असम्यक प्रभाव का संविदा पर विधिक प्रभाव (केस लॉ के साथ)(सेक्शन 10, 13, 14, 16, 19A)- part 14

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असम्यक प्रभाव क्या है? (What is undue influence)

असम्यक प्रभाव का सामान्य आशय होता है अनुचित प्रभाव। अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के अनुचित या असम्यक प्रभाव के कारण संविदा के लिए अपनी सहमति देता है, तो यह सेक्शन 14 के अनुसार स्वतंत्र सहमति नहीं मानी जाती है।

ऐसे सहमति देने वाले के पास यह विकल्प होता है कि वह इसके आधार पर कोर्ट से उस संविदा को शून्य घोषित करवाने के लिए माँग करे। अर्थात असम्यक प्रभाव से की गई संविदा शून्यकरणीय होता है।    

असम्यक प्रभाव का सिद्धांत कॉमन लॉ के उन सिद्धांतों में से है जिनका विकास साम्या न्यायालय (court of equity) द्वारा हुआ है। संविदा करते समय हो सकता है कि कोई पक्षकार यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से किसी भय के प्रभाव में नहीं हो लेकिन वह मानसिक रूप से इस तरह प्रभाव में हो जिससे स्वतंत्र रूप से कुछ निर्णय लेने में असमर्थ हो। तो इसे स्थिति को असम्यक प्रभाव कहते है।

इस स्थिति में दिया गया सहमति स्वतंत्र नहीं माना जाता है। चूँकि यह एक मानसिक स्थिति है जिसे कुछ बाह्य तथ्यों के आधार पर ही साबित किया जा सकता है।  

इंडियन कांट्रैक्ट एक्ट का सेक्शन 16 (Undue influence) की परिभाषा बताता है। सेक्शन 16 के अनुसार असम्यक प्रभाव के लिए ये तथ्य साबित करना आवश्यक है: 1. पक्षकारों के संबंध इस प्रकार के थे कि एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था;

2. ऐसा व्यक्ति अपने अधिशासन की स्थिति का प्रयोग दूसरे के ऊपर अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए करता है; जो पक्षकार इस आधार पर संविदा को शून्य करवाना चाहता है, उसे इन दोनों स्थितियों को साबित करना होगा।

लेकिन क्या “एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था” यह तथ्य का प्रश्न है और इसे जानने के लिए इन तथ्यों का होना जरूरी है:  

1. वह पक्षकार दूसरे के ऊपर वास्तविक और दृश्यमान प्राधिकार (real or apparent authority) रखता हो; या

2. उसका दूसरे व्यक्ति के साथ वैशवासिक संबंध (fiduciary relationship) हो; या

3. दूसरे व्यक्ति की मानसिक क्षमता आयु, बीमारी, या शारीरिक या मानसिक कष्ट के कारणों (mental or bodily distress) से अस्थायी या स्थायी रूप से प्रभावित होती है।  

“वैश्वासिक संबंध” (fiduciary relationship) से क्या तात्पर्य है?

सेक्शन 16 के अनुसार असम्यक प्रभाव के लिए दो तथ्य साबित करना जरूरी होता है: एक, दोनों पक्षों के बीच ऐसा संबंध था कि एक पक्षकर ऐसी स्थिति में था जिसके कारण वह दूसरे पक्ष पर प्रभाव डालने की स्थिति था अर्थात वह अधिशासन करने की स्थिति में था। और दूसरा, उसने इस स्थिति के कारण अनुचित लाभ उठाया। अधिशासन की स्थिति एक मानसिक तत्व है जिसे जिन तथ्यों से जाना जा सकता है वह है – वास्तविक और दृश्यामन प्राधिकार और वैशवासिक संबंध।

वैशवासिक संबंध का आशय ऐसे संबंध से होता है, जिसका आधार विश्वास और न्याय हो। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति पर विश्वास करता है तो यह उम्मीद करता है कि वह उसे धोखा नहीं देगा।

