हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955)
1.1 सामान्य परिचय
प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम के द्वारा हिन्दू विवाह मे कौन से प्रमुख परिवर्तन लाया गया?
इस अधिनियम द्वारा सर्वप्रथम हिन्दू विवाह विधि को संहिताबद्ध किया गया, साथ ही इसे वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने और अधिक स्पष्ट, एकरूप एवं विनियमित करने के लिए इसमें कई महत्वपूर्ण परिवर्तन भी कि, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
1. हिन्दू मान्यताओं के अनुसार विवाह एक संस्कार है। इसके धार्मिक एवं संस्कारात्मक रूप के कारण पति-पत्नी की स्वैच्छिक सहमति का महत्व नहीं था जो कि एक वैध संविदा के लिए आवश्यक होता है। इस अधिनियम और इसमें हुए संशोधनों के बाद भी यद्यपि हिन्दू विवाह मूल रूप से एक संस्कार ही बना हुआ है लेकिन इसमे कुछ ऐसे तत्वों का समावेश किया गया है जिससे इसका स्वरूप कुछ हद तक संविदा का हो गया है। अधिनियम की धारा 5, 10 और 12 इस संबंध में विशेष महत्वपूर्ण हैं। विशेषरूप से धारा 5 (ii), जो कहता है कि विवाह के समय कोई पक्ष पागल या जड़ नहीं होना चाहिए और धारा 5 (iii) जो कि वर और वधू की आयु क्रमशः 21 और 18 वर्ष का होने का उपबंध करता है, इसे संविदा का रूप देते हैं क्योंकि ये दोनों संविदा के लिए एक आवश्यक तत्व हैं। विवाह-विच्छेद की परिकल्पना भी इसे संविदा का रूप देता है। 1976 के संशोधन के बाद विवाह का संविदात्मक रूप और दृढ़ हो गया है क्योंकि अब विवाह दोनों पक्षों के परस्पर सहमति से समाप्त (तलाक) भी किया जा सकता है। साथ ही विवाह-विच्छेद और न्यायिक पृथक्करण के आधारों को एक समान कर दिया गया है जिससे विवाह का संस्कारात्मक रूप का बहुत क्षरण हुआ है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब हिन्दू विवाह संस्कार नहीं रह कर संविदा बन गया है क्योंकि एक पूर्ण संविदा के लिए आवश्यक सारे तत्व अभी भी इसमें नहीं हैं। एक वैध संविदा दोनों पक्षकारों के स्वतंत्र सहमति से होता है उनके लिए कोई पूर्वशर्त नहीं होती लेकिन यह अधिनियम स्वयं कई शर्तों का प्रावधान कर देता है और पक्षकार इन शर्तों के अधीन ही समझौता कर सकते हैं। विवाह के लिए कोई निश्चित रूप या विधान नहीं बनाया गया है अपितु प्रथागत कृत्यों और रीति-रिवाजों को मान्यता दिया गया है। वस्तुतः अपने वर्तमान स्वरूप में हिन्दू विवाह पूर्णरूपेण न तो संस्कार है और न हीं संविदा बल्कि इसमें दोनों के तत्व शामिल हैं।
2. परम्परागत रूप से हिन्दू विवाह एक अटूट बंधन माना जाता था। विवाह के रस्मों में वर-वधू ध्रवतारा, चाँद और सूरज जैसी स्थायी चीजों की शपथ लेते थे। विवाह-विच्छेद जैसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा सर्वप्रथम हिन्दूओं के लिए विवाह-विच्छेद का प्रावधान किया गया। 1976 के संशोधन द्वारा विवाह-विच्छेद के लिए आधार और विस्तृत कर दिया गया। वर्तमान में अभित्याग, दुष्चरित्र, व्यभिचार, क्रूरता इत्यादि व्यवहारों तथा असाध्य कोढ़ आदि बीमारियों को तलाक का आधार बना कर तथा एक वर्ष बाद आपसी सहमति से तलाक प्राप्त करने का अधिकार देकर तलाक को सरल और सुविधाजनक बनाने का प्रयास किया गया है। संशोधन द्वारा विवाह-विच्छेद के लिए कोई आवेदन दाखिल न करने संबंधी उपबंध को संशोधन कर यह अवधि तीन वर्ष से घटा कर एक वर्ष कर दी गई है।
3. विवाह-विच्छेद के बाद दोनों पक्षों को पुनर्विवाह करने की अनुमति है। अब विवाह-विच्छेद की डिक्री और पुनर्विवाह के बीच एक वर्ष के अनिवार्य अन्तराल संबंधी उपबंध भी समाप्त कर दिया गया है।
4. इस अधिनियम द्वारा एक वैध विवाह के लिए सर्वप्रथम कुछ निश्चित और स्पष्ट शर्तों का उल्लेख किया गया है। इन शर्तों का उल्लंघन धारा 18 के अनुसार दण्डनीय है।
