बेटियों की सुरक्षा: कुछ प्रासांगिक बिन्दु

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कल मैं अपने एक दोस्त के घर पर थी। सामने पति-पत्नी बैठे थे। हम सब बातें कर रहे थे। उनकी 8 साल की बेटी पास में ही बैठी टीवी देख रही थी। बातचीत करते-करते मेरी दोस्त के पति ने उसके कंधे पर हाथ रखा। उन्होंने ऐसा बिना किसी विशेष मंशा से किया था। किसी तरह की अश्लीलता भी नहीं थी। लेकिन पास बैठी उनकी बेटी अचानक बोल पड़ी “पापा आपने मम्मी को बैड टच क्यों किया?” ये “बैड टच-गुड टच” उसे स्कूल में बच्चों को यौन हिंसा से बचाने के लिए गलत तरीकों से स्पर्श के समझाने के मुहिम के क्रम में दिया गया था। मेरे एक अन्य परिचित की 17 वर्षीया बेटी अकेले ट्यूशन जाने से डरती है। उसे लगता है कि लड़के/पुरुष बड़े “गंदे” होते हैं।

मीडिया हो या सोशल मीडिया हर कुछ दिनों में कोई-न-कोई रेप केस छा जाता है। कोई भी न्यूज़ चैनल देखिए। इसके “समाचार शतक” “फटाफट न्यूज़” जैसे कार्यक्रम में 2-4 रेप की खबरें होती ही है। “महिला सुरक्षा” राजनीतिक रूप से भी एक बहुत लाभप्रद टॉपिक बन गया है।

लेकिन ये चर्चा इस तरह की होती है जिससे महिला को सुरक्षा मिले-न-मिले एक ऐसा माहौल बनाता जा रहा है जिसे हम “स्त्री वर्सेस पुरुष” कह सकते हैं। कभी-कभी लगता है सभी पुरुष “हवस के भूखे भेड़िए” हैं जहाँ स्त्री देखा उसे दबोच लेंगे। देश जैसे रेपिस्टों का ही बन गया है। सारे पुरुष ही ऐसे हैं। इस आपाधापी में हम कुछ चीजें नजरअंदाज कर जाते हैं:

  1. जिस दौरान मीडिया में चार पुरुषों द्वारा ऐसे दुष्कृत्य की घटनाएँ छाई होती हैं, उसी दौरान 4000 पुरुष ऐसे भी होते हैं जो महिलाओं की सहायता या सम्मान करते हैं। लेकिन हमारा ध्यान उधर नहीं जाता। हमारे आसपास रहने वाले पुरुषों में, भले ही वे हमारे परिवार के सदस्य हो, सहपाठी हो, सहकर्मी हो, या कोई सहयात्री ही क्यों न हों, ज्यादातर तो सामान्य ही होते हैं। अगर कुछ कुत्सित मनोवृति के पुरुष हैं तो उसे ऐसे ही क्यों न माना जाना चाहिए जैसे किसी अन्य अपराधी को। इसके लिए सारे पुरुषों को रेपिस्ट की नजर से देखना और अपनी कोमल मानसिकता की बच्चियों में ऐसा भय भरना क्या आवश्यक है? हम भले ही उन्हें यह “ज्ञान” उनकी सुरक्षा के लिए दे लेकिन इससे बच्चों के जिज्ञासु मन में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर अधिक जानने की जिज्ञासा हो जाती है।
  2. यद्यपि ऐसा कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है। लेकिन व्यावहारिक अनुभव बताते हैं इस तरह के माहौल के कुछ साइड इफैक्ट ये भी होते हैं:
  3. अपने निकट संबंधियों पर यौन अपराध के आरोप बढ़े हैं। इनमें से कुछ सच होते हैं तो कुछ झूठ भी। एक उदाहरण में एक लड़की ने सम्पति में मनचाही हिस्सेदारी नहीं मिलने पर पहले अपने पिता और बाद में अपने ही नाना पर ऐसा आरोप लगाया था। यह संपत्ति लेकर वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ अलग रहना चाहती थी। कुत्सित मनोवृति केवल पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं है। आप लोगों में से शायद बहुतों का यह अनुभव हो, कि इस तरह के केस में फंसा देने की धमकी विवाद की स्थिति में दवाब बनाने के लिए भी कई बार प्रयोग किया जाता है। 
  4. कुछ नकारात्मक लोगों को ऐसे नकारात्मक माहौल से प्रोत्साहन मिलता है। “निर्भया बना देने” जैसी धमकियों की बातें भी मीडिया में आ चुकी हैं।
  5. इस तरह के किसी बड़े केस के बाद सरकार और कोर्ट पर इतना दवाब हो जाता है कि इस दौरान यौन अपराधों के आरोप में पड़े लोगों को जमानत भी नहीं मिलती। इसमें कई निर्दोष भी होते हैं। वर्षों जेल में रहने के बाद वे कोर्ट से निर्दोष सिद्ध कर दिए जाते हैं। अगर किसी निर्दोष पर भी इस तरह का आरोप लगता है तो उसकी नौकरी चली जाती है, उसके परिवार को कई तरह के अपमान और समस्याएँ उठानी पड़ती है, जिसमे परिवार की महिलाएँ भी होती हैं। लेकिन “बेटियों की सुरक्षा” की भावना में हम यह भूल जाते हैं कि हम “बेटों पर अत्याचार” तो नहीं कर रहें हैं।
  6. मीडिया और सोशल मीडिया इस तरह के केस में आरोप लगाने वाली लड़कियों को “नायिका” की तरह पेश करता है। कुछ साल पहले दिल्ली में एक रेड लाइट पर अश्लील धमकी का आरोप लगाने वाली लड़की को मीडिया ने रातोरात “नायिका” बना दिया। आरोपी की नौकरी गई, सामाजिक बहिष्कार हुआ। लेकिन अगले ही दिन पता चला कि सारा मामले रेड लाइट पर गाड़ी रोकने से संबंधित कहासुनी का था, जिसे अधिक गंभीर बनाने के लिए उसमें “यौन आक्रमण” का तत्व डाल दिया गया था। लेकिन उस लड़के का तो जो नुकसान होना था, वह हो चुका था। मीडिया में किसी अन्य अपराध या विवाद को अधिक महत्व नहीं मिलता है लेकिन जैसे ही इसमें “यौन हिंसा” का तत्व आ जाता है, मीडिया और आम लोग तुरंत “एक्शन” में आ जाते हैं। इसलिए कई बार जानबूझ कर भी इसका उपयोग किया जाता  है।
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मेरी बहन है। मुझे उसकी सुरक्षा की चिंता है। लेकिन मेरा भाई भी है, मुझे उसके सुरक्षा की भी चिंता है। मुझे दुख मेरे निर्दोष बहन और भाई दोनों के लिए ही होगा। इसलिए घटनास्थल से सकड़ों किलो मीटर दूर बैठ कर मीडिया रिपोर्ट के आधार पर भावुक होकर मैं किसी के भी बहन या भाई के साथ अत्याचार कैसे करूँ? क्यों न अपने बच्चों को अच्छे और बुरे लोगों में फर्क करना बताऊँ ताकि वे बुरे लोगों को पहचान सकें भले ही वह किसी धर्म, किसी जाति, किसी स्थान या किसी रंग का क्यों न हो। किसी अपराधी को “अपराधी” की नजर से देखना सिखाऊँ स्त्री, पुरुष, हिंदु, मुस्लिम, अगड़े, पिछड़े के रूप में नहीं।       

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