प्रत्यास्थापन का सिद्धांत और अवयस्क के साथ संविदा(सेक्शन 64, 65, 70)- Part 11

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प्रत्यास्थापन का सिद्धांत (The Doctrine of Restitution)

प्रत्यास्थापन का सिद्धांत का सामान्य आशय होता है उस लाभ का प्र्त्यावर्तन या प्रस्थापन यानि वापस करना जिसे किस अवयस्क व्यक्ति ने संविदा से प्राप्त किया है।

अवयस्क व्यक्ति चूँकि मानसिक रूप से इतना सक्षम नहीं होता है कि अपने द्वारा लिए गए कार्यों या निर्णयों के प्रभाव से सही से समझ सके। इसलिए विधि अवयस्क के सहमति को सहमति नहीं मानता है।

चूँकि अवयस्क सहमति देने के लिए विधिक रूप से सक्षम नहीं है इसलिए वह संविदा करने के लिए भी सक्षम नहीं होता है। उसके द्वारा किया गया संविदा विधिक रूप से शून्य होता है।

लेकिन ऐसे किसी संविदा से अगर उस अवयस्क हो लाभ और दूसरे पक्ष को हानि हुई है। तो ऐसे स्थिति में दूसरे पक्ष को इस हानि की भरपाई कैसे हो, इसी का जवाब है प्रत्यर्पण या प्र्त्यस्थापन का सिद्धांत। क्योंकि विधि का एक और सिद्धांत यह भी है कि किसी व्यक्ति के हानि की कीमत पर किसी दूसरे व्यक्ति को लाभ नहीं होना चाहिए।

किसी अवयस्क द्वारा किए गए संविदा द्वारा उस अवयस्क को प्राप्त लाभ को क्या वापस लिया जा सकता है?

प्रत्यास्थापन का सिद्धांत कॉमन लॉ के अंतर्गत साम्य के सिद्धांत पर आधारित सिद्धांत है। इंग्लिश लॉ के अनुसार अगर किसी अवयस्क ने कपट करके किसी संविदा द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किया है तो उसे यह वापस (प्रत्यावर्तित) करना होगा, बशर्ते:

  • (1) वह वस्तु या संपत्ति पहचानी जा सके और
  • (2) वह अभी भी अवयस्क के कब्जे में हो। अर्थात इसके ये अपवाद है-
  1. चूँकि करेंसी को पहचानना और साबित करना मुश्किल होता है (कि यह वही पैसा है) इसलिए नकद पैसे के मामले में यह लागू नहीं होता है;
  2. अगर वह वस्तु उपयोग में लायी जा चुकी हो, स्थानांतरित की जा चुकी हो, या अब खोजे जाने योग्य नहीं हो, तो उसके प्रत्यावर्तन के लिए नहीं कहा जा सकता है।

प्रस्थापन या प्रत्यर्पण के सिद्धांत का उद्देश्य कपटी अवयस्क द्वारा बेईमानी या छल से लिए गए लाभ को हानि सहने वाले को वापस करवाना है, अवयस्क संविदा को लागू करवाना नहीं।

यह इस सिद्धांत पर आधारित है “He who seeks equity must do equity” अगर कोई पक्ष अपने प्रति साम्य चाहता है तो उसे भी ऐसे ही करना चाहिए।  

भारत में संविदा अधिनियम के सेक्शन 64, 65, 70 और विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, (the Specific Relief Act) से सेक्शन 39 और 41 के तहत किसी संविदा द्वारा प्राप्त अनुचित लाभ को वापस करने का उपबंध है।

न्यायालयों के समक्ष यह प्रश्न आया कि क्या आरम्भतः शून्य संविदा, जैसा कि अव्यस्क के साथ किया गया संविदा होता है, के मामले में भी ये सेक्शन लागू होते है?

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मोहरी बीबी केस में इसका उत्तर नकारात्मक दियागया। इस संबंध में विभिन्न उच्च न्यायालयों के मत में भिन्नता रही है।

सर शादी लाल (लाहौर हाई कोर्ट) ने खान गुल बनाम लाखा सिंह में अभिनिर्धारित किया कि एक अवयस्क को छल द्वारा प्राप्त लाभ को, जो कि पैसे के रूप में है, वापस करने के लिए कहना संविदा को प्रवर्तित करना नहीं बल्कि संविदा के पूर्व की स्थिति को लाना है।

यह राहत इसलिए प्रदान नहीं की जाती है कि दोनों पक्षकारों के बीच कोई संविदा है बल्कि इसलिए की जाती है कि उनके बीच कोई संविदा नहीं है, पर एक पक्ष के हानि की कीमत पर दूसरे पक्ष ने अन्यायोचित लाभ प्राप्त किया है।

लेकिन अजूधिया प्रसाद केस में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसके विपरीत मत दिया। लेकिन अधिकांश विधिशास्त्री और विधि आयोग सर शादी लाल के विचार से सहमति व्यक्त करते हैं। Specific Relief Act, 1963 के सेक्शन 33 में इस विचार को शामिल कर लिया गया है। इसके अनुसार अवयस्क, चाहे वह वादी हो, या प्रतिवादी, को राशि लौटना होगा।

आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के लिए अवयस्क का दायित्व (Liability for necessaries) क्या है?

