मुस्लिम वैयक्तिक विधि (Muslim Personal Law)

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मुस्लिम वैयक्तिक विधि (Muslim Personal Law) क्या है?

मुस्लिम वैयक्तिक विधि ऐसे कानून है जो केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों पर लागू होता है। ये परम्परागत कानून होते है जिन्हे कानून की तरह ही मान्यता प्राप्त होता है। लेकिन मुस्लिम वैयक्तिक विधि केवल कुछ व्यक्तिगत मामलों में ही लागू होता है अन्य मामलों में देश का सामान्य कानून ही उनपर भी लागू होता है।             

 वैयक्तिक विधि (personal law) से आशय ऐसी विधि से होता है जिसमे सामान्यतः विवाह, तलाक, बच्चों का संरक्षणत्व, उत्तराधिकार इत्यादि विषय शामिल होते है। ये सामान्यतः किसी समुदाय विशेष मे परंपरा द्वारा विकसित विधि और प्रथा द्वारा प्रशासित होते है और उसे समुदाय के लोगों के द्वारा सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है।

       भारत के कुछ सीमित विषयों मे समुदाय विशेष मे मान्य वैयक्तिक विधि को मान्यता दिया जाता है। ये विधियाँ व्यक्ति के पारिवारिक विषयों से संबन्धित होती है। इस कारण यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और पारसी इत्यादि समुदायों के व्यक्तिगत विधियों को मान्यता दिया गया है। ये वैयक्तिक विधियाँ कुछ ही विषयों पर लागू होती है।


          भारतीय दंड संहिता और सिविल कानून सभी देशवासियों के लिए समान रूप से बाध्यकारी है। देश मे समान नागरिक कानून (Uniform Civil Code) के लिए समय-समय पर माँग उठती रही है। हमारे संविधान के नीति-निदेशक तत्त्वों मे भी समान नागरिक संहिता एक लक्ष्य माना गया है। लेकिन वैयक्तिक विधि के समर्थकों का दावा है कि उनकी विधि दैवीय विधि है और दैवीय ग्रंथ से उद्भूत है इसलिए इसे बदला नहीं जाना चाहिए। यही दावा और विरोध समान नागरिक संहिता लागू करने के मार्ग मे सबसे बड़ी बाधा है।

            1955-56 मे हिन्दू विधि के एक बड़े भाग को संहिताबद्ध कर हिन्दू, सिक्ख, जैन और बौद्धों के लिए एक ही वैयक्तिक विधि बनाया गया है। सिक्खों के लिए कुछ अलग वैयक्तिक विधि भी है, जैसे आनंद मैरेज एक्ट। उनके लिए यह वैकल्पिक है कि वे चाहे तो हिन्दू मैरेज एक्ट के तहत विवाह करे या आनंद मैरेज एक्ट के तहत।

              लेकिन मुस्लिम वैयक्तिक विधि मे सुधार और इसके एकीकरण और संहिताकरण का अधिक प्रयास नहीं हुआ है और इसका बहुत छोटा अंश ही संहिताबद्ध किया जा सका है। अभी यह मूल रूप से कुरान, शरीयत और परंपरागत विधि और रूढ़ियों पर आधारित है।

            भारत में मुस्लिम समुदाय का पारिवारिक मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन अधिनियम, 1937 द्वारा शासित होता है।

मुस्लिम वैयक्तिक विधि किन व्यक्तियों पर लागू होता है?

          मुस्लिम वैयक्तिक विधि, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों पर लागू होता है, इसमे जन्मजात और संपरिवर्तित मुस्लिम – दोनों शामिल हैं । लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति मुस्लिम विश्वासों को मानता हो लेकिन मुस्लिम कर्मकांडो और धार्मिक अनुष्ठानों को नहीं करता हो। इसका विपरीत भी संभव हो सकता है जबकि कोई व्यक्ति धार्मिक कर्मकांडों और अनुष्ठानों को करता हो पर मूल धार्मिक मान्यताओं को नहीं मानता हो। इस स्थिति मे भी वह मुस्लिम माना जाएगा। अर्थात मुस्लिम विधि तीन श्रेणी के मुस्लिमों पर लागू होता है:

