पेरोल, फरलो और जमानत के संबंध मे मुख्य कानूनी प्रावधान

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क्या हैं पेरोल, फरलो और जमानत

पेरोल, फरलो और जमानत कुछ शर्तों के साथ जेल से बाहर रहने का प्रावधान हैं। पेरोल और फरलो सजायाफ्ता क़ैदी को प्रशासन द्वारा और जमानत विचाराधीन क़ैदी को कोर्ट द्वारा दिया जाता है।

दूसरे शब्दों में अपराधी को न्यायालय द्वारा दोषी सिद्धकर सजा देने के बाद भी कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ निश्चित आधार पर कुछ समय के लिए जेल से बाहर रहने की अनुमति सरकार दे सकती है, जिसे पेरोल (parole) और फरलो (furlough) के नाम से जाना जाता है। पेरोल, फरलो और जमानत के संबंध  में हाल के वर्षों में आम लोगों में भी उत्सुकता बढ़ी है।

रामरहीम का बार-बार पेरोल पर बाहर आना चर्चा का विषय बनता है। अभिनेता संजय दत्त अवैध हथियार रखने के जुर्म मे जब पाँच वर्ष की सजा भुगत रहे थे तो उस दौरान अलग-अलग कारणो से कई बार वे कुछ दिनो के लिए जेल से बाहर आए थे। उनका इस तरह आने से आम लोगों मे सजायाफ्ता कैदी द्वारा सजा के दौरान जेल से बाहर आने से संबन्धित कानूनी प्रावधानों के लिए उत्सुकता हो गई थी । हाल मे ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को उनके बेटे की शादी के लिए तीन दिन का पेरोल और बाद मे स्वास्थ्य के आधार पर रांची हाई कोर्ट द्वारा छह सप्ताह का प्रोविजनल बेल मिलना चर्चा का विषय रहा था। नितीश कटरा हत्याकांड मे 25 साल की सजा काट रहे विकास यादव को उसके दादा के अंतिम संस्कार मे शामिल होने के लिए तीन दिन का कस्टडी पेरोल अपने छोटे भाई की सगाई समारोह के शामिल होने के लिए 2 घंटे का कस्टडी पेरोल दिल्ली हाइ कोर्ट द्वारा देने जैसे मामलो ने भी आमलोगों की रुचि जेल की सजा कट रहे कैदियों को बीच-बीच मे जेल से छोड़े जाने से संबन्धित कानूनी प्रावधानों मे बढ़ी है।

     पेरोल (parole)

                  पेरोल शब्द को कानून द्वारा कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 मे भी इसके लिए कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन विभिन्न राज्यों ने अपने प्रशासनिक अधिकारों के तहत इसके लिए नियम और विनियम बनाए है। सेंट्रल मॉडल रुल्स और रेगुलेशन्स भी है जो जेल समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर बनाया गया है।

      
दिल्ली जेल अधिनियम, 2000 की धारा 2 की उपधारा P पेरोल सिस्टम को परिभाषित करते हुए इतना ही कहता है कि

(p) “parole system” means the system of releasing prisoners from prison on parole by suspension of their sentences in accordance with the rules;

यानि सजा को स्थगित कर नियमों के अनुसार किसी कैदी को जेल से मुक्त करने कि व्यवस्था। इसलिए पेरोल को समझने के लिए हमे इसका सामान्य आशय ही लेना होगा।

            शब्दकोश के अनुसार पेरोल का अर्थ है “किसी सजायाफ्ता मुजरिम को, जो जेल मे अपनी सजा कट रहा है, उसकी सजा की अवधि समाप्त होने से पहले, कुछ शर्तों के अधीन प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा कुछ समय ले लिए जेल से मुक्त करना।” लेकिन यह सजा मे हस्तक्षेप नहीं होता है अर्थात उसे जितनी और जैसी सजा न्यायालय ने दी है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता है।

पेरोल का उद्देश्य

                      माननीय उच्चतम न्यायालय ने कई लिडिंग केस मे इस विषय पर विचार किया है जिसमे पूनमलता केस और इंदर सिंह बनाम राज्य (AIR 1978 SC 1091) बहुत महत्वपूर्ण है। इन केसों मे माननीय न्यायालय ने पाया कि पेरोल का मुख्य उद्देश्य होता है मुजरिम को उसके सामाजिक और पारिवारिक बंधनों ले जोड़े रखना ताकि उसे अपनेआप को सुधारने का अवसर मिले।

