शून्य और शून्यकरणीय विवाह (Void and voidable marriage)

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शून्य एवं प्रभावहीन विवाह (void and null marriage)

विवाह शून्य एवं प्रभावहीन कब होता है अर्थात् विवाह शून्य होने के आधार क्या हैं- धारा 11 के अनुसार, निम्नलिखित स्थिति में विवाह शून्य एवं प्रभावहीन होगा-

1. विवाह 1976 के अधिनियम हिन्दू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का अधिनियम 68), (लागू होने की तिथि 27.05.1976) लागू होने के बाद हुआ हो, और

2. इसमें धारा 5 के उपखण्ड (i) (iv) या (v) उल्लंघन हुआ हो, अर्थात्-

(1) विवाह के समय किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित हो, [धारा 5 (i)]

(2) विवाह के पक्षकार प्रतिषिद्ध संबंधों के अन्तर्गत आते हो, [धारा 5 (iv) किन्तु यदि उस समुदाय में, जिससे पक्षकार संबंधित हैं, ऐसा संबंध मान्य है, तो यह नियम लागू नहीं होगा।

(3) विवाह के पक्षकार यदि एक-दूसरे के सपिण्ड हों, [धारा 5 (v), किन्तु यदि उस समुदाय में, जिससे पक्षकार संबंधित हैं, ऐसा संबंध मान्य है, तो यह नियम लागू नहीं होगा।

शून्य एवं प्रभावहीन विवाह का परिणाम

ऐसे विवाह में यद्यपि विवाह की रस्में पूरी की गई होती है लेकिन कानून की दृष्टि में यह विवाह शून्य होता है अर्थात् विवाह नहीं होता है। ऐसी स्थिति में इस विवाह से संबंधित पक्षकारों को कोई कानूनी अधिकार या दायित्व नहीं मिलता है जैसा कि एक वैध विवाह में मिलता है।

यह विवाह आरंभ से ही शून्य होता है। यदि न्यायालय किसी विवाह को शून्य घोषित करता भी है तो यह केवल इस तथ्य की घोषणा होती है क्योंकि विवाह तो पहले से ही शून्य होता है। अर्थात विवाह शून्य इसके शून्यीकरण की न्यायालय की डिक्री के दिन से नहीं नहीं होता बल्कि आरंभ से ही होता है।

हिन्दू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 के तहत विवाह शून्य कराने की याचिका दोनों पक्षकारों में से कोई भी प्रेषित कर सकता है, लेकिन कोई अन्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है।

शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage)

विवाह कब शून्यकरणीय होता है अर्थात् विवाह के शून्यीकरण के आधार क्या हैं?

धारा 11 के विपरीत धारा 12 सभी हिन्दू विवाहों पर लागू होता है चाहे यह 1976 से पहले हुआ हो या बाद में। पर, 1976 के संशोधन ने शून्यीकरण के लिए आधार को और विस्तृत कर दिया गया है। वर्तमान में निम्ललिखित आधारों पर विवाह शून्यकरणीय है अर्थात् शून्य घोषित किया जा सकता है-

1. नपुंसकता के कारण विवाह को पूर्णता नहीं दी जा सकी हो-

हिन्दू धारणा के अनुसार विवाह का मूल उद्देश्य संतान प्राप्ति है जिसके लिए पुंसत्व आवश्यक है। अतः हिन्दू विधि एक नपुंसक, चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, को विवाह की अनुमति नहीं देता है और इस तरह का विवाह शून्य माना जाता है। न्यायिक निर्णयों में नपुंसकता का अर्थ संभोग की अक्षमता से लिया गया हो चाहे यह अक्षमता शारीरिक हो या मानसिक। इसी तरह संतान उत्पति में अक्षमता को नपुंसकता नहीं माना गया है अपितु इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्युत्तरदाता संभोग करने में असमर्थ हो।

2. प्रत्युत्तरदाता (responent) अस्वस्थ मस्तिष्क का हो-

धारा 5 (ii) के अन्तर्गत विधिमान्य विवाह की दूसरी शर्त यह है कि विवाह के समय किसी पक्षकार में कोई ऐसी चित्तविकृति न हो जिससे वह विधिमान्य सम्मति देने के लिए असमर्थ हो, या विधिमान्य सम्मति देने पर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से ग्रस्त हो कि विवाह और सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य हो, अथवा उसे उन्मत्तता (मूल अधिनियम में “या मिरगी” शब्द था जिसे 1999 मे संशोधन द्वारा हटा दिया गया है), का दौरा बार-बार पड़ता हो। इस धारा के अनुसार इस तरह की असमान्यता या बीमारी विवाह के समय होना चाहिए, विवाह के पहले या बाद में इस तरह की असमान्यता, बीमारी या अक्षमता शून्यीकरण का आधार नहीं हो सकता।