   1. ऐसा व्यक्ति जो जन्म से मुस्लिम हो अर्थात उसके माता-पिता मुस्लिम हो। माता और पिता मे से कोई एक गैर-मुस्लिम हो तो ऐसी स्थिति मे सामान्य नियम यह है कि पिता का धर्म ही बच्चे का धर्म माना जाता है। पर अगर पिता मुस्लिम हो और बच्चे का नाम मुस्लिम हो और वह मुस्लिम धर्म क मूल सिद्धांतों को मानता हो और उसका लालन-पालन मुस्लिम विधि से हुआ हो तो उसे मुस्लिम माना जाएगा।

2. ऐसा व्यक्ति जो पहले किसी अन्य धर्म को मानता हो लेकिन बाद मे उसने विधिवत रूप से इस्लाम अपना लिया हो और इसके लिए निर्धारित कर्मकांडों को सम्पन्न किया हो और मुस्लिम नाम रख लिया हो, भले ही वह रोजा, नमाज आदि जैसे धार्मिक कृत्यों और अनुष्ठानों को नहीं करता हो।

3. ऐसा व्यक्ति जो न तो जन्म से मुस्लिम हो और न ही उसने विधिवत रूप से इस्लाम धर्म अपनाया हो लेकिन वह मुस्लिम धर्म की मूल मान्यताओं को मानता हो तो उसे भी मुस्लिम माना जा सकता है। ऐसी मूल मान्यताएं हैं – खुदा (ईश्वर) केवल एक है, और मुहम्मद साहब उसके पैगंबर हैं, (इसका अरबी मे भाषांतरण है – … ला इलाह ईल लीलह मोहम्मद उस रसूलिल्लाह … … ), कुरान एकमात्र धार्मिक ग्रंथ है,हजरत मोहम्मद अल्लाह के अंतिम पैगंबर है, कयामत का दिन होगा जिस दिन सबको अपने गुनाहों का जवाब देना होगा, खुदा ने सृष्टि कि रचना की है, उसके समक्ष सब मनुष्य समान है, इत्यादि।

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            वास्तव मे इस्लाम एक धर्म से अधिक एक विश्वास है और यह कर्मकांडों से अधिक विश्वास और आस्था को महत्त्व देता है। इसलिए इसमे धर्म परिवर्तन के नियम भी सरल है। कोई गैर-मुस्लिम अगर मुस्लिम बनाना चाहे तो उसे मस्जिद मे जाकर कुछ सरल अनुष्ठानों को सम्पन्न करना होता है । वहाँ उससे इमाम यह प्रश्न करता है कि क्या वह स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार करना चाहता है? उसके हाँ कहने पर इमाम उसे कलमा पढ़ाता है। कलमा का उच्चरण पूर्ण होते ही उसका इस्लाम मे संपरिवर्तन पूर्ण हो जाता है। तत्पश्चात इमाम उसे मुस्लिम नाम देता है।

           अधिकांश मस्जिदों में एक रजिस्टर रखा होता है जिसमे संपरिवर्तन करने वालों के नाम, संपरिवर्तन की तिथि और संपरिवर्तित व्यक्ति के हस्ताक्षर होते हैं। एक बार संपरिवर्तन के बाद वह व्यक्ति तब तक मुस्लिम ही माना जाएगा जब तक कि वह विधिवत रूप से कोई अन्य धर्म स्वीकार न कर ले। इससे उसके मुस्लिम होने मे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मुस्लिम मान्यताओं मे उसका विश्वास कितना गहरा है या वह मुस्लिमों के लिए निर्धारित कृत्यों और अनुष्ठानों को करता है या नहीं ।

न्यायालय के समक्ष कई ऐसे मुकद्मे आए है जब अपने वैयक्तिक विधि से बचने के लिए पक्षकारों ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा अधिकांश विवाह के मामले मे हुआ है क्योंकि हिन्दू और ईसाई वैयक्तिक विधि द्विविवाह को अपराध मानते है जबकि मुस्लिम विधि मे यह वैध है।          

