विवाह-विच्छेद ((Dissolution of marriage or divorce) धारा 13-18

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Table of Contents

विवाह-विच्छेद (divorce) के लिए आधार-

पति और पत्नी दोनों को प्राप्त आधार [धारा 13 (i)]-

1. जारता,

2. क्रूरता,

3. अभित्यजन,

4. धर्म परिवर्तन,

5. मानसिक विकृत्तता,

6. कोढ़,

7. यौन रोग,

8. संसार परित्याग,

9. सात वर्ष से लापता होना,

10. न्यायिक पृथक्करण के बाद एक वर्ष या अधिक कालावधि तक सहवास न होना

11. दामपत्य अधिकार के पुंर्स्थापन की डिक्री का पालन न होना।

केवल पत्नी को प्राप्त आधार [धारा 13 (2)]-

1. पति द्वारा दूसरा विवाह [धारा 13 (2) (i)]

2. पति द्वारा अप्राकृत मैथुन का अपराध [धारा 13 (2) (ii)]

3. भरण-पोषण की डिक्री [धारा 13 (2) (iii)]

4. यौवन का विकल्प [धारा 13 (2) (iv)]

विवाह-विच्छेद के लिए सामान्यतः तीन सिद्धांतों को मान्यता प्राप्त है-

1. दोषिता का आधार- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में आरंभ में इस सिद्धांत को माना गया था।

2. विवाह भंग का आधार- अधिनियम में 1964 के संशोधन द्वारा इस सिद्धांत को माना गया।

3. पारस्परिक अनुमति का आधार- 1976 के संशोधन द्वारा इस सिद्धांत को मान्यता दिया गया।

वर्तमान में उपर्युक्त सभी सिद्धांत हिन्दू विवाह अधिनियम में मान्यता प्राप्त हैं।

विवाह-विच्छेद के लिए निम्नलिखित आधार वर्तमान में पक्षकारों को प्राप्त हैं-

अभित्यजन (Desertion)

अभित्यजन का सामान्य अर्थ है विवाह के एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार की सहमति के बिना और किसी युक्तियुक्त कारण के बिना वैवाहिक दायित्वों से स्वयं को अलग कर लेना। यह केवल स्थान का परित्याग नहीं बल्कि एक स्थिति का अभित्याग है जिसमें अभित्यजन का आशय भी होता है। इसलिए वास्तविक अभित्यजन आन्वयिक अभित्यजन से भिन्न हो सकता है अर्थात् प्रकट रूप से अभित्यजन के लिए दोषी कोई पक्ष हो लेकिन वास्तव में दूसरे पक्ष ने अभित्यजन किया हो। अभित्यजन तथ्य का विषय है जो प्रत्येक मामले की विशेष स्थिति पर निर्भर करता है।

अभित्यजन का तथ्य गठित करने के लिए निम्न तत्वों की उपस्थिति अनिवार्य है-

1. अभित्यजन का तथ्य– अभित्यजन के तथ्य का अर्थ एक स्थानमात्र अर्थात् वैवाहिक घर को छोड़ना ही नहीं है बल्कि वैवाहिक स्थिति से स्वयं को अलग करना है। एक ही स्थान पर रहने के बाद भी अगर पति और पत्नी अनजाने की तरह रहते हैं और उनके बीच सामान्य दाम्पत्य संबंध नहीं है तो यह स्थिति भी अभित्यजन ही कहलाएगा यद्यपि किसी पक्ष ने वैवाहिक घर का अभित्याग नहीं किया लेकिन वैवाहिक स्थिति से स्वयं को अलग कर लिया है। सावित्री पाण्डे बनाम प्रेमचन्द्र पाण्डे (2002, सु. को. 591) मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दुहराया कि अभित्यजन का तात्पर्य वैवाहिक बाध्यताओं को त्यागना है, न कि एक स्थान का त्यागना।

अभित्यजन के दो रूप है- पहला, वास्तविक अभित्यजन अर्थात् अगर कोई पक्षकार सोचता है कि वह घर छोड़ कर चला जाएगा पर वह वास्तव में जाता नहीं है तो वह अभित्यजन को दोषी नहीं होगा। दूसरा, आन्वयिक (constructive) अभित्यजन अर्थात् कई बार प्रकट रूप से जो पक्षकार अभित्यजन करता है वास्तव में दूसरा पक्ष उसे ऐसा करने के लिए विवश करता है या उसे साहचर्य स्थापित करने से रोकता है। ऐसी स्थिति में आन्वयिक अभित्यजन वास्तवित अभित्यजन से भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए अगर पति पत्नी से कहे कि उन दोनों के बीच सबकुछ समाप्त हो गया, कोई संबंध नहीं रहे हैं, वे आपस में न मिलेंगे, न बातचीत करेंगे, वे केवल प्रातःकाल का नाश्ता साथ करेंगे, परन्तु तब तक नहीं बोलेंगे जब तक कि अपत्यों के संबंध में कोई बात करना आवश्यक नहीं हो। इस स्थिति में पत्नी के लिए दो ही रास्ते हैं, या तो वह इस अपमानजनक और वेदनापूर्ण स्थिति को सहन न कर सकने के कारण पति का छोड़ कर कहीं अन्यत्र चला जाए या अपत्यों के हित में या इसलिए कि उसे जाने के लिए कोई स्थान नहीं हो और उसी स्थिति में वहीं रहे, इन दोनों स्थितियों में पति ही अभित्यजन के लिए दोषी होगा। इसी तरह अगर पति की प्रताड़ना से पत्नी वैवाहिक घर छोड़ने के लिए विवश हो जाए तो यद्यपि प्रकट रूप से पत्नी ने घर छोड़ा है लेकिन वास्तव में पति अभित्यजन के लिए दोषी है।

2. अभित्यजन का आशय– अभित्यजन के लिए आशय की उपस्थिति अनिवार्य है। अगर कोई पक्षकार किसी कार्यवश या मजबूरीवश वैवाहिक घर से दूर रहे, जैसे नौकरी या अध्ययन के लिए, लेकिन उसका आशय स्थायी रूप से वैवाहिक घर का त्याग करना नहीं हो, तो वह अभित्यजन नहीं होगा। लेकिन अगर कोई पत्नी इस संभ्रम में घर छोड़े कि उसके साथ रहने से पति की मृत्यु हो जाएगी तो वह अभित्यजन की दोषी है। (मेरी विरूद्ध मेरी, 1963, 3 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्टस 766) अर्थात् आशय अच्छा या बुरा करने का नहीं बल्कि स्थायी रूप से वैवाहिक स्थिति से अपने को हमेशा के लिए अलग कर लेने का होना चाहिए। गुरूबचन कौर बनाम प्रीतम सिंह (1998, इलाहाबाद, 140) में न्यायालय ने माना कि सम्मति से अभित्यजन जैसी कोई चीज नहीं होती और अभित्यजन के लिए एक पक्षकार का दोषी होना अनिवार्य है।