3. वैवाहिक संस्कार के संबंध में बल-प्रयोग अथवा प्रत्युत्तरदाता से संबंधित किसी तात्त्विक तथ्य अथवा परिस्थितियों के संबंध में कपट का प्रयोग कर याची (petitioner) की सहमति ली गयी हो, (हिन्दू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया है)

विवाह के शून्यीकरण घोषित करने के लिए तीसरी शर्त यह है कि विवाह के किसी पक्षकार की सम्मति बल प्रयोग अथवा कपट द्वारा प्राप्त की गई हो। कपटपूर्वक सम्मति प्राप्त करने को तात्पर्य यह है कि प्रत्युत्तरदाता के संबंध में गलत बातें कह कर अथवा आवश्यक बाते छुपा कर अथवा याची को अन्य किसी प्रकार से धोखा देकर सम्मति प्राप्त की गई हो।

लेकिन बल या कपट निम्नलिखित दो स्थितियों में मान्य नहीं होगा अर्थात शून्यीकरण का आधार नहीं बनेगा-

क. यथास्थिति बल प्रयोग समाप्त हो जाने के बाद अथवा कपट का पता चल जाने के एक वर्ष बाद याचिका प्रस्तुत की गई हो, अथवा

ख. यथास्थिति बल प्रयोग समाप्त हो जाने के बाद अथवा कपट का पता चल जाने के बाद याची पति अथवा पत्नी के रूप में अपनी पूर्ण सहमति से साथ रहे हो । 

बल का तात्पर्य भौतिक शक्ति का प्रयोग ही नहीं है बल्कि शक्ति प्रयोग करने की धमकी देना भी है। लेकिन केवल दबाव, या दृढ़ सलाह या भावुक मनुहार बल प्रयोग नहीं है।

वैवाहिक विधि में कपट की परिभाषा में हर तरह का कपट या झूठ नहीं आता है। उदाहरण के लिए वर या वधू के गुणों को सामान्यतः बढ़ाचढ़ा कर कहना कपट की श्रेणी में नहीं आएगा। पर वैवाहिक प्रास्थिति, किसी रोग, विवाह के अनुष्ठान, पक्षकार की अनन्यता (identity) के संबंध में जानबूझ कर झूठ बोलना इत्यादिए जिससे विवाह के मूल पर प्रभाव पड़ता हो, को कपट में शामिल माना जा सकता है। न्यायालय ने उसी झूठ को कपट की परिभाषा में माना है जो तात्विक तथ्य या परिस्थिति के संबंध में हो और विवाह के लिए सम्मति कपट के आधार पर लिया गया हो। अर्थात् ऐसा झूठ बोलना या सत्य छिपाना कि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो याची विवाह के लिए सम्मति नहीं देता कपट की परिभाषा में आता है।

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अगर कपट विवाह की तिथि को समाप्त हो जाए तो वह कपट नहीं कहलाएगा।

4. विवाह के समय प्रत्युत्तरदाता याची के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से सम्भोग से गर्भवती थी, और यह तथ्य याची को ज्ञात नहीं था-

इसके लिए निम्नलिखित शर्तें पूरा होना आवश्यक है-

  • प्रत्यार्थी विवाह के समय गर्भवती हो,
  • याची को प्रत्यर्थी के गर्भवती होने का ज्ञान न हो,
  • प्रत्यर्थी याची से भिन्न व्यक्ति से गर्भवती हो,
  • अगर ऐसा विवाह अधिनियम लागू होने से पहले हुआ हो तो लागू होने के एक वर्ष के अंदर और अगर विवाह अधिनियम लागू होने के बाद हुआ हो तो विवाह की तिथि से एक वर्ष के भीतर याचिका प्रेषित किया गया हो।

इस तथ्य का ज्ञान होने के बाद याची ने प्रत्यर्थी का क्षमा नहीं किया हो। एक बार क्षमा कर उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया हो तो वह याचिका दायर नहीं कर सकता है,