(सेक्शन 68 – Claim for necessaries supplied to person incapable of contracting, or on his account.—If a person, incapable of entering into a contract, or any one whom he is legally bound to support, is supplied by another person with necessaries suited to his condition in life, the person who has furnished such supplies is entitled to be reimbursed from the property of such incapable person.

Illustrations

(a) A supplies B, a lunatic, with necessaries suitable to his condition in life. A is entitled to be reimbursed from B’s property.

(b) A supplies the wife and children of B, a lunatic, with necessaries suitable to their condition in life. A is entitled to be reimbursed from B’s property).

सेक्शन 68 के अनुसार जो व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है, जैसे कि अवयस्क, उसे “उसके जीवन की स्थिति के योग्य” आवश्यकता की वस्तु अगर किसी ने उसे उपलब्ध कराया हो, तो वह उसकी संपत्ति से इस रकम को वसूल सकता है।

पर व्यवहार में “जीवन की स्थितियों के योग्य आवश्यक वस्तुएं” तथ्य का विषय है। इसमें केवल वही वस्तु नहीं आती जो कि जीने के लिए आवश्यक होतीं है बल्कि वह भी होती है जो उस अवयस्क के जीवन की विशेष आवश्यकताओं के अनुरूप हो।

वास्तव में किसी व्यक्ति के लिए आवश्यक वस्तुएं क्या है, यह व्यक्ति के सामाजिक स्तर और वस्तुओं के पहुँचने के वास्तविक समय पर उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करता है। पर जीवन की आवश्यक वस्तुओं में भोजन, वस्त्र, आवास के साथ-साथ शिक्षा, कला, व्यापार आदि भी आ सकता है जो एक स्वस्थ्य बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक होता है।

उपलब्ध कराई गई वस्तु केवल अवयस्क की स्थिति के योग्य ही नहीं होनी चाहिए बल्कि उपलब्ध कराए जाने के समय उस अवयस्क द्वारा अपेक्षित भी होनी चाहिए। विधिक दृष्टि से संविदा के लिए अवयस्क और विकृतचित्त व्यक्ति से संबंधित प्रावधान लगभग समान ही है।

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एक अवयस्क के लिए सेवा और शिक्षुता (service and apprenticeship) के संविदा कि विधिक स्थिति क्या है?

इंग्लिश कॉमन लॉ का सामान्य नियम यह है कि अवयस्क सेवा और शिक्षुता कि संविदाओं से बाध्य होता है क्योंकि आवश्यक वस्तुओं की संविदा की तरह ये संविदाएँ भी उसके लिए लाभकारी होती है तथा जीवनयापन करने के लिए उसे साधन प्रदान कर सहायता करती है।  

एक अवयस्क व्यापारी वादी को कुछ माल देने के लिए राजी हुआ और इसके लिए एक राशि भी अग्रिम प्राप्त कर लिया। लेकिन उसके द्वारा माल आपूर्ति में असफल रहने पर वादी ने अग्रिम दी गई राशि की वसूली के लिए वाद दायर किया।

न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि अवयस्क को इससे लाभ प्राप्त हुआ था लेकिन उसके अवयस्क होने के कारण उसको उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। (कोर्टन बनाम नील्ड– (1912) 2 KB 412)

एक अवयस्क ने मुक्केबाजी के लाइसेंस के लिए आवेदन करते हुए ब्रिटिश बॉक्सिंग बोर्ड के सभी नियमों को मानने का सविदा किया। लाइसेंस प्राप्त कर खेलते हुए नियमों को तोड़ने के कारण उसे देय राशि रोक दिया गया।

न्यायालय ने पाया कि बोर्ड के साथ अवयस्क द्वारा की गई संविदा, सेवा की संविदा के इतना निकट संबंधित थी कि वह उसके विरुद्ध बाध्यकारी थी। अतः वह उस रकम को प्राप्त नहीं कर सकता था। (डोयल बनाम व्हाइट सिटी स्टेडियम लिमिटेड– (1935) 1 KB 110)

अवयस्क का उत्तरदायित्व केवल उन संविदाओं के लिए होती है जो उसके लिए लाभकारी हो। अगर किसी संविदा के कई खंड हो जिसमे से कुछ अवयस्क के लिए लाभकारी नहीं हो किन्तु सारभूत रूप से अगर वह लाभकारी है तो उसे अवयस्क के लिए लाभकारी माना जाता है।

ऐसी संविदा अवयस्क लिए बाध्यकारी होती है। लेकिन अगर ऐसा नहीं हो तो अगर वह अवयस्क चाहे तो उसे शून्य घोषित करवा सकता है अर्थात तब यह संविदा अवयस्क के विकल्प पर शून्य होती है।

विवाह की सविदाओं को अवयस्क के लिए न्यायिक निर्णयों में उसके लिए लाभकारी माना गया है।

अगर किसी अवयस्क के लिए उसके अभिभावक कोई संविदा करे और यह उसके लिए लाभदायक हो तो वह अवयस्क उस संविदा के आधार पर वाद लाने का अधिकारी होता है।