3. अभित्यजन के लिए किसी युक्तियुक्त कारण का न होना- अभित्यजन के लिए एक अनिवार्य तत्व है कि याचिकाकर्ता ने दूसरे पक्ष को अभित्यजन के लिए बाध्य नहीं किया हो अर्थात् कोई युक्तियुक्त कारण नहीं दिया हो। अगर याचिकाकर्ता ने दूसरे पक्ष को अभित्यजन के लिए विवश किया हो तो यद्यपि प्रकट रूप से दूसरे पक्ष ने अभित्यजन किया हो लेकिन याचिकाकर्ता स्वयं आन्वयिक अभित्यजन के लिए दोषी होगा। अभित्यजन करने वाले पक्षकार ने यदि अभित्यजन किसी औचित्यपूर्ण कारण से किया है तो वह अभित्यजन का दोषी नहीं होगा।

4. अभित्यजन याचिकाकर्त्ता की सम्मति का न होना- अगर अभित्यजन दूसरे पक्ष की सहमति से या दूसरे पक्ष से समझौते के तहत किया गया हो तो वह अभित्यजन नहीं होगा। यह सम्मति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकता है। यह सम्मति उस समय दी जा सकती है जिस समय दूसरे पक्ष ने घर छोड़ा हो या उसके बाद भी दी जा सकती है। बिपिनचन्द्र बनाम प्रभा मामले में पति ने अपनी सम्मति बाद में दी जब कि उसने तार द्वारा पत्नी के पिता को सूचित किया कि वह पत्नी को नहीं भेजे।

5. अभित्यजन को दो वर्ष की कालावधि का पूर्ण होना- अभित्यजन के आधार पर अनुतोष की माँग न्यायालय से कम से कम दो वर्ष की वैधानिक अवधि पूर्ण होने के बाद ही की जा सकती है। धारा 13 (1) (i- क) अभित्यजन का अपराध अन्य वैवाहिक अपराधों से इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ अन्य अपराध उस विशेष कृत्य के पूर्ण होते ही पूर्ण हो जाता है वहीं इसके लिए दो वर्ष की अवधि पूर्ण होने तक प्रतीक्षा करना होता है। उदाहरण के लिए, जारकर्म का अपराध पति या पत्नी के किसी अन्य व्यक्ति से संभोग करते ही पूर्ण हो जाता है। क्रूरता का अपराध क्रूर कृत्य के करते ही पूर्ण हो जाता है। लेकिन अभित्यजन एक ऐसा अपराध है जो वैधानिक कालावधि की समाप्ति पर भी पूर्ण नहीं होता है बल्कि अभित्यजन करने वाला पक्ष पुनः दाम्पत्य संबंध स्थापित कर इसे समाप्त कर सकता है।

उपर्युक्त पाँचों तत्व के रहने पर ही कोई पक्ष अभित्यजन का दोषी हो सकता है और दूसरा पक्ष इस आधार पर अनुतोष की माँग कर सकता है।

अभित्यजन का अपराध गठित करने के लिए इन पाँचों तत्वों की उपस्थिति को साबित करने का भार याचिकादाता पर है। पहले यह माना जाता था कि याचिककर्ता को दूसरे पक्ष द्वारा अभित्यजन का तथ्य औचित्यपूर्ण सम्भावना के परे सिद्ध करना होगा पर दास्ताने बनाम दास्ताने केस के बाद अब यह मान्य मत है कि औचित्यपूर्ण सम्भावना के अधार पर भी अभित्यजन सिद्ध किया जा सकता है।

क्रूरता (cruelty)

हिन्दू विवाह अधिनियम में “क्रूरता” को यद्यपि विवाह-विच्छेद और न्यायिक पृथक्करण का आधार माना गया है लेकिन इसे परिभाषित नहीं किया गया है। सामान्यतः जानबूझकर किया गया कार्य जिससे दूसरे पक्ष के जीवन, अंग या स्वस्थ्य को शारीरिक या मानसिक रूप से खतरा हो या खतरा का युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो, क्रूरता की संज्ञा में आता है। क्रूरता मानसिक और शारीरिक दोनों तरह की हो सकती है। शारीरिक क्रूरता को तो देखा या जाँचा जा सकता है लेकिन मानसिक क्रूरता को निर्धारित करना कठिन है। इसे प्रत्येक मामले के विशेष तथ्यों के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

क्रूरता के तथ्य में वास्तव में कारित कार्य के साथ खतरे की युक्तियुक्त आशंका भी शामिल है। विवाहित जीवन के सामान्य कटु-मधु अनुभवों को क्रूरता नहीं माना जा सकता और न ही यह व्यक्ति विशेष की संवेदनशीलता पर निर्भर करता है बल्कि ऐसा कुछ ठोस आधार हो जिससे एक सामान्य व्यक्ति को युक्तियुक्त रूप से यह अनुभव हो कि दोषी पक्ष के साथ रहने से उसे खतरा है तभी वह क्रूरता की परिभाषा में आएगा।

क्रूरता कार्य से प्रकट होनी चाहिए इसके लिए आशय या स्वेच्छा का होना आवश्यक नहीं है। भागवत विरूद्ध भागवत (1967 बम्बई 80) मामले में पति ने विकृतचित्तता की स्थिति में पत्नी का और उसके भाई का गला घोंटनें का प्रयास किया था। अपने बचाव में पति का तर्क था कि उसने विकृतचित्तता की स्थिति में यह किया था उसका आशय पत्नी को तंग करने का नहीं था इसलिए उसे क्रूरता के लिए दोषी नहीं माना जा सकता है। इस तर्क को अस्वीकार करते हुए न्यायधीश श्री नायक ने कहा कि पति का आचरण ऐसा है कि स्वेच्छा के अभाव में भी वह क्रूरता की संज्ञा में आता है। सियाल बनाम सरला (1961 पंजाब 125) में पत्नी ने पति का प्रेम पाने के लिए एक फकीर की सलाह पर पति को कोई भभूत खिलाया जिससे उसकी तबीयत बिगड़ गई। पति का तर्क था कि पत्नी के इस कार्य से उसे पत्नी के साथ रहते हुए जान पर खतरे की आशंका है। दूसरी तरफ पत्नी का तर्क था कि वह पति को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती थी उसने यह सब पति का प्रेम पाने के लिए किया था। लेकिन न्यायालय ने पति की आशंका को युक्तियुक्त मानते हुए न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर दिया। न्यायालय ने माना कि पीड़ित पक्ष को खतरे की आशंका का युक्तियुक्त होना महत्वपूर्ण है न कि दोषी पक्ष का आशय।