प्रत्यर्थी के गर्भवती होने का याची को ज्ञान होने के बाद वैवाहिक संभोग नहीं हुआ हो क्योंकि ऐसा होने पर यह धारणा होगी कि याची ने प्रत्यर्थी को क्षमा कर दिया हैं।

 शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह में अंतर
 शून्य विवाह (void marriage)शून्यकरणीय विवाह (voidable marriage)  
1  यह आरंभ से ही शून्य और प्रभावहीन होता है और इसका कोई कानूनी अस्तित्व नहीं होता है।यह तब तक प्रभावी रहता है जब तक कि न्यायालय इसे शून्य घोषित नहीं कर देता। यह न्यायालय के डिक्री के बाद ही शून्य माना जाता है।
2  शून्य विवाह को विवाह नहीं माना जाता है और इस विवाह से विवाह के पक्षकार को पति-पत्नी की संस्थिति प्राप्त नहीं होती हैं।शून्यकरणीय विवाह को हिन्दू विधि में “विवाह” माना जाता है। इसलिए विवाह के पक्षकारों को पति-पत्नी की संस्थिति प्राप्त हो जाती है।
3  चूकि यह विवाह कानून की दृष्टि से विवाह होता ही नहीं है इसलिए ऐसे विवाह से विवाह के पक्षकारों के किसी अधिकारए कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वों का जन्म नहीं होता है और न ही संतान को धर्मज संतान की संज्ञा मिलती है। लेकिन धारा 16 के कारण अब हिन्दू विधि में ऐसी संतान वैध है।यह तब तक विधिमान्य विवाह होता है जब तक कि न्यायालय इसे शून्य घोषित नहीं कर देता है इसलिए इससे पक्षकारों के वैध अधिकार, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वों का जन्म  होता है और इससे उत्पन्न संतान धर्मज मानी जाती हैं।
4  शून्य विवाह के पक्षकार बिना डिक्री पारित हुए दूसरा विवाह कर सकते हैं।शून्यकरणीय विवाह के पक्षकार तलाक की डिक्री पारित हुए बिना दूसरा विवाह नहीं कर सकते हैं।
5  इसमें पत्नी पति से भारतीय दण्ड प्रक्रिया की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती क्योंकि वह विधिमान्य पत्नी नहीं होती हैइसमें पत्नी दण्ड प्रक्रिया की धारा 125 के अन्तर्गत भरण-पोषण के लिए वाद ला सकती है।
6-  प्रारंभ से ही शून्य होने के कारण इसमें विवाह के पक्षकारों की प्रस्थिति नहीं बदल सकती है।शून्यकरणीय विवाह सभी उद्देश्यों के लिए वैध और बाध्यकारी तब तक रहता है जब तक कि न्यायालय धारा 12 में दिये गये आधारों पर उसे अकृत वह शून्य न कर दे। इसलिए इसमें विवाह के पक्षकारों की प्रस्थिति बदल जाती ह

हिन्दू विवाह अधिनियम में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसके तहत प्रथम पत्नी पति द्वारा दूसरा विवाह रोकने के लिए व्यादेश के लिए न्यायालय में वाद ला सके लेकिन विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act), 1963 के तहत पति को दूसरे विवाह से रोकने के लिए शाश्वत व्यादेश (permanent injunction) के लिए वाद दायर कर सकती है। इसी तरह हिन्दू अधिनियम में उस पत्नी के लिए कोई अनुतोष नहीं है जिससे पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो लेकिन विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act), 1963 के अन्तर्गत वह दूसरे विवाह को शून्य घोषित कराने के लिए वाद ला सकती है। 

वर्तमान हिन्दू विधि के अन्तर्गत शून्य विवाह की संतान धर्मज होगी चाहे शून्य घोषित करने की डिक्री पारित की गई हो या नहीं। ऐसे संतान का अपने माता.पिता की सम्पत्ति के विषय मे उत्तराधिकार प्राप्त होता है लेकिन पिता के नातेदार या संयुक्त परिवार की संपत्ति पर अधिकार नहीं होगा अर्थात् ऐसा पुत्र पिता के परिवार का सहदायिक नहीं हो सकता। लेकिन धारा 16 उन विवाहों से उत्पन्न संतानों को धर्मज बनाता है जो धारा 11 के अन्तर्गत शून्य हैं। लेकिन विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act), 1963 के अन्तर्गत शून्य घोषित विवाह और अनुष्ठान सम्पन्न नहीं होने या वास्तव में विवाह नहीं होने के आधार पर शून्य घोषित विवाह की संतान धर्मज नहीं होगी। 