                    उच्चतम न्यायालय ने ऐसे धर्म परिवर्तन को जो केवल अपने लाभ के लिए और अपने व्यक्तिगत विधि के निषेधों और दंडों से बचने के लिए किया जाता है, को कानून के साथ कपट माना है। कपटपूर्ण और असद्भावपूर्ण होने के आधार पर न्यायालय ने कई ऐसे मामलों मे संपरिवर्तन को शून्य माना है।

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           इस संबंध मे यह प्रश्न उठा कि अगर कोई विवाहित गैर–मुस्लिम व्यक्ति बिना तलाक लिए इस्लाम में संपरिवर्तित हो जाता है, तो ऐसी स्थिति मे उसके पति या पत्नी के लिए क्या अनुतोष (relief) है। 
 
भारतीय न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि अगर कोई हिन्दू या ईसाई अपने वैयक्तिक विधि का अनुसार विवाहित है और इस्लाम में संपरिवर्तित हो जाता है तो इस स्थिति मे उसका पहला विवाह स्वयं ही विघटित नहीं हो जाता है। साथ ही यह भी माना गया है कि भारत मे किसी मुस्लिम व्यक्ति को इस आधार पर तलाक नहीं मिल सकता है कि दुसरे पक्ष ने इस्लाम में संपरिवर्तित होने से इंकार कर दिया है।

मुस्लिम वैयक्तिक विधि किन विषयों पर लागू होता है?

मुस्लिम विधि के अनुसार अगर कोई व्यक्ति संपरिवर्तित होकर इस्लाम स्वीकार कर लेता है तो उस पर सभी वैयक्तिक मामलों मे मुस्लिम विधि लागू होगा न कि उसका पूर्व वैयक्तिक विधि (previous personal law)। 1937 से पहले इस बारे मे मतभेद था क्योंकि कुछ मामलों मे उन पर पूर्व विधि लागू होता था और कुछ मामलों मे मुस्लिम विधि। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए शरीयत अधिनियम, 1937 बनाया गया। इसके सेक्शन 2 और 3 के अनुसार निम्नलिखित मामलों मे मुस्लिम वैयक्तिक विधि लागू होगा-

 (1)  हर मुस्लिम पर, चाहे वह जन्मजात मुस्लिम हो या संपरिवर्तित, निम्नलिखित दस मामलों मे मुस्लिम वैयक्तिक विधि पूर्णरूपेण लागू होगा :

  1. बिना वसीयत वाले मामले मे उत्तराधिकार;
  2. स्त्रियों की विशेष संपत्ति, जिसमे संविदा और हिबा या वैयक्तिक विधि के किसी अन्य उपबंध के अंतर्गत हासिल या विरासत में प्राप्त संपत्ति शामिल है;
  3. विवाह;
  4. विवाह-विच्छेद (सभी प्रकार का);
  5. निर्वाह;
  6. मेहर;
  7. संरक्षण;
  8. दान;न्यास की संपत्ति; और
  9. वक्फ (खैरात, खैराती संस्थाओं और धार्मिक विन्यासों को छोड़ कर)।

(2)  कोई स्वस्थचित्त, वयस्क और भारत का निवासी मुस्लिम (जन्मजात या संपरिवर्तित) यह घोषणा कर दे (ऐसी घोषणा विहित प्राधिकारी के समक्ष विहित घोषणा पत्र द्वारा की जा सकती है) कि दत्तक,वसीयती और वसीयती दान पर मुस्लिम विधि लागू होगी तो वह, उसकी संतान और वंशज इन मामलों मे भी मुस्लिम विधि से शासित होंगे।


(3) शरीयत अधिनियम, 1937 लागू होने के बाद भी कुछ मामले ऐसे है या कुछ व्यक्ति ऐसे है जिन पर रूढ़ि (customs) या उनका पूर्व वैयक्तिक विधि अब भी लागू हो सकता है। ये हैं:

          उन  मामलों मे जिनका उल्लेख शरीयत अधिनियम के सेक्शन 2 और 3 में नहीं किए गया है, रूढ़ि से शासित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए पंजाब की रूढ़िगत संस्था पूर्वज-संपत्ति संबंधी सिद्धांत पंजाब और हरियाणा के मुस्लिमों पर और तरवाड़ संस्था केरल के मोपिला मुस्लिमों पर लागू होती है जबकि ऐसी संस्थाएँ मुस्लिम विधि मे मान्य नहीं है। 

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(4)   कृषि-भूमि और खैरात तथा धार्मिक और खैरात विन्यास (वक्फ को छोड़ कर) पर मुस्लिम विधि लागू नहीं होती है। लेकिन आंध्र प्रदेश मे मुस्लिम विधि खेतिहर भूमि और धार्मिक विन्यासों पर भी लागू होती है।

    (5)   जिस व्यक्ति ने दत्तक वसीयती उत्तराधिकारी और वसीयती दान के संबंध में मुस्लिम विधि से शासित होने का घोषणापत्र नहीं दाखिल किया है और जो व्यक्ति रूढ़ि या पूर्व वैयक्तिक विधि द्वारा शासित होता था, वह शरीयत अधिनियम पारित होने के बाद भी उस रूढ़ि या वैयक्तिक विधि द्वारा शासित हो सकता है। इस प्रवर्ग में आने वाली जातियाँ है- खोजा, वोहरा, कच्छ और हलई-मेनन, भड़ौच के मौला सलाम गिरिया।

शिया और सुन्नी समुदाय की विधियों मे तुलना

                 मुस्लिम समुदाय मे सबसे बड़ा विभाजन सुन्नी और शिया के रूप में है। यह विभाजन मूलतः राजनीतिक था न कि धार्मिक या दार्शनिक। मुस्लिम समुदाय का इन दोनों उप-समुदायों मे विभाजन का संबंध पैगंबर मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद हुए उत्तराधिकार के लिए संधर्ष से है।

            पैगंबर के बाद जो चार खलीफा हुए थे, वे निर्वाचित थे। सुन्नी वह वर्ग था जो यह मानता था कि ये चारों पैगंबर के प्रिय थे और अपनी योग्यता के कारण निर्वाचित हुए थे। जबकि शिया वह वर्ग था जो इन चारों को अपहरणकर्ता मानता था। शिया का कहना था कि पैगंबर का कोई वंशज ही उनका उत्तराधिकारी होना चाहिए। निर्वाचन के पक्षधर बहुसंख्यक सुन्नी और उत्तराधिकार के पक्षधर अल्पसंख्यक शिया कहलाए।            

                           शिया शब्द “शियात-अली” से बना है जिसका अर्थ है अली का गुट या संप्रदाय। यह ऐसा गुट था जो उत्तराधिकार संघर्ष मे अली का समर्थन करता था।

           भारत मे अधिकांश शिया असन आशरी विचारधारा को मानते है। इस्माइल शिया यहाँ अल्पसंख्यक है। भारत मे इस्माइल के दो मुख्य उप-समुदाय हैं – खोजा और बोहरा। खोजा आगा खाँ के अनुयाई है और बोहरा मुख्यतः सैदन या दाय के। चूँकि भारत मे अधिकांश मुस्लिम सुन्नी समुदाय के है। इसलिए अगर किसी विवाद मे अगर यह पता न हो कि कोई पक्ष शिया है तो जब तक इसके विपरीत न साबित कर दिया जाय, उसे सुन्नी माना जा सकता है।
            विधिक दृष्टि से सुन्नी पैगंबर के समीप के इमामों और विधिवेत्ताओं की साधारण सभा मे सहमति से किए है निर्णयों को कुरान के नियम का अनुपूरक और प्राधिकार में उनके निकटतम मानते है। शिया विधिवेत्ताओं के निर्णयों को नहीं मानते केवल उनकी परम्पराओं को मानते है जो हजरत अली या उनके वंशजों से प्राप्त हुआ हो।