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इसी तरह क्रूरता के अपराध के लिए यह आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का कार्य पीड़ित पति या पत्नी के साथ ही की जाय बल्कि यह किसी अन्य के साथ भी हो सकता है। कूपर बनाम कूपर (1954 2 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट्स 415) मामले में पति द्वारा अपनी सौतेली पुत्री के साथ व्यभिचार का प्रयत्न पत्नी के प्रति क्रूरता माना गया। न्यायालय ने पति का यह तर्क खारिज कर दिया कि उसका आशय पत्नी को दुख पहुँचाने का नहीं था। लेकिन यदि अन्य व्यक्तियों के प्रति किए गए कृत्य यदि याचिकाकर्ता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करते, तो उसे वैवाहिक अनुतोष के उद्देश्य के लिए क्रूरता नहीं माना जा सकता है जैसे, दोषी पक्ष का मदिरापान करना, जुआ खेलना, लैगिक या कोई अन्य अपराध करना इत्यादि ऐसे अपराध हैं जो याचिकाकर्ता को अप्रत्यक्ष रूप से भले ही प्रभावित करे पर यह वैवाहिक क्रूरता की संज्ञा में नहीं आएगा।

स्थापित अंग्रजी विधि के अनुसार क्रूरता का कृत्य स्वयं दोषी पक्ष द्वारा या उसके आदेश पर किया जाना चाहिए लेकिन भारत में संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में भारतीय विधि में कुछ परिवर्तन किया गया है। श्यामसुन्दर बनाम शान्ती देवी (1962 उड़ीसा 50) मामले में पति के परिवार वाले कम दहेज के लिए पत्नी को प्रताड़ित करते थे। पति ने न तो पत्नी को प्रताड़ित किया और न ही अपने परिवार वालों की प्रताड़ना से उसे बचाने के लिए प्रयास किया। न्यायालय ने कहा कि पत्नी को परिवार के सदस्यों के आचरण से बचाने के लिए कोई प्रयत्न न करना पति का कर्तव्यच्युत होना है, अतः यह आचरण अपनेआप में क्रूरता जैसा है।

विभिन्न न्यायिक निर्णयों में न्यायालय ने पति या पत्नी के चरित्र पर झूठा लांछन लगाना (सप्तमी विरूद्ध जगदीश), दूसरे पक्षकार के जीवन में अनौचित्यपूर्ण और अनाधिकार हस्तक्षेप करनाए बुरा बर्ताव करना, अस्वभाविक रूप से संभोग करनाए शीलभ्रष्टा का झूठा आरोप लगाना (सिंद्दगंगामा विरूद्ध लक्ष्मण), पति द्वारा पत्नी को जारकर्म के लिए विवश करना, (डान विरूद्ध हेन्डीसन, 1970 मद्रास 104), बिना किसी औचित्यपूर्ण करण के दामपत्य संभोग से इंकार करना (ज्योतिष विरूद्ध मीरा, 1970 कलकत्ता 266), नपुंसकता (रीता निझावन विरूद्ध बालकृष्ण, 1973 दिल्ली 200) नपुंसकता का झूठा लांछन (1979 एम एल आर 352), किसी अन्य स्त्री या पुरूष से अनुचित संबंध (ललिता विरूद्ध राधामोहन 1976 राजस्थान 6), इत्यादि को भी क्रूरता माना है।

क्रूरता के आरोप में प्रतिरक्षा के लिए अभी तक भारतीय निर्णय उपलब्ध नहीं है। यद्यपि प्रकोपन और आत्मरक्षा क्रूरता की अच्छी प्रतिरक्षा है। पहले अंग्रेजी विधि में विकृतचित्तता को प्रतिरक्षा माना जाता था पर अब ऐसा नहीं है। भारतीय विधि में भी विकृतचित्तता इसकी प्रतिरक्षा नहीं है।

जारता (Adultery)

वैवाहिक विधि में जारता का तात्पर्य एक विवाहित व्यक्ति द्वारा विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ, जो कि उसका पति या पत्नी नहीं है, से विवाह के अस्तित्व में रहते हुए स्वेच्छा से संभोग करना है।

जारता यद्यपि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 497 के तहत दाण्डिक अपराध भी है लेकिन वैवाहिक विधि में जारता का अर्थ और परिणाम दाण्डिक विधि से भिन्न होता है।

 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 497हिन्दू विवाह अधिनियम
1जारकर्म का दोषी केवल पुरूष हो सकता है, स्त्री नहीपति या पत्नी दोनों ही दूसरे पक्ष के जारकर्म के आधार पर वैवाहिक अनुतोष के लिए याचिका प्रेषित कर सकते हैं।
2जारकर्म करने वाले व्यक्ति के लिए यह जानना या विश्वास होने का कारण होना चाहिए कि वह स्त्री किसी अन्य पुरूष की पत्नी है।  उप-प्रतिपक्षी के लिए ऐसा कोई ज्ञान या विश्वास होना आवश्यक नहीं है।
3दाण्डिक कार्यवाही केवल जारकर्म करने वाले पुरूष पर की जाती है जार स्त्री पर नहीं।इसमें कार्यवाही जारकर्म करने वाले पर की जाती है। पर जार का नाम अगर ज्ञात हो तो उसे भी उप-प्रतिपक्षी  (co-respondent) बनाया जा सकता है।

प्रतिपक्षी द्वारा जारकर्म के आधार पर वैवाहिक अनुतोष के लिए निम्नलिखित तत्व अनिवार्य रूप से उपस्थित होना चाहिए-

1. उस समय विवाह अस्तित्व में हो;