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पेरोल के प्रकार:

पेरोल दो प्रकार के होते है- कस्टडी पेरोल और रेगुलर पेरोल।

(1) कस्टडी पेरोल –

इस मे कैदी जब जेल से बाहर होता है उस समय भी वह पुलिस के घेरे मे होता है और इसलिए यह समय भी सजा मे गिना जाता है।

कस्टडी पेरोल इन आधारों पर दिया जा सकता है:
कस्टडी पेरोल कुछ विशेष कार्यों के लिए दिया जाता है, जैसे – परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु, विवाह या गंभीर बीमारी।

(2) रेगुलर पेरोल:

इसमे कैदी के साथ कोई पुलिसवाला नहीं होता है।


रेगुलर पेरोल इन अधारों पर दिया जा सकता है:

  1. कैदी के परिवार के किसी सदस्य कि गंभीर बीमारी, मृत्यु या शादी।
  2. अगर कैदी की पत्नी का प्रसव होने वाला हो और उसकी देखभाल करनेवाला कोई और न हो।
  3. किसी प्राकृतिक आपदा से कैदी के परिवार के किसी सदस्य को या संपति को गंभीर क्षति पहुंची हो।
  4. पारिवारिक और सामाजिक संबंध बनाये रखने के लिए।
  5. उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय मे विशेष अनुमति याचिका दायर करने के लिए।

पेरोल पर छोडने के लिए प्रक्रिया:

              पेरोल पर किसी कैदी को जेल से छोडने की प्रक्रिया का आरंभ होता है कैदी द्वारा इसके लिए आवेदन देने से। इसके लिए उसे कुछ शर्तों को पूरा करना होता है। पेरोल/फरलो गाइडलाइंस, 2010, के अनुसार ऐसी शर्तें है:-

  1. वह कम से कम एक साल तक जेल मे रह चुका हो।
  2. जेल मे रहने के दौरान उसका व्यवहार समान्यतः अच्छा रहा हो।
  3. अगर उसे पहले कभी पेरोल मिला हो तो उसने उसका कोई दुरुपयोग नहीं किया हो।
  4. अगर उसे इससे पहले भी पेरोल मिला हो, तो उसे कम से कम छः महिना बीत चुका हो।
  5. उसे जेल से छोडना राष्ट्रिय सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हो।
  6. अगर उसके खिलाफ कोई और केस चल रहा हो जिसका अभी अन्वेषण (investigation) या विचारण (trial) चल रहा हो, तो उसपर कोई विपरीत प्रभाव पड़ने का भय न हो।
  7. वह राज्य के विरुद्ध अपराध, जैसे राजद्रोह, का अपराधी नहीं हो और उसने जेल के अनुशासन का पालन किया हो।
  8. अगर कैदी बहुत ही जघन्य अपराध का दोषी हो, जैसे – बलात्कार मे बाद हत्या, बच्चे के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या, कई लोगों की हत्या इत्यादि तो उसे समान्यतः पेरोल नहीं दिया जाता है। उसे केवल सक्षम अधिकारी के विवेकाधिकार की शक्ति के तहत ही पेरोल दिया जा सकता है।

                       समान्यतः पेरोल एक महीने से अधिक के लिए नहीं दिया जाता है। यदि इससे अधिक के लिए दिया जाएगा तब उसके पेरोल आदेश मे ऐसा करने के लिए विशेष कारण का उल्लेख करना होगा। सरकार पेरोल की अवधि प्रत्येक मामले मे उसके गुण-दोष (merit) के आधार पर तय करती है।

                        इस शर्तों को पूरा करने के बाद यदि उसके पास पेरोल के लिए उचित आधार हो तो उसे पेरोल पर जेल से मुक्त किया जा सकता है।    

पेरोल के मामले मे न्यायालय की भूमिका:

            यद्यपि पेरोल देना सरकार के अधिकार क्षेत्र मे आता है और न्यायालय की इसमे अधिक भूमिका नहीं होती है, लेकिन जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने पाया है, आपराधिक न्याय का यह क्षेत्र भी संविधान से बाहर नहीं है और इसलिए इसे भी संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अनुकूल होना चाहिए। अर्थात इन मूल अधिकारों का उल्लंधन होने पर उच्च न्यायालय मे (अनुच्छेद 226) या उच्चतम न्यायालय मे (अनुच्छेद 32) रिट पीटीशन फाइल किया जा सकता है। संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय सरकार द्वारा पेरोल देने या इसके आवदन को अस्वीकार करने के आदेश की समीक्षा भी कर सकता है।

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फरलो (furlough)

              पेरोल की तरह फरलो भी कानून ने परिभाषित नहीं किया है। यह भी प्रशासनिक शक्ति द्वारा किसी सजाप्राप्त कैदी को कुछ शर्तों के अधीन कुछ समय के लिए जेल से बाहर रहने की अनुमति है। लेकिन इन समानताओ के बावजूद दोनों में अंतर है।

          फरलो का शाब्दिक अर्थ होता है “अनुपस्थित रहने के लिए अनुमति”। मूल रूप से यह शब्द उन लोगों के लिए उपयोग मे आता था जो क्रिश्चन मिशनरी के या किसी अन्य के सेवा मे हुआ करते थे और उनकी विशेष आवश्यकताओं को देखते हुए उन्हे कुछ समय के लिए सेवा से अनुपस्थित रहने की अनुमति दी जाती थी। कानून ने भी इसी आशय से किसी कैदी को कुछ समय के लिए जेल से कार्यपालिका द्वारा मुक्त करने के लिए इस शब्द के उपयोग को अपनाया है।

            लेकिन जहाँ पेरोल पर किसी को मुक्त करने के लिए किसी विशेष कारण का होना जरूरी होता है वही फरलो मे सामान्य आधार पर जेल से मुक्त किया जा सकता है। ऐसा सामान्य कारण यह हो सकता है – लंबी सजा अवधि के दौरान कैदी के सामाजिक और पारिवारिक संबंधो को बनाए रखना। लेकिन समाज के हित के विरुद्ध होने के आधार पर इसके लिए आवेदन को अस्वीकृत किया जा सकता है। अभिनेता संजय दत्त को जेल से कुछ समय के लिए मुक्ति मिलन फरलो का एक प्रसिद्ध उदाहरण है। 

                   सरकार यद्यपि अपने प्रशासनिक अधिकारों के तहत किसी कैदी को फरलो पर छोड़ने के अनुमति देने के लिए स्वतंत्र है लेकिन फिर भी उसे तत्संबंधित नियमों और विनियमों को मानना होगा। ऐसा नहीं होने के आधार पर सरकार के आदेश को न्यायालय मे चुनौती दी जा सकती है।

          उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दारवेकर मामले मे पेरोल और फरलो के बीच के अंतर को स्पष्ट किया था।          

                   कुछ लोग मानते है कि फरलो एक अधिकार के रूप मे मांगा जा सकता है जबकि पेरोल के मामले मे ऐसा नहीं किया जा सकता है। उनके ऐसा मानने का आधार यह है कि पेरोल के लिए किसी विशेष कारण का होना आवश्यक है जबकि फरलो के मामले मे ऐसा नहीं है। अर्थात फरलो बिना किसी विशेष कारण के भी मांगा जा सकता है। लेकिन यह मत सही नहीं है क्योंकि फरलो के लिए आवेदन भी सरकार समाज हित मे नहीं होने के आधार पर अस्वीकार कर सकती है क्योंकि इसे स्वीकार या अस्वीकार करना सरकार का विवेकाधिकार होता है। न्यायालय भी उस राज्य के जेल मन्युअल या फरलो/पेरोल संबंधी नियमों को नहीं मानने या संविधान के असंगत होने के आधार पर सरकार के निर्णय मे हस्तक्षेप कर सकता है।

जमानत (bail)

          पेरोल और फरलो की तरह जमानत मे भी सशर्त जेल मे रहने से मुक्ति मिली होती है, लेकिन यह मौलिक रूप से फरलो और पेरोल से अलग होता है। सबसे मौलिक अंतर यह है कि पेरोल और फरलो मे न्यायालय द्वारा दोषी पाए जाने और सजा दिए जाने के बाद सजा काटने के दौरान जेल मे रहने से मुक्ति मिलती है जबकि जमानत तब होती है जब केस चल रहा हो और उसे अभी तक न्यायालय ने दोषी नहीं माना हो।