Case Laws

बाबुई पानमातो कुँवर वर्सेस रामज्ञा सिंह (AIR 1968 Pat 190)

तथ्य

मई, 1959 में बाबुई (वादी) की शादी रामज्ञा सिंह (प्रतिवादी या प्रत्युत्तरदाता) से तब हो गई जब वह 18 वर्ष से कुछ ही अधिक उम्र की थी।

विवाह से पहले उसने पिता को माता से यह कहते सुना था कि उसने जिस लड़के को बाबुई से विवाह के लिए चुना है वह आर्थिक रूप से समृद्ध है और उसकी आयु 25-30 वर्ष है। अपने पिता से अपने होने वाले पति का यह विवरण सुन कर बाबुई ने इस पर विश्वास कर लिया और विवाह के लिए कोई आपत्ति नहीं की।

इस तहत विवाह के लिए उसने मौन सहमति दे दी। विवाह के समय परम्परानुसार घूँघट डाले होने के कारण वह दुल्हे को देख नहीं सकी। विवाह के अगली सुबह पति अपने घर चला गया। विदाई की रस्म (रोक्सदी) नहीं हुई थी इसलिए वादी पत्नी उसके साथ नहीं गई।

15 अप्रैल, 1960 को बाबुई को उसके पिता उसके ससुराल लेकर गए। जहाँ रात में जब उसने पहली बार पति को देखा। पति को देखकर वह चौंक गई क्योंकि जैसा उसके पिता ने विवाह से पहले उसकी माँ से पति का वर्णन किया था और जिसे सच मान कर उसने विवाह के लिए मौन सहमति दे दी थी, वैसा कुछ नहीं था। उसका पति लगभग 60 साल का एक वृ़द्ध था जिसकी आर्थिक स्थिति भी साधारण ही थीं।

यह देखकर वह रोने लगी और दो दिनों तक खाना भी नहीं खाया। उसके द्वारा पिता के घर जाने की ज़िद करने के करण पति ने उसकी पीटाई भी की। बाद में वह छुप कर वहाँ से भाग कर अपने चाचा के यहाँ चली गई। लेकिन पति यहाँ से उसे फिर ले आया और उसे एक कमरे में बन्द कर दिया।

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वह एक बार फिर यहाँ से भागने में कामयाब रही। इस बार उसने ननिहाल में शरण लिया। मार्च, 1961 में उसने तलाक के लिए याचिका दायर किया। इसमें उसने तलाक इस आधार पर माँगा कि विवाह के लिए उसकी सहमति छल से ली गई थी।

जिला न्यायालय का निर्णय

जिला न्यायालय ने दो आधारों पर यह याचिका खारिज कर दी:

पहला, जिस कथन को सच मान कर वादी ने विवाह के लिए सहमति दी थी वह कथन प्रत्यक्ष रूप से उससे नहीं किया गया था बल्कि उसके पिता ने उसकी माँ को बताया था जिसे उसने सुन लिया था। और;

दूसरा, धारा 12 (1) (c) के अनुसार छल विवाह के समय होना चाहिए। विवाह के लिए होने वाले वार्तालाप के दौरान किए जाने वाले कपटपूर्ण कथन इसमें शामिल नहीं होता है।

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय

वादी ने इस फैसले के विरूद्ध हाई कोर्ट में अपील किया। हाई कोर्ट में मुख्य विचारणीय मुद्दा यह था कि ऐसा कोई कपटपूर्ण कथन जो वादी से प्रत्यक्ष रूप से नहीं करके किसी तीसरे पक्ष द्वारा अर्थात् उसके पिता द्वारा उसकी माँ से किया गया हो, क्या वादी के साथ छल होना माना जाएगा?