2. जारकर्म के लिए सहमति हो और यह सहमति स्वैच्छिक रूप से दिया गया हो। औषधि के प्रभाववश या बेहोशी की हालत में दी गई सहमति वास्तविक सहमति नहीं है। अगर पत्नी ने इस विश्वास से सहमति दिया हो कि वह व्यक्ति उसका पति है जबकि जारकर्म करने वाला व्यक्ति जानता हो कि वह उसका पति नहीं है तो ऐसी स्थिति में जार या उप-पक्षकार तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 497 के तहत जारकर्म और धारा 375 के तहत बलात्संग के लिए दोषी होगा लेकिन वह स्त्री जारकर्म के वैवाहिक अपराध के लिए दोषी नहीं होगी।

3. विपरीत लिंग के ऐसे व्यक्ति के साथ किया गया हो, जो कि उसका पति या पत्नी नहीं हो;

जारकर्म को सिद्ध करने का भार याचिकाकर्ता पर होता है। उसे जारकर्म का तथ्य “संशय से परे” सिद्ध करना चाहिए, लेकिन न्यायालय ने भारतीय परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए संशय से परे शब्द का कठोर अर्थान्वयन नही किया है। मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा कि इस देश के नैतिक स्तर और सामाजिक मानदण्ड के अनुसार यदि कोई पुरूष किसी विवाहिता स्त्री के साथ अर्द्धरात्रि में उसके शयनकक्ष में उसके साथ अपत्तिजनक स्थिति में पाया जाय और इसका कोई स्पष्टीकरण न हो तो उससे न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि दोनों मैथुन में रत थे यद्यपि यहाँ मैथुन का कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। एक अन्य मामले में पत्नी कई दिनों तक घर से गायब रही और उसे कुछ अपरिचित व्यक्तियों के साथ एकांत में देखा गया जिसका कोई स्पष्टीकरण नहीं था। न्यायालय ने जारता का सिद्ध होना माना (त्रिपट विरूद्ध विमला 1956, जम्मू और कश्मीर 72)। पत्नी द्वारा पत्र लिखकर जारकर्म की स्वीकृति को भी न्यायालय ने पर्याप्त सबूत माना (दास विरूद्ध दास, 1992 म. प. 20)। लेकिन पति द्वारा नसबन्दी के बावजूद पत्नी का गर्भवती होना जारता का सबूत नहीं माना गया (चिरूघा विरूद्ध सुब्रमण्यम 1987 केरल 5)। इस तरह भारतीय न्यायालयों ने जारता साबित करने के लिए “संशय से परे” शब्द को बहुत कठोरता से लागू नहीं किया है इसका कारण यह है कि यह ऐसा कृत्य है जिसका प्रत्यक्ष साक्ष्य मिलना लगभग असंभव होता है। इसलिए अगर जारकर्म का कोई प्रत्यक्ष सबूत न हो तो भी परिस्थितियाँ ऐसी हो जिससे अबाध्य रूप से यही निष्कर्ष निकलता हो कि प्रतिपक्षी जारकर्म में रत रहा हो तो जारकर्म का सिद्ध होना माना जा सकता है।

उन्मत्तता या मानसिक विकार

उन्तत्तता या मानसिक विकृति यद्यपि विवाह-विच्छेद एवं न्यायिक पृथक्करण का आधार है लेकिन इन धाराओं के अर्थ में उन्मत्तता का अर्थ ऐसी मानसिक विकृति से है जिसमें प्रतिपक्षी विवाह और संतानोत्पति को समझने में सक्षम न हो या उसके साथ रहने से याचिकाकर्ता के जीवन या स्वास्थ्य को युक्तियुक्त रूप से खतरा हो। अगर प्रतिपक्षी को किसी न्यायालय ने उन्मत्त या विकृतचित्त घोषित किया हो लेकिन उसमें उपर्युक्त अक्षमता न हो तो वह वैवाहिक अनुतोष के लिए उन्मत्त नहीं माना जाएगा। मस्तिष्क की दुर्बलता या बुद्धि की कमी, अवसाद या तनाव, उदासी इत्यादि उन्मत्तता की संज्ञा में नहीं आते है लेकिन मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का संरोध या अपूर्ण मानसिक विकास, विखंडित मनस्कता इत्यादि को इसमें शामिल माना जा सकता है यदि उससे प्रतिपक्षी में उपर्युक्त अक्षमता हो।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (iii) में 1976 में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया है कि विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण के लिए यह सिद्ध करना होगा कि दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृतचित्त रहा है, या लगातार या आंतरिक रूप से इस प्रकार के और इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि याचिकाकर्ता से युक्तियुक्त रूप से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह उसके साथ रहे। ऐसी उन्मत्तता या मानसिक विकार का विवाह पूर्व से उपस्थित रहना इस धारा के तहत आवश्यक नहीं है।

कुष्ठ रोग (Leprosy)

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (iv) में 1976 में संशोधन कर यह आवश्यक कर दिया गया है कुष्ठ रोग उग्र और असाध्य हो। सामान्य या उपचार योग्य होने पर यह तलाक या न्यायिक पृथक्करण का आधार नहीं हो सकता। रोग तब उग्र माना जाता है जब छाले उभर आएए अंग गलने लगे और सामाजिक सहवास लगभग असंभव हो जाए। पर इसके लिए अब कोई कालावधि निर्धारित नहीं की गई है।

रतिज रोग (Veneral Diseases)

रतिज रोग के आधार पर तलाक या न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि रोग संचारी हो। रोग का उपचार योग्य होना, अकारण लगना और प्रत्यर्थी का इसके लिए दोषी नहीं होना कोई प्रतिरक्षा नहीं है। पर जन्मजात गर्मी का रोग रतिज रोग में नहीं आता है।

1955 के मूल अधिनियम में रतिज रोग अगर तीन वर्ष पुराना हो तभी वैवाहिक अनुतोष का आधार बन सकता था लेकिन 1976 के संशोधन के द्वारा यह समयसीमा अब हटा दिया गया है। इस संशोधन द्वारा एक और परिवर्तन यह लाया गया कि पहले न्यायिक पृथक्करण के लिए यह अनिवार्य था कि याचिकाकर्ता यह सिद्ध करे कि प्रत्यर्थी को रोग उससे नहीं लगा है लेकिन तलाक के लिए यह शर्त नहीं थी। संशोधन द्वारा यह शर्त भी अब हटा दिया गया है। लेकिन इससे परिस्थिति में कोई मूल अंतर नहीं आया है क्योंकि धारा 23 (1) (क) के तहत याचिकाकर्ता के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि अनुतोष प्राप्त करने के लिए वह अपने किसी दोष का लाभ नहीं ले रहा है।