लेकिन इस विश्वास का अनुचित लाभ उठा कर अगर कोई दूसरा व्यक्ति उसके साथ विश्वासघात करता है तो ऐसे में प्राप्त सहमति असम्यक प्रभाव से दूषित मानी जाती है।

वकील-मुवक्किल संबंध, न्यासी-हितभोगी संबंध, आध्यात्मिक गुरु-शिष्य, डॉक्टर-मरीज, मातापिता-बालक, पति-पत्नी, मालिक-नौकर, ऋणदाता-ऋणी, मालिक-अभिकर्ता, मकान मालिक-किराएदार इत्यादि ऐसे संबंध है जिसे न्यायालयों ने विभिन्न वादों में वैश्वासिक संबंध माना है।

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सेक्शन 16 में आए शब्द “मानसिक या शारीरिक कष्ट में व्यक्ति” (person mental or bodily distress) का क्या आशय है

अगर कोई व्यक्ति अधिक आयु के कारण बीमारी या मानसिक या शारीरिक कष्ट द्वारा स्थायी या अस्थायी रूप से मानसिक रूप से पूर्ण रूप से सक्षम नहीं हो। अर्थात उसके सोचने-समझने की क्षमता कम हो गई हो उससे कोई ऐसा व्यक्ति संविदा करता है, जो उसे अधिशासित करने की स्थिति में हो। तो ऐसी स्थिति में इस बात की संभावना हो सकती है कि उसके इस स्थिति का अनुचित लाभ लेने के लिए प्रयोग किया गया हो यानि असम्यक प्रभाववश संविदा किया हो।

अगर इस तरह की संविदा उस असक्षम व्यक्ति के हितों के प्रतिकूल हो, तो असम्यक प्रभाव को मान लिया जाता है।

असम्यक सौदे में असम्यक प्रभाव की उपधारणा क्या है?

अगर कोई पक्ष असम्यक प्रभाव का अभिवाक करता है अर्थात इस आधार पर किसी संविदा को शून्य घोषित करवाना चाहता है तो उसे यह साबित करना होता है कि इस संविदा में असम्यक प्रभाव था और उसने इस प्रभाव के कारण अपनी सहमति दी थी।

लेकिन इस सामान्य सिद्धांत का एक अपवाद है जहाँ न्यायालय यह उपधारणा करता है कि इस संविदा में असम्यक प्रभाव था और दूसरे पक्ष को यह साबित करना होता है कि ऐसा नहीं था और इसके लिए दी गई सहमति स्वतंत्र थी। अपवाद यह है कि संविदा के पक्षकार असमान आधार वाले हो और उनके बीच हुआ सौदा अनुचित हो।  

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर कोई एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में हो, और दोनों के बीच हुआ संविदा प्रत्यक्षतः अनुचित प्रतीत होता हो अर्थात यह दूसरे पक्षकार के हितों के प्रतिकूल हो, तब ऐसे स्थिति में न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि सहमति असम्यक प्रभाव द्वारा लिया गया है।

अनुचित सौदा का सामान्य आशय ऐसे सौदे से होता है जिसे सामान्य विवेकयुक्त व्यक्ति स्वेच्छा से नहीं करेगा क्योंकि यह उसके हितों के प्रतिकूल है। परदानशीन स्त्री, अर्थात जो सामाजिक संसर्ग से अलग हो और बाहरी संसार से उसका कोई संबंध नहीं हो, के मामले में अगर संविदा अनुचित हो, तब भी कोर्ट ऐसी उपधारणा कर सकता है।

उदाहरण के लिए, एक अनपढ़ वृद्ध महिला अपने पति से अलग रहती थी। उसने अपनी लगभग सारी संपत्ति अपने वकील को भेंट कर दिया। दोनों के बीच और कोई संबंध नहीं था।

कोर्ट ने यह पाया कि यहाँ वैश्वसिक संबंध था, और आदाता दाता की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। यह व्यवहार भी अनुचित था। अतः यहाँ कोर्ट ने असम्यक असर की उपधारणा की (टाकरी देवी बनाम रामा डोगरा– AIR 1984 HP 11)।

अगर किसी संविदा के लिए सहमति असम्यक प्रभाव के कारण दी गई हो, तो ऐसी संविदा का क्या प्रभाव होगा?