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       जमानत के पीछे का मूल सिद्धांत यह ह अपराध की न्यायिक प्रक्रिया की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि अपराध की सत्यता की पुलिस द्वारा खोजबीन (investigation) और केस की न्यायालय द्वारा विचरण (trial) के दौरान अपराधी की उपस्थिति सुनिश्चित रहे ताकि दोषी पाए जाने पर उसे दंड दिया जा सके।लेकिन दोषी सिद्ध होने से पहले अभियुक्त को कारावास में रखना उसके व्यक्तिक स्वतंत्रता केअधिकार का हनन भी है।

इन्ही दोनों में संतुलन बनाये रखने के लिए जमानत (bail) का प्रावधान कानून द्वारा किया जाता है। परंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में अपराधी को दोषी सिद्ध कर सजामिलने के बाद भी कुछ निश्चित आधार पर कुछ समय के लिए जेल से बाहर रहने की अनुमति न्यायालय दे सकता है, जिसे पेरोल (parole) और फरलो (furlough) के नाम से जाना जाता है और इसका उद्देश्य होता है जेल मे रहने के दौरान कैदी के सामाजिक और पारिवारिक संबंधो को बनाए रखना ताकि जेल से बाहर आने के बाद उसे अपने को सुधारने का अवसर मिले ।

 जमानत (bail), पेरोल (parole) और फरलो (furlough) इन तीनों का तुलनात्मक अध्ययन निम्नलिखित सारणी (table) से किया जा सकता है:


1.      जमानत (bail) सजा मिलने से पहले दिया जाता है, जबकि परोल और फरलो सजा मिलने के बाद दिया जाता है।

2. जमानत न्यायालय द्वारा दिया जाता है लेकिन परोल और फरलो कार्यपालिका अधिकरण (executive authority) द्वारा बनाए गए नियमों,विनियमों और निर्देशकों (rules, regulations & guidelines) के अनुसार सरकार द्वारा दिया जाता है। इन नियमों, विनियमो और निर्देशकों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

3. सामान्यतः फरलो उन मामलों में दी जाती है जहाँ सजा लंबी (पांच साल या अधिक, जिसमे काम से कसम तीन साल की सजा काट चुका हो) की हो। लेकिन परोल के लिए अवधि महत्वपूर्ण नही है। जमानत चूंकि सजा की घोषणा से पहले ही दी जाती है इसलिए यह सजा की अवधि पर नही बल्कि अन्य कई तथ्यो पर आधारित होता है।

4. फरलो के दौरान जेल से बाहर बिताए गए समय को सजा में ही गिना जाता है। लेकिन पैरोल में ऐसा नही होता है ।

5. जमानत, पेरोल और फरलो, इन तीनो के लिए विचारणीय आधार अलग अलग है यद्यपि तीनो ही सशर्त और निश्चित समय अवधि के लिए जेल से मुक्ति है।           

                  जमानत में अभियुक्त की उपस्थिति की सुनिश्चितता, अपराध की प्रकृति, गवाहों और साक्ष्यो से छेड़छाड़ की संभावना इत्यादी पर न्यायालय विचार करता है।

पेरोल कुछ निश्चित उदेश्य के लिए दिया जाता है, जैसे परिवार में मृत्यु या विवाह, किसी सदस्य की गंभीर बीमारी आदि के लिए।              

फरलो किसी विशेष उदेश्य के लिए नही बल्कि सामान्य सामाजिक जीवन बचाए रखने के लिए लंबी अवधि तक सजायाफ्ता रहने वाले कैदी को दिया जाता है। इसलिए अगर किसी कैदी को पेरोल मिला है तो उसे फरलो से केवल इस आधार पर मन नही किया जा सकता, बल्कि फरलो के लिए अलग आधार पर विचार किया जाता है।

6. किसी कैदी को परोल कितनी बार मिल सकता है, इसकी कोई सीमा निर्धारित नही है। लेकिन फरलो के मामले में यह निश्चित होता है।

7. पेरोल एक बार मे अधिकतम 30 दिन और कुल मिला कर एक वर्ष में 90 दिनों से अधिक नही हो सकता। जबकि फरलो एक बार मे 14 दिन से ज्यादा नही हो सकता है।

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