5. विवाह का पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) इस अधिनियम द्वारा लाया गया एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। अभी तक विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता था इसलिए इसके लिए किसी कानूनी या सरकारी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं थी लेकिन इस अधिनियम की धारा 8 द्वारा पंजीकरण का उपबंध किया गया है।
6. हिन्दूओं के लिए बहुविवाह निषिद्ध कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार यदि कोई हिन्दू पुरूष या स्त्री एक पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करता है तो कानून की दृष्टि में यह विवाह शून्य है। भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार यह दण्डनीय अपराध भी है।
7. प्रतिषिद्ध या वर्जित संबंधों (prohibited relationship) को परिभाषित करते हुए इनमें वैवाहिक संबंध स्थापित करना वर्जित कर दिया गया है। सपिण्ड संबंध में विवाह निषेध का क्षेत्र माता के संबंध में तीन पीढ़ियों (generation) तक और पिता के संबंध में पाँच पीढ़ियों तक सीमित कर दिया गया है। एकोदर संबंध को मान्यता दी गई है। साथ ही सपिण्ड और प्रतिषिद्ध सम्बन्धों में सगे, सौतेले, अवैध या गोद लिए गए संबंधों को भी शामिल किया गया है।
8. शून्य और शून्यीकरणीय वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न सन्तानों को वैध बना कर उन्हें कानूनी संरक्षण दिया गया है अर्थात इस अधिनियम के द्वारा संतानों की वैधता के संबंध में उपबंधों को स्पष्ट किया गया है।
9. शून्य और शून्यकरणीय विवाह के संबंध में नपुंसकता और कष्ट के आधारों को विस्तृत किया गया है।
10. पीड़ित पक्ष के भरण-पोषण और बच्चों के अभिरक्षा के संबंध में महत्वपूर्ण व्यवस्था किए गए है।
11. अन्तर्जातीय विवाह को वैध घोषित किया गया है।
12. विवाह में संरक्षक का कार्य करने वाले व्यक्तियों के संबंध में रिश्तेदारों का दायरा बहुत विस्तृत कर दिया गया है।
13. इस अधिनियम में वैवाहिक मामलों को शीघ्रता से निपटाने के संबंध में भी प्रावधान किए गए है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 का लागू होना (Applicability of Hindu Marriage Act, 1955)
यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर समस्त देश के हिन्दुओं पर लागू होता था लेकिन 5 अगस्त 2019 से वहाँ भी लागू है।
यह अधिनियम समस्त हिन्दूओं पर लागू होता है। इसमे वे हिन्दू भी शामिल है जो भारत के राज्यक्षेत्र में रहते हैं। साथ ही वे हिन्दू भी शामिल हैं जो भारत के अधिवासी (domicile) हों लेकिन तत्काल में देश से बाहर रह रहे हो अर्थात् इसका अधिकारक्षेत्र क्षेत्रातीत (extra-territorial application) है। धारा 2 से स्पष्ट है कि उन हिन्दुओं पर लागू होता है जो दूसरे देश के निवासी हो लेकिन तत्काल भारत में रह रहे हो क्योंकि इसके लागू होने के लिए भारत का नागरिक होना अनिवार्य नहीं है। इसके पीछे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य यह सिद्धांत है कि व्यक्तिक मामलों में वह व्यक्तिक विधि लागू होना चाहिए जहाँ उसका अधिवास है।
अगर लड़का और लड़की दोनों हिन्दू हों तो वे हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत विवाह कर सकते है। यहाँ “हिन्दू” में हिन्दू धर्म के विभिन्न उप-सम्प्रदाय जैसे वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज के अतिरिक्त बौद्ध, जैन और सिक्ख भी शामिल माने जाते हैं। सिक्खों के पास विकल्प है कि वे चाहें तो आनंद विवाह अधिनियम के तहत भी विवाह कर सकते हैं।
सामान्यत अनुसूचित जनजाति इस अधिनियम के तहत विवाह नहीं कर सकते पर अगर केन्द्र सरकार सरकारी राजपत्र में अधिसूचित (नोटिफाई) कर किसी अनुसूचित जनजाति को विवाह के लिए हिन्दू मानने की उद्घोषणा कर दे तो यह अधिनियम उन पर भी लागू हो सकता है।