सेक्शन 19A के अनुसार अगर कोई संविदा इस तरह से सहमति प्राप्त कर के बनाई गई हो, उस पक्षकार के पास विकल्प है कि वह न्यायालय में इसे शून्य घोषित करवाने के लिए वाद ला सकता है। न्यायालय संविदा को या इसके किसी भाग को निरस्त कर सकता है।

अगर इससे कोई लाभ पहले ही दूसरे पक्षकार द्वारा लिया जा चुका है तो वह उसे वापस करने के लिए भी आदेश दे सकता है। न्यायालय चाहे तो कोई न्यायोचित क्षतिपूर्ति या प्रतिकार के लिए भी आदेश कर सकता है। [इंडियन कांट्रैक्ट एक्ट सेक्शन 19A-          

(Power to set aside contract induced by undue influence—when consent to an agreement is caused by undue influence, the agreement is a contract voidable at the option of the party whose consent was so caused.  

Any such contract may be set aside either absolutely or, if the party who was entitled to avoid it has received any benefit thereunder, upon such terms and conditions as to the Court may seem just.

Illustrations

(a) A’s son has forged B’s name to a promissory note. B under threat of prosecuting A’s son, obtains a bond from A for the amount of the forged note. If B sues on this bond, the Court may set the bond aside. 

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(b) A, a money-lender, advances Rs. 100 to B, an agriculturist, and, by undue influence, induces B to execute a bond for Rs. 200 with interest at 6 per cent. per month. The Court may set the bond aside, ordering B to repay the Rs. 100 with such interest as may seem just)] 

केस लॉ 

रघुनाथ प्रसाद वर्सेस सरजू प्रसाद (RaghunathPrasad V. Sarju Prasad) [(1923) 51 I.A. 101]

पिता और पुत्र एक बड़े संयुक्त पारिवारिक संपत्ति के बराबर के हिस्सेदार थे। इस संपत्ति के लिए दोनों पिता-पुत्र के बीच विवाद और झगड़ा हो गया। इस कारण पिता ने अपने पुत्र के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया शुरू किया।

पुत्र ने इस केस में अपनी प्रतिरक्षा के लिए अपनी संपत्ति अपने पिता के पास गिरवी (mortgage) रख दिया और उससे 24% के चक्रवृद्धि ब्याज पर लगभग 10,000/- रु लिया (27 मई, 1910)। ग्यारह साल के दौरान ब्याज की यह समस्त राशि मूल धन के लगभग ग्यारह गुना (1,12,885 रु) हो गया।  

पुत्र ने इस संविदा को इस आधार पर रद्द करने और अब तक भुगतान की गई राशि की वसूली (recovery) की कोर्ट से माँग की कि संविदा करते समय वह मानसिक तनाव और अवसाद की स्थिति में था जिसका उसके पिता ने अनुचित लाभ (undue advantage) उठाते हुए असामान्य ब्याज दर लिया।

वह अपने पिता के अनुचित प्रभाव (undue influence) के कारण इस पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश हुआ था। अतः सेक्शन 16 के तहत undue influence के कारण उसकी ओर से संविदा के लिए सहमति स्वतंत्र नहीं थी। और इसलिए यह संविदा शून्यकरणीय थी।

सबोर्डिनेट कोर्ट, आरा ने मोर्गेज सूट में तो डिक्री (25 सितंबर, 1917) दे दिया लेकिन केवल साधारण ब्याज दर को मान्यता दिया। लेकिन पटना हाई कोर्ट (9 नवंबर, 1920) ने चक्रवृद्धि दर को मान्यता दिया। 18 दिसंबर, 1923 को पाँच जजों के बेंच (जस्टिस Shaw, Carson, J Edge, A Ali, L Jenkins) ने इस मामले का अंतिम निर्णय दिया। बेंच विभिन्न न्यायिक निर्णयों का विवेचन करने के बाद अपना प्रेक्षण दिया।  