उच्चतम न्यायालय ने एच.आइ.वी पॉजीटिव को रतिज रोग माना और इसके आधार पर विवाह करने से उसे रोका जा सकता है क्योंकि उसे किसी अन्य व्यक्ति को रोगी बनाने का अधिकार नहीं है (मि. एक्स बनाम हॉस्पिटल वाई, 1999 सु. को. 495) ।

संपरिवर्तन (Conversion)

अधिनियम की धारा 13 (1) (ii) के अनुसार कोई हिन्दू तलाक या न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका प्रेषित कर सकता है यदि उसका पति या पत्नी-

1. हिन्दू नहीं रहा है, और

2. अन्य किसी धर्म में संपरिवर्तित हो गया है।

इस धारा के लिए “हिन्दू नहीं रहने” का तात्पर्य हिन्दू रीति-रिवाजों को नहीं मानने, देवी-देवताओं को नहीं मानने, हिन्दू विश्वास और धर्म को छोड़ने की घोषण या हिन्दू धर्म की निन्दा करने से नहीं है अपितु उसे औपचारिक रूप से संपरिवर्तित होना चाहिए।

धारा 5 के तहत जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म हिन्दू धर्म के अन्तर्गत माना जाएगा। इसलिए संपरिवर्तन के आधार पर वैवाहिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है कि प्रत्यर्थी इन धर्मों के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म में संपरिवर्तित हो। नए धर्म के प्रति उसकी आस्था और उसके रीति-रिवाजों एवं कर्मकाण्डों का पालन करना या न करना यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण केवल यह है कि वह उसने संपरिवर्तन के लिए निर्धारित अनुष्ठान संपन्न किया हो।

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प्रवज्या ग्रहण करना (Renunciation of World)

संन्यास या प्रवज्या ग्रहण करना हिन्दू धर्म में मान्य तथ्य है यहाँ तक कि हिन्दू आश्रम व्यवस्था में संन्यास को अंतिम आश्रम के रूप में सम्मानीय स्थान दिया गया है। लेकिन संन्यास या प्रवज्या का अर्थ माना जाता है सांसारिक रूप से मृत्यु। प्रवज्या ग्रहण करने के बाद व्यक्ति संसार के सभी संबधों को, यहाँ तक कि अपना नाम भी छोड़ देता है। इस तरह धार्मिक रूप से सही होने पर भी यह व्यवहारिक रूप से अभित्यजन का ही एक रूप हो जाता है। लेकिन अधिनियम में इसे अभित्यजन का नाम नहीं दिया गया है क्योंकि अभित्यजन करने वाले पक्ष के वापस आने की संभावना हो सकती है पर प्रवज्या ग्रहण करने वाले पक्ष के लिए नहीं। अतः नए और पुराने हिन्दू विधि में सामंजस्य करते हुए प्रवज्या को तलाक का आधार बनाया गया है। यह वैवाहिक अनुतोष के लिए पूर्णतः भारतीय आधार है।

प्रवज्या ग्रहण करने के तथ्य के लिए यह अनिवार्य है कि इसके लिए निर्धारित धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किया गया हो। पुजारी, ग्रन्थी या महन्त बनना अथवा किसी गुरू का शिष्य बनना प्रवज्या ग्रहण करना नहीं होगा यदि इसके बाद भी सांसारिक जीवन का पूर्णतः त्याग नहीं किया गया हो। इसके विपरीत अगर कोई सामाजिक जीवन त्याग कर एकांत जीवन अपना ले लेकिन आनुष्ठानिक रूप से प्रवज्या ग्रहण न करे तो वह प्रवज्या नहीं माना जा सकता है और इस आधार पर दूसरे पक्ष को वैवाहिक अनुतोष नहीं मिल सकता है। परए ऐसे व्यक्ति को अभित्यजन या क्रूरता का दोषी माना जा सकता है।

मृत्यु की उपधारणा (Presumption of death)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 में मृत्यु की उपधारणा का प्रावधान है जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति के विषय में सात वर्ष या अधिक से उन व्यक्तियों द्वारा कुछ न सुना गया हो जिनको सामान्यतः उसके जीवित होने के विषय में सुनना चाहिए तो, तो उसे मृत माना जाएगा। लेकिन वैवाहिक विधि में यह कठिनाई है कि अगर सात वर्ष बाद भी कोर्इ्र स्त्री या पुरूष अपने पति या पत्नी को मृत मान कर दूसरा विवाह कर ले और उसके बाद उसका पति या पत्नी वापस आ जाए तो ऐसी स्थिति में वह द्विविवाह का दोषी होगा या होगी क्योंकि उनका विवाह अभी भी अस्तित्व में है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए ही धारा 13 (1) (vii) में मृत्यु की उपधारणा के आधार पर तलाक का उपबन्ध किया गया है।

मूल रूप से हिन्दू विवाह अधिनियमए 1955 में पत्नी को तलाक के लिए दो विशेष आधार प्राप्त थे। 1976 में संशोधन द्वारा इसमें दो विशेष आधार और जोड़ दिए गए। इस तरह वर्तमान में हिन्दू पत्नी को तलाक के लिए चार विशेष आधार प्राप्त है जो कि हिन्दू पति को प्राप्त नहीं हैं। ये विशेष आधार निम्नलिखित हैं-

अधिनियम के पूर्व का बहुपत्नी विवाह

अधिनियम में इसके लागू होने के पूर्व हुए बहुपत्नी विवाह को मान्यता दिया गया है लेकिन अधिनियम मे शामिल एकविवाह के सिद्धांत के अनुरूप पूर्व बहुविवाह की पत्नी को यह भी अधिकार दिया गया कि अगर वह चाहे तो इस आधार पर तलाक ले सकती है। [धारा 2 (i)]

इस धारा के तहत याचिका प्रेषित होने पर पति यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता है कि पत्नी किसी विधिक अयोग्यता से ग्रसित है क्योंकि यह अधिनियम के नीति को कार्यरूप देने का प्रयास है। 

लेकिन पत्नी द्वारा इस धारा के तहत याचिका प्रेषित करने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-

1. पति ने यह विवाह अधिनियम के लागू होने से पूर्व किया हो;

2.  ऐसे दोनों विवाह विधिमान्य हो;

3. याचिका प्रषित करने समय दूसरी पत्नी भी जीवित हो;