 शिया और सुन्नी विधि मे मुख्य अंतर  
                       शिया शाखासुन्नी शाखा


निकाह (marriage) के संबंध में  
      इसमे अस्थायी निकाह (मुत्ता निकाह) को वैध नहीं माना जाता है।


इसमें मुत्ता निकाह वैध है।
      निकाह के लिए अनुमति देने के लिए पीता और पितामह (दादा) ही वैधानिक अभिभावक (legal guardian) माने जाते है।  निकाह के लिए पिता और पितामह के साथ-साथ भाई और अन्य पैतृक संबंधी एवं माता एवं उसके संबंधी आदि को भी अभिभावक माना जाता है।


      शिया
 समुदाय मे निकाह से समय गवाहों की उपस्थिति आवश्यक नहीं है।


 
सुन्नी संप्रदाय मे निकाह मे समय दो गवाहों की उपस्थिति आवश्यक है।
      तलाक के समय दो गवाह आवश्यक हैं ।तलाक के समय गवाहों की उपस्थिति आवश्यक नहीं है।


     शिया समुदाय मे निकाह केवल दो तरह का हो सकता है – मान्य और शून्य या निष्प्रभावी निकाह।सुन्नी समुदाय मे मान्य और शून्य निकाह के अलावा अनियमित निकाह को भी मान्यता प्राप्त है।


    वयस्कता प्राप्त करने से पूर्व किया सभी कृत्य, जिसमे निकाह भी शामिल है, शून्य होते हैं।लेकिन सुन्नी समुदाय मे अल्पव्यस्क (नाबालिग) द्वारा किया गया निकाह अनियमित माना जाता है, शून्य नहीं।


मेहर और दहेज (dowry) के संबंध में  
     दहेज के लिए न्यूनतम राशि निर्धारित नहीं किया गया है, लेकिन अधिकतम राशि 500 दिरहम निर्धारित है।इसमे दहेज के लिए न्यूनतम राशि 10 दिरहम निर्धारित किया गया है लेकिन अधिकतम राशि निर्धारित नहीं है।


     इसमे बिना किसी शर्त के दहेज की अदायगी तुरंत समझी जाती है।दहेज का कुछ भाग तुरंत देय और कुछ बाद में अवशेष माना जाता है।


तलाक (Talaq or Dissolution of Marriage) के संबंध में  
   इसमे तलाक मौखिक रूप से और अरबी भाषा मे होना चाहिए।इसमे तलाक मौखिक या लिखित हो सकता है।


   इसमे तलाक की घोषणा के समय गवाहों कि उपथिति आवश्यक है।इसमे तलाक की घोषणा के समय गवाहों की उपस्थिति आवश्यक नहीं है।


   नशे मे या बलपूर्वक कराया गया तलाक शून्य होता है।नशे मे या बलपूर्वक कराया गया तलाक भी शून्य नहीं होता है।


   अस्पष्ट भाषा मे दिया गया तलाक शून्य होता है।अस्पष्ट भाषा मे दिया गया तलाक भी शून्य नहीं होत है यदि यह सिद्ध हो जाय कि वह इच्छानुसार था।


   शिया संप्रदाय मे केवल तलाक-उल-सुन्नत को मान्यता प्राप्त है, तलाक-उल-बिददत को नहीं ।सुन्नी संप्रदाय मे तलाक-उल-सुन्नत और तलाक-उल-बिददत दोनों को मान्यता प्राप्त है।


अभिभावकता (Guardianship) के संबंध में  
      पुत्र के लिए दो वर्ष और पुत्री के लिए सात वर्ष तक माता अभिभावक होती है।पुत्र के लिए सात वर्ष तक और पुत्री के लिए वयस्कता की उम्र तक माता अभिभावक होती है।


मातृत्व (Motherhood) के संबंध में  
      शिया विधि मे व्यभिचार से उत्पन्न बच्चे को विधिक रूप से मातृहीन  माना जाता है।सुन्नी विधि मे बच्चे को जन्म देने वाली माता उसकी माता मानी जाती है। चाहे उसका जन्म किसी भी तरह के संबंध से हुआ हो।