हाई कोर्ट ने यह मत व्यक्त किया कि इस मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा दोनों मुद्दे पर अपनाया गया दृष्टिकोण गलत है।

विवाह के समय वादी व्यस्क थी इसलिए, विवाह के लिए उससे प्रत्यक्ष रूप से सहमति लेनी चाहिए थी जो कि नहीं किया गया।

वादी के पिता ने ऐसे तथ्य का कथन उसकी माता से किया जिसके विषय में वह जानते थे कि यह तथ्य सत्य नहीं है। अतः ऐसा कथन उन्होंने जानबूझ कर इस आशय से किया कि वादी इसे सत्य मान ले और विवाह के लिए अपनी सहमति दे दे।

यह कथन भले ही वादी से प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया गया था पर इसका आशय उसे सुना कर उसकी सहमति लेने का ही था। पिता ने इस बात को साशय छुपाया कि उसके होने वाले पति की उम्र 25-30 साल नहीं अपितु 60 साल है। पिता का यह कर्तव्य था कि उसे सही तथ्य की सूचना देते और तब उसकी सहमति लेते।

अगर वह वादी की माँ से सत्य कथन करते और उसे सुनकर वादी सहमति देती तो वह उसकी वैध सहमति मानी जाती लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ। वादी ने पिता के इस कपटपूर्ण कथन को सत्य मानकर ही विवाह की सहमति दी थी कि दुल्हे की उम्र 25-30 वर्ष है और आर्थिक रूप से वह समृद्ध है।

विवाह के समय भी वह इसी विश्वास में रही। विवाह के समय घूंघट के कारण वह अपने होने वाले पति को देख नहीं सकी इसलिए यहाँ भी वह अपनी सहमति वापस नहीं ले सकी। जब 15 अप्रैल, 1960 को पहली बार वास्तविक तथ्य का उसे पता चला तो उसने विरोध किया जिसका अर्थ है कि उसने वास्तविक तथ्य को जानने के बाद कभी भी सहमति नहीं दी और उसका विरोध किया।

वादी की सहमति तभी तक रही जब तक कि वह पिता द्वारा किए गए कपटपूर्ण कथन को सत्य मानती रही और सत्य जानने का उसे अवसर नहीं मिला । इसलिए वादी की सहमति छल से ली गई थी।

कोर्ट ने यह भी कहा 12 (1) (c) के तहत छल के लिए यह आवश्यक नहीं है कि यह छल प्रत्युत्तरदाता द्वारा ही किया गया हो। इस धारा का मूल आशय यह है कि विवाह के लिए सहमति उस छल के प्रभाववश दिया गया हो।

दूसरे मुद्दे के संबंध में कोर्ट का तर्क था कि धारा 12 (1) के खण्ड (a) (d) “विवाह के समय” शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन (c) में नहीं किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि इस धारा के तहत छल का विवाह के समय ही होना अनिवार्य नहीं है। इस मामले में यह महत्वपूर्ण है कि विवाह के समय भी सहमति पहले किए गए कपटपूर्ण कथन के प्रभाववश ही दिया गया था।

अतः पटना हाई कोर्ट ने उपर्युक्त आधारों पर वादी पत्नी की अपील स्वीकार करते हुए धारा 12 (1) (c) के तहत इस विवाह को शून्य घोषित कर दिया।

पी वर्सेस आर (AIR 1982 Bom 400)

तथ्य

वादी (पति) और प्रत्युत्तरदाता (पत्नी) की शादी 20 जून, 1976 को हुई। शादी के समय पति की उम्र 36 वर्ष और पत्नी की 27 वर्ष थी। पत्नी ने यह कहते हुए शारीरिक संबंध बनाने से इंकार कर दिया कि वह एक वर्ष तक ऐसा संबंध नहीं बनाएगी।

इस इंकार से पति बहुत तनावग्रस्त रहने लगा। घर के बड़े-बुर्जुगों की सलाह पर पत्नी के व्यवहार में अंतर लाने के लिए उसे तीर्थयात्रा पर ले जाया गया। बाद में (27.08.2014 को) उसे मेडिकल जाँच के लिए डॉक्टर के पास भी ले जाया गया।

डॉक्टर के रिपोर्ट के अनुसार पत्नी गर्भाश्य के “सेकंड डिग्री प्रोलेप्स” से पीड़ित थी। इस बीमारी का एक कारण यह भी हो सकता था कि उसका शादी से पहले किसी से शारीरिक संबंध रहे हों। इन परिस्थितियों में पति को यह विश्वास हो गया कि पत्नी इस तथ्य को पति से छुपाना चाहती है।