4. इस धारा के तहत दोनों पत्नी को यह अधिकार है कि वे तलाक के लिए याचिका प्रेषित करे लेकिन अगर किसी एक पत्नी के पक्ष में यह डिक्री पारित हो जाए तो दूसरी पत्नी को यह डिक्री नहीं मिल सकेगी क्योंकि तब दूसरा विवाह अस्तित्व में नहीं रहेगा।

पति का बलात्कार या अप्राकृतिक अपराध का दोषी होना

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 बलात्कार को और 377 अप्राकृतिक अपराध को परिभाषित करते हैं और ये दोनों दण्डनीय अपराध हैं। इन आधारों पर पत्नी वैवाहिक अनुतोष की माँग कर सकती है लेकिन पति ऐसी माँग नहीं कर सकता है।

न्यायालय द्वारा पति को धारा 375 या 377 के तहत दोषी ठहराए जाने मात्र से पत्नी तलाक पाने की हकदार नहीं हो जाती है अपितु उसे वैवाहिक कार्यवाही में स्वतंत्र साक्ष्य द्वारा पति का अपराध सिद्ध करना होता है।

पति अपनी वयस्क पत्नी से बलात्कार का दोषी नहीं हो सकता है लेकिन वह पत्नी के साथ अप्राकृति अपराध का दोषी हो सकता है।

भरण-पोषण की डिक्री या आदेश के बावजूद साहचर्य का पुनःस्थापन नहीं होना

दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम की धारा 18 (2) के तहत अथवा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अगर इस तथ्य के रहते हुए पत्नी के पक्ष में डिक्री या आदेश पारित हुआ हो कि पत्नी पति से पृथक् रह रही हो और इस आदेश के एक वर्ष या उससे अधिक समय तक दोनों में दाम्पत्य साहचर्य पुनः स्थापित नहीं हो पाया हो, तो पत्नी इस आधार पर तलाक या न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए न्यायालय में याचिका प्रेषित कर सकती है।

1976 के संशोधन द्वारा शामिल यह आधार केवल पत्नी को ही प्राप्त है पति को नहीं। केवल पत्नी को यह आधार देकर संसद ने दोषिता सिद्धांत को मान्यता दिया है न कि असमाधेय विवाह भंग को क्योंकि उस स्थिति में पति और पत्नी दोनों को यह अधिकार मिलता।

विवाह का निराकरण या यौवन का विकल्प (Repudiation of marriage or option of puberty)

अगर विवाह के समय पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम थी और 15 वर्ष की आयु के बाद या 18 वर्ष की आयु से पूर्व पत्नी विवाह का निराकरण कर दे, तो पत्नी इस आधार पर तलाक के लिए याचिका प्रेषित कर सकती है। [13 (2) (ii)]   

इस धारा के तहत अनुतोष प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि-

1. विवाह के समय पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम हो;

2. 15 वर्ष की आयु पूरा करने के बाद और 18 वर्ष की आयु से पहले उसने विवाह का निराकरण कर दिया हो;

इस धारा के तहत पत्नी द्वारा विवाह का निराकरण 18 वर्ष से पूर्व कर दिया जाना चाहिए पर याचिका 18 वर्ष की उम्र के बाद भी प्रेषित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत विवाहोत्तर संभोग होना या न होना महत्वपूर्ण नहीं है और मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 2 (ii) से इसी अर्थ में यह भिन्न है क्योंकि मुस्लिम पत्नी इस धारा के तहत तभी तलाक की माँग कर सकती है जबकि विवाहोत्तर संभोग द्वारा विवाह को संसिद्ध नहीं किया जा सका हो।

इस प्रावधान का उद्देश्य भारतीय समाज मे व्याप्त बालविवाह की कुप्रथा का निराकरण करना है। विवाहोत्तर संभोग को महत्व नहीं देने का कारण यह है कि कभी-कभी बहुत कम उम्र में विवाह कर दिया जाता है और विवाह की संसिद्धि उस बालिका की मर्जी पर निर्भर नहीं करता है।

धारा 9 और धारा 10 के तहत डिक्री पारित होने के एक वर्ष या अधिक समय तक दाम्पत्य संबंधों का प्रत्यास्थापन न हो पाना

1964 में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन कर इस आधार को जोड़ा गया और इसके लिए धारा 13 में उपधारा (1) (i क) शामिल किया गया।

यह प्रावधान असमाधेय विवाह भंग के सिद्धांत पर आधारित है।

धारा 13 (1) (i क) के तहत पति या पत्नी दोनों में से कोई भी इस आधार पर याचिका प्रेषित कर सकता है भले ही उनका विवाह इस अधिनियम के लागू होने से पहले हुआ हो या बाद में।

इस उपधारा के तहत के तहत तलाक या न्यायिक पृथक्करण के अनुतोष के लिए याचिका दायर करने के लिए केवल तीन शर्तें हैं-

1. न्यायालय ने धारा 9 के अन्तर्गत दाम्पत्य संबंधों के प्रत्यास्थापन के लिए या धारा 10 के अन्तर्गत न्यायिक पृथक्करण के लिए डिक्री पारित किया हो;

2. ऐसी डिक्री पारित हुए एक वर्ष या अधिक समय बीत चुका हो; और

3. दोनों के बीच दाम्पत्य संबंधों की प्रत्यास्थापन नहीं हो पाया हो।  

इन तीनों के अतिरिक्त अन्य कोई आधार जो कि समाधेय विवाह-भंग को इंगित करता हो; जैसे, पति द्वारा दूसरा विवाह कर लेना, इस धारा के अधीन अनुतोष का आधार नहीं है।

1964 के संशोधन मे अनुसार यह अवधि दो वर्ष निर्धारित की गई थी लेकिन 1976 के संशोधन द्वारा इसे घटाकर अब एक वर्ष कर दिया गया। इस समयसीमा की गणना विचारण न्यायालय द्वारा डिक्री पारित करने की तिथि से आरंभ होता है, अपील पर निर्णय की तिथि से नहीं।