इंग्लिश लॉ में सेवा और प्रशिक्षण दोनों के लिए समान लॉ है लेकिन भारत में इसमे थोड़ी सी भिन्नता है। भारत में भी अवयस्क द्वारा की गई सेवा की संविदा शून्य होती है।

एक अवयस्क बालिका की तरफ से उसके पिता ने एक फिल्म निर्माता से संविदा किया जिसके अनुसार एक निश्चित राशि पर वह बालिका अभिनेत्री के रूप में कार्य करती। लेकिन उसे कोई कार्य नहीं दिया गया।

निर्माता पर सविदा भंग करने के लिए वाद किया गया। यह पाया गया कि यह संविदा दो कारणों से शून्य था और इसलिए प्रवर्तनीय नहीं था। पहला, वादी अवयस्क थी, और दूसरा, यह संविदा बिना प्रतिफल के थी। इसमे प्रतिफल एक पर-व्यक्ति (जो संविदा का पक्ष नहीं था यानि कि अवयस्क) द्वारा दिए जाने के कारण पर्याप्त प्रतिफल नहीं था (राजरानी बनाम प्रेम आदिब– AIR 1949 Bom 315)।

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इस तरह भारतीय विधि सेवा की सविदा से अवयस्क को बाध्य नहीं करती लेकिन भारतीय शिक्षुता अधिनियम, 1850 के अनुसार प्रशिक्षण के लिए की गई संविदाएँ बाध्यकारी होती हैं।

अवयस्क द्वारा किए गए करार की विधिक स्थिति या प्रभाव (Effects of minor agreement) क्या होती है?

चूंकि अवयस्क का करार शून्य होता है, इसलिए अगर वह कोई करार भंग करता है तो उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन अगर वह कोई अपकृत्य करता है तो उसे एक प्राप्तवय व्यक्ति की तरह ही और उसी विस्तार तक उत्तरदायी होता है।  

कभी-कभी कोई कार्य संविदा भंग और अपकृत्य दोनों ही हो सकता है। उदाहरण के लिए कोई अवयस्क अपने को वयस्क बता कर कपट करता है ताकि दूसरा पक्ष उससे संविदा करने के लिए तैयार हो जाए। ऐसा कर वह दूसरे पक्ष से कपट द्वारा ऋण प्राप्त कर लेता है। यहा संविदा है जो कि आरंभ से ही शून्य है पर साथ ही कपट भी हुआ है, जो कि अपकृत्य भी है।          

अगर अपकृत्य के लिए इस पैसे को देने के लिए उसे उत्तरदायी ठहराया जाता है तो यह एक शून्य संविदा को लागू करना हो जाएगा। इसलिए न्यायालयों ने निर्धारित किया है कि अगर किसी अपकृत्य के लिए कार्यवाही करने की अनुमति देने से किसी प्रकार का अप्रत्यक्ष प्रवर्तन होता है तब विधि ऐसी कार्यवाही की अनुमति नहीं देगी।      

एक अवयस्क ने अपने को वयस्क बता कर एक घोड़ी घुड़सवारी के लिए किराए पर लिया। अत्यधिक घुड़सवारी के कारण वह घोड़ी घायल हो गई। अभिनिर्धारित किया गया कि अवयस्क को उपेक्षा के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि इससे उसे संविदा भंग करने के लिए उत्तरदायी ठहराना हो जाएगा। (जोनिग्स बनाम रुंडाल– (1799) 8 टर्म आर। 335)। लेकिन अगर संविदा की प्रकृति ऐसी हो जिससे किया गया अपकृत्य संविदा से बिलकुर स्वतंत्र है तो अपकृत्य के लिए कार्यवाही की जा सकती है।  

उदाहरण के लिए एक अवयस्क ने घुड़सवारी के लिए एक घोड़ी किराए पर लिया। इस बात के लिए स्पष्ट सहमति हुई थी कि घोड़ी का प्रयोग केवल घुड़सवारी के लिए होगा, उछलने और लंबी कूद के लिए नहीं। अवयस्क ने घोड़ी को एक झाड़ी के ऊपर से छलांग लगा दिया जिसे वह झाड़ी में फँसकर मर गई। यह पाया गया कि अवयस्क प्रवंचना से घोड़ी की हत्या के लिए उत्तरदायी था क्योंकि उसका कार्य उसके द्वारा की गई संविदा से बिल्कुल स्वतंत्र था (बर्नार्ड बनाम हगिस– (1863) 32 LCP 189) ।      

इस सिद्धांत को बैलट बनाम मिंगे (1743) KB 281) में भी अपनाया गया। इस केस में अवयस्क ने एक माइक्रोफोन और एम्प्लीफायर किराए पर लिया और इसे इसके मालिक को लौटने के बजाय अपने एक मित्र को दे दिया। अभिनिर्धारित किया गया कि अवयस्क द्वारा उसे किसी अन्य को देने का कार्य (उपनिधान-bailment) संविदा से बिल्कुल स्वतंत्र था। अतः अवयस्क को निरुद्ध माल के वापसी के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

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