30 नवम्बर, 1976 को पति ने धारा 12 (1) (c) तहत विवाह को शून्य घोषित करने के लिए न्यायालय में याचिका दायर किया। पति का तर्क था कि पत्नी और उसके माता-पिता को यह बात पहले से पता था और उन्होंने जानबूझ कर यह तथ्य कि उसमें शारीरिक कमी या अक्षमता है जिसके कारण वह सहवास के लिए सक्षम नहीं है, छुपाया और इस तथ्य से अनजान होने के कारण पति (वादी) ने शादी के लिए सहमति दी।

अतः शादी के लिए सहमति छल से प्राप्त किया गया था। साथ ही पत्नी शादी के समय नपुंसक थी। वह सहवास के लिए शारीरिक अथवा मानसिक कारणों से सक्षम नहीं थी। जिस कारण शादी को सहवास द्वारा पूर्णता नहीं दिया जा सका।

जिला न्यायालय का निर्णय

ट्रायल कोर्ट के मत में डॉक्टरों के अनुसार इस बीमारी के कारण निश्चित रूप से न तो यह कहा जा सकता है कि प्रत्युत्तरदाता का शादी से पहले शारीरिक संबंध बना था और न ही यह कि वह सहवास के लिए शारीरिक रूप से असक्षम थी। अतः कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। पति ने अब बंबई हाई कोर्ट में अपील किया ।

हाई कोर्ट के समक्ष दो मुख्य विचारणीय मुद्दे थे:

1. क्या इस मामले में छल हुआ है?

2. क्या यह कहा जा सकता है कि विवाह के समय पत्नी नपुंसक थी?

उच्च न्यायालय का निर्णय

हाई कोर्ट ने इन दोनों मुद्दों का सकारात्मक जबाव दिया।

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कोर्ट के अनुसार 1976 के संशोधन के बाद हिन्दू विवाह अधिनियम में छल की परिभाषा अधिक व्यापक हुआ है। पहले जहाँ केवल विवाह के रस्मों और प्रत्युत्तरदाता की पहचान के विषय में तथ्य छुपाने या गलत तथ्य बताने को छल माना गया था वहीं संशोधन के बाद विवाह के पहले या विवाह के समय प्रत्युत्तरदाता की स्थिति के संबंध में कोई तथ्य छुपाना भी छल की परिभाषा में शामिल हो गया है।

प्रस्तुत मामले में प्रत्युत्तरदाता को अपनी बीमारी के विषय में ज्ञान था। लेकिन उसने इसे वादी के समक्ष प्रकट नहीं किया ।

कोर्ट ने यह भी माना कि सभी तथ्यो एवं परिस्थितियों को महत्वपूर्ण (material) नहीं माना जा सकता। साथ ही ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची बनाना भी कठिन है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि अगर तथ्य की प्रकृति ऐसी हो जिससे वैवाहिक जीवन और उसके आनंद में हस्तक्षेप होता हो तो उसे महत्वपूर्ण तथ्य कहा जा सकता है।

इस संबंध में यह अप्रासांगिक है कि ऐसी कोई बीमारी साध्य है या असाध्य अर्थात यह ठीक हो सकती है या नहीं। इस दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि प्रत्युत्तरदाता द्वारा अपनी शारीरिक स्थिति या बीमारी के विषय में वादी को नहीं बताना महत्वपूर्ण तथ्य का छुपाना था और यह वादी से छल था। अतः यह विवाह शून्यकरणीय है।

दूसरे प्रश्न के संबंध में न्यायालय का मानना था कि नपुंसकता का साधारण अर्थ है यौन क्रिया के लिए अक्षमता। यह अप्रासांगिक है कि यह असक्षता शारीरिक या मानसिक कारणों से है या पूर्ण या आंशिक या स्थायी या अस्थायी है। इसके उपचार योग्य होने या न होने से भी कोई अंतर नहीं पड़ता है। आंशिक एवं अपूर्ण संबंध को भी संबंध नहीं माना जा सकता है और इसे भी नपुंसकता की परिभाषा में रखा जाना चाहिए।

प्रस्तुत मामले में प्रत्युत्तरदाता सामान्य रूप से यौन क्रिया के लिए असक्षम थी। इसलिए उसे नपुंसक माना जाना चाहिए और इस दृष्टि से भी विवाह शून्यकरणीय था।