1976 के संशोधन से दूसरा जो महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया है वह है इस आधार पर याचिका प्रेषित करने का अधिकार उस पक्ष को भी मिल गया है जिसके विरूद्ध डिक्री पारित हुआ था। इस प्रावधान से धारा 13 (1) (i क) और धारा 23 (1) (क) के बीच के संबंध के विषय में कुछ कठिनाईयाँ उत्पन्न हुआ क्योंकि धारा 13 (1) (i क) से दोषी पक्ष को भी इस आधार पर अनुतोष लेने का अधिकार मिल जाएगा जबकि धारा  23 (1) (क) के अनुसार किसी पक्ष को उसके दोषों का लाभ लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। न्यायालयों के समक्ष इस तरह की समस्या कई मामलों में आया। धर्मेंन्द्र बनाम ऊषा मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि याचिकाकर्ता ने दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन की डिक्री को लागू करने में अवबाधा नहीं डाला है तो उसके पक्ष में डिक्री दी जा सकती है। मधुकर बनाम सरला (1973 बम्बई 55) में बम्बई हाई कोर्ट ने माना कि 13 (1) (i क) के अन्तर्गत किसी पक्ष को डिक्री देने से तभी न्यायालय इंकार कर सकता है जबकि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित होने के बाद वह किसी दोष का दोषी हो। जेठाभाई बनाम मनबाई (1975 ब. 881) तथा कुछ अन्य मामलों में न्यायालय ने मत दिया कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद दोनों पक्षकारों के लिए आवश्यक नहीं है कि वे दाम्पत्य संबंधों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयत्न करे। पर उच्चतम न्यायालय ने दोनों धाराओं में सामंजस्य का दृष्टिकोण अपनाया है।

पारस्परिक सम्मति द्वारा विवाह-विच्छेद

हिन्दू विवाह अधिनियम में 1976 के संशोधन द्वारा पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद का उपबंध करने के लिए एक नई उपधारा 13 (ख) शामिल किया गया। इस उपबंध के लिए सिद्धांत यह है कि अगर दोनों पक्ष साथ रहने के लिए तैयार नहीं है और अलग रहना चाहतें है तो इसका अर्थ है वह विवाह वास्तव में भंग हो चुका है और ऐसे विवाह के बंधन में दोनों पक्षों को जबरदस्ती या इस कारण से रखना कि उनके पास तलाक का कोई आधार नहीं है, उनके साथ क्रूरता होगी और इससे कोई सामाजिक उद्देश्य भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए ऐसे युगल को तलाक की डिक्री मिल जानी चाहिए।

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उप धारा 13 (ख) के तहत पारस्परिक सम्मति से तलाक के लिए निम्नलिखित शर्तें का पूरा होना आवश्यक है-

1. पति और पत्नी एक वर्ष या इससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हों। अलग रहने का तात्पर्य अलग स्थान पर रहने से नहीं बल्कि पति-पत्नी की तरह नहीं रहने से है (सोमेष्ठा बनाम ओमप्रकाश 1992 सु. को. 2170),

2. वे साथ-साथ रहने में असमर्थ हैं अर्थात् विवाह असमाधेय रूप से भंग हो चुका है,

3. उन्होंने पारस्पर सम्मति द्वारा तलाक लेना स्वीकार किया है।

धारा 13 (ख) के तहत तलाक की डिक्री के लिए किसी आधार का होना आवश्यक नहीं है और उपर्युक्त तीनों तत्वों की उपस्थिति होने पर न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह तलाक की डिक्री पारित कर दे। लेकिन न्यायालय को डिक्री पारित करने से पहले इन तथ्यों पर संतुष्ट होना चाहिए-

1. दोनों के बीच विधिमान्य विवाह हुआ है;

2. दोनों पक्ष में से तलाक के लिए डिक्री के लिए किसी की सहमति कपट, छल या अनुचित प्रभाव द्वारा नहीं ली गई है;

3. धारा 23 के अधीन कोई अयोग्यता न हो।

धारा 13 (ख) के अधीन पारस्परिक सहमति से तलाक लेने की प्रक्रिया दो चरणों में निर्धारित किया गया है जो 13 (ख) के उपखण्ड (1) और (2) में वर्णित है। पति-पत्नी दोनों संयुक्त रूप से धारा 13 (ख) (1) के तहत पारस्परिक सहमति से तलाक के लिए याचिका दायर करेंगें। जिसे उपर्युक्त शर्तों के अनुरूप होने पर न्यायालय स्वीकार कर लेगा। वे पुनः धारा 13 (ख) (2) के अधीन संयुक्त याचिका दायर करेंगे जिसे उपर्युक्त शर्तों के अनुरूप होने पर न्यायालय स्वीकार करेगी। धारा 13 (ख) (2) (second motion)  के तहत याचिका स्वीकार करने के बाद ही न्यायालय तलाक की अंतिम डिक्री पारित करेगा। इससे पहले विवाह अस्तित्व में रहेगा अर्थात् धारा 13 (ख) (1) की डिक्री पारित होने के बाद अगर कोई पक्ष विवाह करता है तो वह द्विविवाह का दोषी होगा। धारा 13 (ख) (1) (first motion) और धारा 13 (ख) (2) (second motion) के तहत डिक्री पारित होने के बीच न्यूनतम 6 माह और अधिकतम 18 माह का अंतराल होना चाहिए। अगर धारा 13 (ख) (1) के तहत डिक्री पारित हुए 18 माह से ज्यादा हो जाए और धारा 13 (ख) (2) की याचिका प्रेषित नहीं की जा सकी हो तो दोनों को पुनः याचिका प्रेषित करना होगा। एक निर्धारित अवधि देने के पीछे मूल उद्देश्य यह है कि कोई भी पक्ष क्रोध या भावावेश में आकर तलाक का निर्णय न ले ले। यह अवधि उसे अपने निर्णय पर ठण्ढ़े दिमाग से फिर से सोचने का समय देता है।

पारस्परिक सहमति से तलाक के संबंध में एक प्रश्न यह है कि क्या किसी पक्ष को यह अधिकार है कि एक बार सम्मति देने के बाद पुनः वापस ले ले। इस प्रश्न पर न्यायालयों में मतभेद रहा है पर सुरेष्ठा बनाम ओमप्रकाश मामले तथा कुछ अन्य मामलों में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि पक्षकारों को सहमति वापस लेने का अधिकार है। अशोक हुर्रा बनाम रूपा हुर्रा [जे.टी. (1997) (3) सु.को. 483] में पत्नी ने सहमति देने के 18 महिने बाद वापस ले लिया। उच्चतम न्यायालय पति के पक्ष में तलाक की डिक्री पारित कर दिया।