निर्वाह वृति (Maintenance) के संबंध में  
      पिता अगर कमाने योग्य है तो पुत्र की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वह पिता का व्यय वहाँ करे।पुत्र की यह ज़िम्मेदारी है कि वह पिता का व्यय वहाँ करे भले ही पिता कमाने योग्य हो।


      यदि निर्वाह व्यय वहन करने वाले व्यक्तियों की संख्या एक से अधिक हो तो प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता और आय के अनुसार उन्हे व्यय वहन करना होता है।


लेकिन सुन्नी विधि मे ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को यह बराबर मात्र मे वहन करना होता है।
वक्फ  (waqf) के संबंध में  
   शिया विधि मे बिना बिना कब्जा (possession) दिए वक्फ अमान्य है और इसके लिए केवल घोषणा मात्र पर्याप्त नहीं होता है।


लेकिन सुन्नी विधि में केवल घोषणा से ही वक्फ मान्य हो जाता है।
दान (gift) के संबंध में  
     यदि किसी संपत्ति का बँटवारा हो सकता है तो उसे संपत्ति के बिना बंटे हिस्से का दान मान्य है।


किसी संपत्ति के बिना बंटे हिस्से का बँटवारा मान्य नहीं है।
शुफ़ा (pre-emtion) के संबंध में  
      शुफ़ा का अधिकार केवल तभी मान्य है जबकि सहभागियों की संख्या दो से अधिक न हो और यह दोनों सहभागियों के बीच ही हो।


सुन्नी संप्रदाय मे सहभागी के अलावा अन्य लोग भी शुफ़ा के अधिकारी हो सकते हैं।
वसीयत (wills) के संबंध में  
1.        शिया विधि को वसीयत करने लिए उत्तराधिकारियों की अनुमति जैसी कोई आवश्यकता नहीं होती है।एक सुन्नी व्यक्ति अपनी संपत्ति का वसीयत तभी कर सकता है जबकि उसके उत्तराधिकारी इसके लिए अनुमति दे।


शिया विधि के अनुसार वसीयत जिसके नाम से किया गया हो वह वसीयत करने वाले से पहले मर जाय और वसीयत करने वाला वसीयत रद्द नहीं करे तो ऐसी स्थिति में वसीयत अपनेआप रद्द नहीं होगा बल्कि जिसके नाम उत्तराधिकार किया गया हो, उसके उत्तराधिकारियों को मिलेगा।


सुन्नी विधि के अनुसार अगर ऐसी स्थिति मे संपत्ति पुनः वसीयत करने वाले को वापस मिल जाएगी।
शिया विधि मे जीवनकालिक संपत्ति को मान्यता प्राप्त है।


सुन्नी विधि मे ऐसी संपत्ति को मान्यता प्राप्त नहीं है।
उत्तराधिकार (inheritance) के संबंध में  
      शिया विधि मे ज्येष्ठ संतान द्वारा संपत्ति पर उत्तराधिकार की प्रथा कुछ अंशों में मान्य है।


सुन्नी विधि में ऐसी प्रथा मान्य नहीं है।
      इसमे संतानहीन विधवा पति की अचल संपत्ति में हिस्सा पाने के लिए हकदार नहीं है।


इसमें संतानहीन विधवा भी पति की अचल संपत्ति की उत्तराधिकारिणी हो सकती है।
      इसमे केवल पति को ही प्रत्यावर्तन का अधिकार होता है, पत्नी को नहीं।


इसमे पति और पत्नी दोनों ही प्रत्यावर्तन के अधिकारी होते है।
   यदि किसी व्यक्ति ने जानबूझ कर उस व्यक्ति की हत्या की हो, जिसकी संपत्ति उसे उत्तराधिकार मे मिलना हो, तो उसे उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाएगा।यदि किसी व्यक्ति ने उस व्यक्ति की हत्या कर दी हो जिसकी संपत्ति उसे उत्तराधिकार मे मिलना हो, तो उसे उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। इस तथ्य से कोई अंतर नहीं होगा कि उसने हत्या जानबूझ कर की या उससे अनजाने मे हत्या हो गई।


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