। लगातार एक लंबे समय तक अलग रहना विवाह के इस सार तत्व के नष्ट होने का संकेत हो सकता है जिससे यह अर्थ निकलता है कि विवाह असमाधेय रूप से भंग हो चुका है। … … …” कोर्ट ने यह भी माना कि किसी अनुबंध भंग करने से भिन्न वैवाहिक अधिकारों को भंग करने पर अधिक से अधिक जो शास्ति दिया जा सकता है वह है आर्थिक शास्ति। दूसरे पक्ष को भी दोषी पक्ष से आर्थिक अनुतोष ही दिलाया जा सकता है। वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापित की डिक्री को संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। इसका एक सामाजिक उद्देश्य है कि विवाह के पक्ष अपने मतभेदों को शान्ति से मिलकर सुलझा ले ताकि साथ रह सकें। इस दृष्टि से धार 9 को संविधान के अनुच्छेद 14 या 21 के विरूद्ध नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत मामलें में पति का दोष केवल यह नहीं था कि उसने धारा 9 के तहत पारित डिक्री का अनुपालन नहीं किया बल्कि उसने अपनी पत्नी से दुर्व्यवहार किया तथा अंत में उसे घर से निकाल दिया। हाई कोर्ट द्वारा उदृत मामले में पति द्वारा ऐसा कोई दुर्व्यवहार एवं घर से निकाला जाना साबित नहीं हुआ था इसलिए दोनों मामलों के तथ्य समान नहीं है। अतः सुप्रीम कोर्ट ने उपर्युक्त आधार पर पति के अपील को खारिज कर दिया।

अभ्यास प्रश्न

प्रश्न- जब अमृत का विवाह नीतु से जब हुआ तब वह दिल्ली में और नीतु मथुरा में कार्यरत थे। दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। विवाह के समय दोनों ने विवाह के बाद वैवाहिक घर के बारे में विचार नहीं किया था। विवाह के बाद अमृत ने नीतु को नौकरी से त्यागपत्र देकर उसके साथ दिल्ली में रहने के लिए कहा। नीतु नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी लेकिन वह सप्ताहांत में उसके साथ रहने के लिए तैयार थी। विवाह के दो वर्ष बाद अमृत ने दामपत्य अधिकारों के पुनर्स्थापित के लिए याचिका दायर किया। विभिन्न न्यायिक व्याख्याओं और सुझावों के अनुसार निर्णय कीजिए। (2012)

प्रश्न- अमित और सुकन्या दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे और हैदराबाद में एक ही ऑफिस में कार्यरत थे। दोनों ने विवाह का निर्णय लिया। विवाह के तुरंत बाद अमित को एक अन्य फर्म में नौकरी का बेहतर अवसर मिला और ज्वाइन कर वह गुड़गाँव में शिफ्ट हो गया जबकि सुकन्या ने हैदराबाद में पुरानी नौकरी को ही जारी रखा। अमित ने गुड़गाँव में एक फ्लैट भी खरीद लिया। तीन सालों तक दोनों छुट्टियों में मिलते रहे लेकिन अमित इस व्यवस्था से खुश नहीं था। उसने सुकन्या को अल्टिमेटम दिया कि वह या तो नौकरी छोड़ दे या फिर गुड़गाँव में कोई दूसरी वैकल्पिक नौकरी ज्वाइन कर उसके साथ ही गुड़गाँव में रहे। सुकन्या ने इसे अस्वीकार कर दिया। अमित ने सुकन्या के विरूद्ध केस किया कि वह उसके साथ दाम्पत्य साहचर्य के लिए गुड़गाँव में रहे। न्यायिक निर्णयों के प्रकाश ने निर्णय कीजिए। 2008

प्रश्न- दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापन के अवधारणा की व्याख्या कीजिए। अगर पत्नी के लाभपूर्ण रोजगार का स्थान पति के निवास स्थान से अलग हो तो क्या यह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत पति के समाज से उसके प्रत्यागमन के लिए युक्तियुक्त कारण है? 2011

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