अगर किसी बच्चे (धर्मज या अधर्मज) के माता-पिता मे से किसी हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख मे से किसी धर्म के अनुयायी हो और उसका पाालन-पोषण इन्हीं धर्म के अनुसार या अनुसूचित जनजाति के अनुसार हुआ हो तो वह हिन्दू माना जाएगा अर्थात् माता-पिता का धर्म अलग-अलग होने पर इस अधिनियम के लागू होने के लिए बच्चे का वही धर्म माना जाएगा जिसके अनुसार या जिस परिवेश में उसका पालन-पोषण हुआ है। अनुसूचित जनजाति का विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुरूप नहीं बल्कि उनके अपने संथाल कस्टम एण्ड यूसेज एक्ट के द्वारा होता है। इस आशय का निर्णय सुप्रिम कोर्ट ने 2001 में डॉ सुरजमनि स्टैल्ली कुजूर बनाम दुर्गा चरण हंसदा मामले में दिया था।
अगर अन्य धर्म, जैसे एक हिन्दू जो क्रिश्चियन बन गया हो, इस अधिनियम के तहत विवाह करे तो वह विवाह वैध नहीं होगा (एम. विजयाकुमारी बनाम देवबालान, 2003- केरल हाई कोर्ट)।
“हिन्दू” शब्द को यद्यपि हिन्दू विवाह अधिनियम या अन्य किसी अधिनियम या विधानमण्डल की किसी अन्य अधिनियम के अधीन परिभाषित नहीं किया गया है। पर सामान्यतः न्यायालय का दृष्टिकोण व्यवहारिक रहा है कि जिसे सामान्यतः हिन्दू के रूप में माना जाता है उसे ही इस अधिनियम के तहत हिन्दू माना जाएगा। भगवान कुंवर बनाम जे सी बोस एवं अन्य (ILR 31 SR 11) में प्रिवी कौंसिल ने वर्ष 1903 में यही दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा था कि “हम यहाँ सामान्य परिभाषा अधिकथित करने का प्रयास नहीं करेंगे कि हिन्दू शब्द का क्या तात्पर्य है। हिन्दू धर्म असाधारण रूप से उदार एवं लचीला है। … … … … … … … … … … … गैर हिन्दुओं से हिन्दुओं का पृथक्करण इतनी कठिनाई का मामला नहीं है। लोग अंतर को भलीभाँति जानतें है और आसानी से बता सकते हैं कि कौन हिन्दू है और कौन नहीं।”
धर्मतः हिन्दू (जिनमें सिक्ख, बौद्ध और जैन भी शामिल हैं) और अहिन्दू का विवाह धर्मशास्त्रों में वर्जित नहीं किया गया है केवल उसकी विधिक स्थिति में अंतर माना गया है। वर्तमान में इस तरह का विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत मान्य नहीं है क्योंकि यह अधिनियम केवल दो हिन्दूओं के बीच विवाह के लिए ही नियम बनाता है। हिन्दू और अहिन्दू का विवाह अगर विदेश में हुआ हो और वहाँ का कानून इसे मान्यता देता हो अथवा भारत में विदेशी विवाह अधिनियम, 1969 के अन्तर्गत अथवा विशेष विवाह अधिनियम के तहत सम्पन्न हुआ हो, तभी मान्य होगा।
महत्वपूर्ण मुकदमे (Case Laws)
सुरजमनि कुजुर बनाम दुर्गा हंसदा (3SCC 13; AIR 2001 SC 938)
इस मामले में विवाह के दोनों पक्ष यद्यपि हिन्दू धर्म को मानते थे लेकिन वे जनजाति थे। इसलिए धारा 2 (2) के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम के क्षेत्राधिकार से बाहर थे और अपने जनजातीय रीति-रिवाजों से प्रशासित होते थे। इस विवाह के अस्तित्व में रहते हुए ही पति ने दूसरा विवाह कर लिया। पहली पत्नी ने यह कहते हुए वाद दायर किया कि उनका विवाह हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। इसलिए पति का दूसरा विवाह शून्य है और वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अनुसार दण्डनीय है। उसका यह भी कहना था कि उसके जनजातीय समुदाय में एकपत्नी प्रथा मान्य थी।
ट्रायल कोर्ट ने पत्नी की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दिया कि पत्नी ने उस जनजाति में एकविवाह के किसी निश्चित प्रथा का न तो उल्लेख किया था और न ही इसके लिए कोई सबूत दिया था। वाद और सबूत के अभाव में पुस्तकों का संदर्भ मान्य नहीं होता है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के तहत किसी अधिसूचना (नोटिफिकेशन) का प्रमाण नहीं था इसलिए उन पर हिन्दू विवाह अधिनियम लागू नहीं होता था और दूसरा विवाह शून्य नहीं था और न ही पति भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के तहत द्विविवाह का दोषी था।
हाई कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा। पत्नी ने सुप्रिम कोर्ट में अपील किया। सुप्रिम कोर्ट के समक्ष विचारण करने के लिए दो मुद्दे थे-
1. हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार “हिन्दू” कौन है?