यह केस स्वतंत्र सहमति (free consent) पर एक लैंडमार्क जजमेंट है। कोर्ट ने अनुसार undue influence के कारण किया गया कोई भी संविदा स्वतंत्र सहमति से किया गया नहीं कहा जा सकता है और वह पक्ष जिसकी सहमति इस तरह से ली गई है, वह उसे शून्य घोषित करवा सकता है। अर्थात इस तरह से की गई

संविदा शून्यकरणीय (voidable) होता है। undue influence को साबित करने के लिए वादी को यह साबित करना पड़ेगा कि प्रतिवादी के साथ उसका संबंध इस प्रकृति का था कि प्रतिवादी उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित (dominate) करने की स्थिति में इन कारणों से था:

  1. वास्तविक या प्रत्यक्ष अधिकारिता (Real or apparent authority)
  2. प्रभुत्व वाला संबंध (Fiduciary relationship)
  3. प्रतिवादी की मानसिक क्षमता उम्र, शारीरिक या मानसिक बीमारी या अवसाद के कारण प्रभावित हुआ हो।

उपर्युक्त आधारों पर कोर्ट ने प्रस्तुत संविदा को undue influence से दूषित और इसलिए शून्यकरणीय माना। हाई कोर्ट ने इस संविदा को बदल कर 25 सितंबर, 1917 (अर्थात ट्रायल कोर्ट द्वारा डिक्री और बॉन्ड की तारीख) तक 2% चक्रवृद्धि ब्याज और इस तिथि के बाद से भुगतान की तिथि तक 6% प्रतिवर्ष के साधारण ब्याज की दर से देय बना दिया था। इस निर्णय को इस कोर्ट ने भी बनाए रखा।  

सुभाष चन्द्र दास मुशिब वर्सेस गंगा प्रसाद मुशिब (SubhasChandra Das Mushib V. Ganga Prasad Das Mushib) [AIR 1967 SC 878]

वादी के पिता (प्रसन्न कुमार) का दो गाँव (पारबतीपुर और लोकेपुर) मे दो जमीन थी। दोनों में से आठ-आठ आना (50%) हिस्सा उनका था। जमीन का सही मूल्य यद्यपि ज्ञात नहीं था लेकिन इतना निश्चित था कि लोकेपुर की जमीन का मूल्य ज्यादा था।

90 वर्ष की आयु में प्रसन्न कुमार की मृत्यु हो गई। उसके कानूनी उत्तराधिकारी उसके दो पुत्र (गंगा प्रसाद और बलराम) और एक पुत्री (स्वर्णलता, जो बाल विधवा थी और पिता के घर ही रहती थी) थे। सुभाष चन्द्र उसका एकलौता पौत्र (बलराम का पुत्र) था (गंगा प्रसाद को कोई पुत्र नहीं था) ।        

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संभवतः गंगा प्रसाद अपने नौकरी के सिलसिले में परिवार से अलग रहा करता था लेकिन बलराम ने कहीं नौकरी नहीं की थी और हमेशा अपने पिता और परिवार के पास ही रहा था।

वादी के अनुसार जब वह बांकुरा में था तब वह अपने पिता की संपत्ति का देखभाल करता था। लोकेपुर की जमीन एक नीलामी ने प्रसन्न कुमार ने अपनी पुत्री के नाम से (बेनामी संपत्ति के रूप में) खरीदा था। gift deed के अनुसार यह गिफ्ट दाता (प्रसन्न कुमार) ने प्रकृतिक प्रेम और स्नेह (natural love and affection) के कारण यह गिफ्ट (अपने पौत्र सुभाष चन्द्र को) दिया था।  

इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं था कि क्या वादी उस समय बांकुरा में था जब यह gift deed बना और रजिस्टर्ड हुआ। लेकिन वादी ने इससे इंकार किया था। इस gift deed के बनने के लगभग चार साल बाद प्रसन्न कुमार की मृत्यु हुई और इसके लगभग चार साल बाद (यानि gift deed बनाने के लगभग आठ साल बाद) 1952 में वादी ने वाद दायर किया।

इस बात का साक्ष्य था कि 1944  से 1948 के बीच लोकेपुर गाँव में कई जमीन के लिए सेटलेमेंट हुआ जिसमे बलराम ने अपने अपने पुत्र सुभाष चन्द्र की तरफ से उसके स्वाभाविक अभिभावक (natural guardian) के रूप में कार्य किया था।

इन सभी निरूपण पत्र (nirupan patra) में प्रसन्न कुमार ने गवाह के रूप में हस्ताक्षर किया था। ये सभी सेटलमेंट प्रसन्न कुमार के अन्य हिस्सेदारों के साथ संयुक्त रूप से किए गए थे।

1947 में म्यूनिसिपल कमिशनर ने प्रसन्न कुमार के विरुद्ध बकाया टैक्स की वसूली के लिए केस किया था। इसमे दिए गए लिखित जवाब में उसने कहा था कि उसे संपत्ति में कोई रुचि नहीं है।

प्रसन्न कुमार की मृत्यु के बाद म्यूनिसिपल कमिशनर ने न तो वादी तो रिट के लिए सम्मन भेजा और न ही कोर्ट से डिक्री प्राप्त किया बल्कि केवल बलराम के विरुद्ध एक पक्षीय (ex-parte) डिक्री प्राप्त किया।

वादी 1948 में अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल हुआ था लेकिन उसका कहना था कि उसे 1944 के बाद लोकेपुर के जमीन के बारे में किसी सेटलमेंट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उसके अनुसार उसे इस सेटलमेंट की जानकारी वाद दायर करने से दो साल पहले एक रिश्तेदार द्वारा हुई थी लेकिन उसने ऐसे किसी रिश्तेदार को गवाह के रूप में नहीं बुलाया।

वादी ने यह भी माना कि उसने जमींदार को कभी कर नहीं दिया। वादी (गंगा प्रसाद) का पक्ष यह था कि उसके पिता उसके भाई बलराम (प्रतिवादी न 2) के undue influence के कारण उसके पुत्र सुभाष चन्द्र (प्रतिवादी न 1) के पक्ष में गिफ्ट डीड किया था ।

क्योंकि उसके बूढ़े और बीमार पिता बलराम पर आश्रित और उसके प्रभाव मे थे, और शारीरिक और मानसिक रूप से स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए सेक्शन 16 के अनुसार यह डीड voidable था। और उसे वादी की याचिका पर रद्द किया जाना चाहिए।  

अधीनस्थ न्यायालय (sub-ordinate court), बांकुरा ने वाद को खारिज कर दिया। कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया। हाई कोर्ट के अनुसार वादी के पिता और बहन के द्वारा उसके भाई के पुत्र के पक्ष में किया गया निरूपण पत्र (deed of settlement) (22 जुलाई, 1944 को रजिस्टर्ड) कपटपूर्ण और अवैध था क्योंकि वह प्रतिवादी न. 2 के अनुचित प्रभाव (undue influence) में किया गया था।

हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील किया गया।  सुप्रीम कोर्ट के अनुसार हाई कोर्ट ने परिस्थितियों, गिफ्ट देने वाले की अधिक उम्र, गिफ्ट देने वाले और लेने वाले के संबंधो आदि के कारण यह मान लिया (presumed) कि undue influence था। जबकि उसे साक्ष्यों के आधार पर अपने मत बनाना चाहिए था।

केवल इस कारण कि दादा ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपने पोते को अपने संपत्ति का कुछ हिस्सा दे दिया था या इसके पक्षकार संबंधी है, इसे सम्पत्ति का अनुचित हस्तांतरण (unconscionable transaction) नहीं माना जा सकता है।  

सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल कर दिया।

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