उपर्युक्त कारणों से वादी की अपील न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और विवाह को शून्य घोषित कर दिया।

आशा कुरैशी वर्सेस अफाक कुरैशी (AIR 2002 MP 263)

वादी और प्रत्युत्तरदाता का विवाह 23.01.1990 को हुआ। विवाह के बाद दोनों में तनाव उत्पन्न होने लगे। विवाह के बाद लगभग एक वर्ष तक पति-पत्नी के रूप में साथ रहने के बाद दोनों अलग रहने लगे। पति ने न्यायालय में विवाह को शून्य घोषित करने के लिए वाद दायर किया। उसका तर्क था कि उससे विवाह से पहले प्रत्युत्तरदाता विधवा थी जबकि उसने उससे अविवाहित समझकर विवाह किया था। प्रत्युत्तरदाता ने अपने पहले से ही विवाहित होने और विधवा होने की बात वादी से छुपाया। वादी ने इस तथ्य से अनभिज्ञ होने के कारण उसे अविवाहित समझकर विवाह की सहमति दी थी। अतः वादी की सहमति छल से ली गई थी। दूसरी तरफ प्रत्युत्तरदाता (पत्नी) का कहना था कि दोनों विवाह से पहले एक लंबे समय से एक-दूसरे को जानते थे और वादी इस बात से भली-भाँति अवगत था कि वह पहले से विवाहित थी और विधवा थी। इसीलिए किसी महत्वपूर्ण तथ्य को प्रत्युत्तरदाता ने न तो छिपाया था और न ही छल से उसकी सहमति ली थी।

ट्रायल कोर्ट ने पति के पक्ष को सही माना। पत्नी ने हाई कोर्ट में अपील की।

हाई कोर्ट के अनुसार प्रति-परीक्षा (cross-examination) में पति ने माना था कि वे दोनों विवाह से पहले लगभग 5-6 वर्षों से एक.दूसरे को जानते थे। उसने यह भी बताया कि उसने प्रत्युत्तरदाता से पूछा था कि इतनी अधिक उम्र होने के बावजूद उसने विवाह क्यों नहीं किया तो इसके जबाव में प्रत्युत्तरदाता ने बताया था कि उसके घर में यह उत्तरदायित्व निभाने वाला कोई व्यक्ति नहीं था इसलिए उसका पहले विवाह नहीं हो पाया। प्रति-परीक्षा मे पति ने यह भी इंकार किया कि वह प्रत्युत्तरदाता के पूर्व विवाह और उसका विधवा होना जानता था। इसके विपरीत पत्नी ने अपनी प्रति-परीक्षा में बताया कि लगभग आठ साल पहले जब उसकी मित्रता वादी से हुई थी तब उसने उसे बताया था कि वह विवाहित थी और बचपन में ही विधवा हो गई थी। लेकिन इससे पहले के एक स्टेटमेंट में उसने बताया था कि वादी को उसके विधवा होने की बात उसके एक पड़ोसी ने बताया था। यहाँ तक कि वाद के लिखित प्रत्युत्तर में भी उसने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया था कि उसने स्वयं वादी को यह जानकारी दी थी। लिखित प्रत्युत्तर में अस्पष्ट रूप से केवल यह बताया गया था कि वादी उसके विधवा होने के तथ्य को जानता था। उसे यह किसने  और कब बताया, इसका कोई उल्लेख नहीं था। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि कोई गलत तथ्य बताकर सहमति लेना ही छल हो। वादी ने अगर किसी गलत धारणा के आधार पर सहमति दी हो और प्रत्युत्तरदाता ने साशय ऐसी धारणा बनाया हो ताकि उसकी सहमति ली जा सके तो यह छल है।

उपयुर्क्त आधार पर न्यायालय ने माना कि प्रत्युत्तरदाता का पूर्व विवाह और उसका विधवा होना महत्त्वपूर्ण तथ्य (material fact) था, जो कि प्रत्युत्तरदाता के ज्ञान में था लेकिन उसने यह तथ्य वादी पर प्रकट नहीं किया था जो कि छल था क्योंकि यह तथ्य छुपाकर उसने वादी की सहमति ली थी। उसे अपने पूर्व विवाह और विधवा होने का तथ्य वादी को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए था जो कि उसने नहीं किया। इसलिए उच्च न्यायालय ने प्रत्युत्तरदाता की अपील खारिज कर विवाह को शून्य घोषित कर दिया।