2. अगर हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के तहत अधिसूचित नहीं हुआ हो तो क्या अनुसूचित जनजाति का कोई सदस्य, जो कि अन्य मामले में हिन्दू धर्म को मानते है, इस अधिनियम के तहत हिन्दू माने जाएगें।
सुप्रिम कोर्ट ने भगवान कोचर वर्सेस जे सी बोस [ILR (1902) Cal 11] मामलें में दिए गए प्रिवी कौंसिल के तर्क को माना कि “हिन्दू” शब्द को कठोर रूप से परिभाषित करने की जरूरत नहीं है “… … .. … … … … … … लोग हिन्दू और अ-हिन्दू में अंतर को जानते हैं और सरलता से जान सकते हैं कि कौन हिन्दू है और कौन अ-हिन्दू।”
अधिनियम की धारा 2 “हिन्दू” शब्द को परिभाषित नहीं करता है, केवल यह बताता है कि यह किन लोगों पर लागू होता है। धारा 2 (1) (c) के अनुसार भारत में रहने वाले वे लोग जो मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी या यहूदी नहीं हैं, पर वह अधिनियम लागू होगा। प्रस्तुत मामलें में दोनों ही पक्षों ने स्वीकार किया था कि वे जनजाति समुदाय से आते थे। दोनों अलग-अलग जनजातीय समुदायों से थे। संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 के भाग XII में दोनों समुदायों को जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया था लेकिन धारा 2 (2) के तहत इसे अधिसूचित नहीं किया गया था। इसलिए इन पर संथाल रीति-रिवाज लागू होंगे।
रीति-रिवाज जैसे कि धारा 3 (a) में परिभाषित है, कानून की तरह तभी माने जाएँगे जबकि के प्राचीन, स्पष्ट और विवेकयुक्त हो। सामान्य परम्परा होने के कारण इनका कठोरता से अर्थान्वयन किया जाना आवश्यक है। वादी पत्नी ने ऐसा कोई सबूत नहीं दिया। उसने अपने वाद में इस आशय का सामान्य कथन किया था कि उसके जनजाति समुदाय में भी एकविवाह की प्रथा मान्य थी।
रीति-रिवाज केवल दीवानी विधि (civil law) से संबंधित होते हैं ये किसी अपराध को कायम नहीं कर सकते हैं। कोई कार्य अपराध तभी बनता है जब कोई व्यक्ति तत्समय प्रर्वतमान कानूनों का उल्लंघन करें और कानून में उसके लिए जुर्माने या सजा का प्रावधान हो।
प्रस्तुत मामलें में पत्नी ने किसी ऐसे विशेष रिवाज को संदर्भित नहीं किया जो कानून की तरह मान्य हो और द्विविवाह को निषिद्धए शून्य और दण्डनीय बनाता हो।
चूँकि पति ने अपने समुदाय में प्रचलित कानून के अनुसार कोई अपराध नहीं किया है इसलिए उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के तहत भी अपराधी नहीं ठहराया जा सकता है।
सुप्रिम कोर्ट ने उपर्युक्त तर्को के आधार पर निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखा और अपील खारिज कर दिया।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न- अगर एक हिन्दू पुरूष एक ईसाई महिला से विवाह करता है तो हिन्दू विधि के तहत उसकी वैधता बताइए? (DU, LLB- 2011)
संकेत- वैध नहीं होगा। हिन्दू महिला या पुरूष अन्य धर्म के अनुयायियों से विशेष विवाह अधिनियम, 1954 या विदेशी विवाह अधिनियम, 1968 के तहत वैध विवाह कर सकते हैं, हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत नहीं।