अभ्यास प्रश्न

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत किन परिस्थितियों में विवाह आरंभ से ही शून्य होगा? 2009

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत किसी विवाह को “शून्य” मानने के लिए आधारों को बताइए। 2008

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत किसी विवाह को शून्यकरणीय मानने के लिए आधारों को बताइए। 2007

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत कौन-से विवाह शून्यकरणीय होते है? विवाह को अकृत (annul) करने के लिए कैसे और कहाँ याचिका दायर किया जा सकता है? राज. न्यायिक सेवा, 1994

प्रश्न- बीना, जो कि एक विधवा है, का उसके ऑफिस में काम करने वाले सुदेश कुमार से प्रेम-संबंध था। 5 वर्ष के प्रेम-प्रसंग के बाद दोनों ने विवाह करने का निर्णय किया। विवाह के सात माह के बाद सुदेश ने इस विवाह को अकृत (annul) घोषित कराने के लिए न्यायालय में याचिका इस आधार पर दायर किया कि बीना ने अपने विधवा होने का तथ्य छुपाया और सुदेश ने उसे कुँवारी समझ कर उससे विवाह के लिए सहमति दी थी इसलिए यह सहमति छल से लिया गया था। न्यायिक निर्णयों के प्रकाश में निर्णित कीजिए। 2008 (संकेत- आशा कुरैशी विरूद्ध अफाक कुरैशी)

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत “प्रत्युत्तरदाता से संबंधित तात्विक तथ्य” की अवधारणा की व्याख्या कीजिए। 2009

प्रश्न- नीता, जो कि दिल्ली के एक प्रसिद्ध कॉलेज में लेक्चरर थी, का विवाह करण से हुआ जिसका पारिवारिक व्यवसाय लुधियाना में मोटर पार्ट्स बनाने का था। करण का परिवार बहुत धनी था और एक भव्य घर में रहता था। करण स्वयं दो लक्जरी कार रखता था। नीता अपने को ठगा हुआ महसूस करती थी क्योंकि वह स्वयं पीएचडी कर रही थी जबकि करण बीकॉम पास था लेकिन उसने विवाह के समय अपने को एमबीए बताया था। क्या नीता के लिए कोई कानूनी उपचार है?

प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: विवाह को अकृत घोषित करने के लिए छल का आधार।

प्रश्न- 1989 में मुकेश का विवाह पद्मिनी से हुआ। दोनों को एक पुत्र राज और एक पुत्री प्रीति हुई। परिवार नियोजन के लिए मुकेश ने ऑपरेशन करा लिया। दुर्भाग्य से 1995 में एक दुघर्टना में पद्मिनी, राज और प्रीति की मृत्यु हो गई। वर्ष 2004 में मुकेश ने विनिता से विवाह किया लेकिन उसने विनिता को परिवार नियोजन वाले ऑपरेशन के विषय में नहीं बताया था। विवाह के बाद विनिता को पता चला कि मुकेश के इस ऑपरेशन के कारण वह बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। विनिता ने आपसे संपर्क किया यह जानने के लिए कि क्या वह हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत अपने विवाह को अकृत करवा सकती है? संकेत- मुकेश जानता था कि वह पिता नहीं बन सकता है लेकिन उसने यह तात्विक तथ्य छुपाकर विनिता से विवाह किया था। 2004

प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत शून्य, शून्यकरणीय और अमान्य (invalid) विवाह में अंतर बताइए। 2010

प्रश्न- अमित का विवाह हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार सुनीता से हुआ। दोनों का आपस में परिचय दोनों के एक सामान्य मित्र के द्वारा हुआ था। अमित विवाह से पहले कई बार सुनीता के घर गया था जहाँ उसका सम्मान के साथ स्वागत हुआ था। एक वर्ष के बाद उसे पता चला कि अपने पूर्व पुरूष मित्र से अनुचित संबंध से उसे एक बच्चा था। यह बच्चा एक पारिवारिक मित्र को गोद दे दिया गया था। अमित ने अपने को छला गया महसूस किया। अमित के पास क्या कानूनी उपचार है? 2013 

प्रश्न- हिन्दू विधि के अन्तर्गत शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न संतान की विधिक स्थिति का वर्णन कीजिए। 2008

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