धारा 14 के अनुसार तलाक की याचिका विवाह के कम से कम एक वर्ष बाद ही प्रेषित की जा सकती है। हिन्दू विवाह अधिनियम में मूल रूप से यह अवधि तीन वर्ष की थी पर 1976 के संशोधन द्वारा इसे घटा कर एक वर्ष कर दिया गया। लेकिन अधिनियम में दो आपवादिक परिस्थतियों का भी प्रावधान है जिसके होने पर एक वर्ष से कम के समय में भी वैवाहिक अनुतोष के लिए याचिका प्रेषित की जा सकती है। ये हैं-

1. याचिकाकार द्वारा असाधारण कष्ट भोगा जा रहा हो, और

2. प्रतिपक्षी असाधारण रूप से दुराचारी हो।

एक वर्ष से पहले तलाक की याचिका प्रेषित करने के लिए याचिका के साथ धारा 14 (1) के तहत यह प्रार्थनापत्र देना आवश्यक है जिसमें यह अभिकथित हो कि यह मामला अपवादों में आता है।

हिन्दू विवाह अधिनियम में उपर्युक्त आधारों पर न्यायालय द्वारा डिक्री मिलने के बाद ही तलाक का प्रावधान है। परस्पर समझौते द्वारा भी तलाक नहीं लिया जा सकता है। 13 (ख) के तहत आपसी सहमति से तलाक लेना यद्यपि समझौते का ही रूप है पर इसके लिए अधिनियम में उपबंधित शर्तों को संतुष्ट करना होता है और प्रक्रियाओं का पालन करना होता है। लेकिन अधिनियम में उपबंधित प्रकार के अतिरिक्त अन्य प्रकार का तलाक मान्य नहीं होने के सामान्य नियम के दो अपवाद अधिनियम की धारा 29 में उल्लिखित है। ये दो अपवाद हैं-

1. रूढ़ि के अन्तर्गत होने वाला तलाक- किसी समुदाय विशेष में अगर इस अधिनियम के लागू होने से पूर्व से तलाक का कोई अन्य रूप मान्य हो तो उसे यह अधिनियम भी मान्यता देता है बशर्ते यह रूढ़ि युक्तियुक्त हो और उस विशेष समुदाय में कानून की तरह मान्य हो। चूँकि यह अपनेआप में कानून का अपवाद है इसलिए ऐसे रूढ़ि को अभिवचन (plead) करना और साबित करना अनिवार्य है।

2. विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत होने वाला तलाक- हिन्दू विवाह अधिनियम के लागू होने के पूर्व कुछ रियासतों और राज्यों ने कुछ हिन्दू जातियों और समुदायों के विवाह और तलाक विधि को विनियमित करने के लिए कुछ विधेयक बनाए थे। अधिनियम ने धारा 29 द्वारा इन विशेष अधिनियमों के तहत होने वाले तलाकों को भी मान्यता दिया है।

फैक्टम वैलेट

“फैक्टम वैलेट के सिद्धांत” का आशय होता है किसी घटना या सत्य को सौ प्रमाणिक लेखों द्वारा भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। अर्थात् जब कोई कार्य किया जाता है और उसकी पूर्ति हो जाती है तो भले ही वह कार्य नैतिक धारणाओं के विपरीत क्यों न हो, उसको विधि की दृष्टि से बन्धनकारी माना जाएगा यदि सम्बन्धित ग्रन्थों के पाठ निदेशात्मक हैं। परंतु जहाँ विवाह कपट अथवा बल द्वारा किया गया है वहाँ विवाह शून्य घोषित किया जाएगा और वहाँ यह सिद्धांत अनुवर्तनीय नहीं होगा। फैक्टम वैलेट के सिद्धांत को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 29 (1) में मान्यता दिया गया है। इस धारा के अनुसार “इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व हिन्दुओं में अनुष्ठित ऐसा विवाह जो अन्यथा विधिमान्य हो, केवल इस तथ्य के कारण अविधिमान्य या कभी अविधिमान्य रहा हुआ न समझा जाएगा कि उसके पक्षकार एक ही जोग या प्रवर के थे अथवा विभिन्न धर्मों, जातियों या एक ही जाति की विभिन्न उपजातियों के थे।”

1976 के संशोधन द्वारा धारा 23 में संशोधन कर न्यायालय के लिए कुछ कर्तव्यों का निर्धारण कर दिया गया है। इस धारा के अनुसार अपने सम्मुख किसी वैवाहिक अनुतोष के लिए याचिका प्रस्तुत किए जाने पर, चाहे उस में प्रतिरक्षा की गई हो या न की गई हो, निम्नलिखित बातों के संबंध में अपना समाधान कर लेने के बाद ही न्यायालय कोई डिक्री दे सकेगा, अन्यथा नहीं-

1. अनुतोष अनुदत्त करने के आधारों में से कोई न कोई आधार विद्यमान है और याचिकाकर्ता अपने ही दोषों का लाभ न ले रहा है (या ले रही है) इसका अपवाद धारा 5 के खण्ड (ii) के उपखण्ड क, ख और ग के उल्लंघन के आधार पर विनिर्दिष्ट अनुतोष है।

2 जारकर्म अथवा क्रूरता के आधार पर माँगे गए अनुतोष में कार्यों में किसी प्रकार कोई उपसाधन (सहायता) किया है और उसका मौनानुमोदन या उपमर्षण (condonation) न हो।

3. पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद की याचिका में सहमति प्राप्त करने के लिए बलए कपट या असम्यक् प्रभाव का प्रयोग नहीं किया गया हो।

4. न्यायालय के लिए यह देखना भी आवश्यक है कि याचिका याची तथा प्रत्यर्थी की दुरभिसन्धि के परिणामस्वरूप तो नहीं पेश की गई है।

5. कार्यवाही संस्थित करने में अनावश्यक विलम्ब नहीं हुआ है।

6. अनुतोष अनुदत्त करने के विरूद्ध अन्य कोई वैध आधार नहीं है।

7. धारा 23 की उपधारा (2) में यह उपबन्ध किया गया है कि इस अधिनियम के अधीन कोई अनुतोष अनुदत्त करने के लिए अग्रसर होने के पूर्व यह न्यायालय का प्रथम कर्तव्य होगा कि वह ऐसी हर दशा में, जहाँ कि मामले की प्रकृति और परिस्थितियों से संगत रहते हुए ऐसा करना सम्भव हो, पक्षकारों के बीच मेल-मिलाप करने का पूर्ण प्रयास करे परन्तु उस उपधारा की कोई बात ऐसी कार्यवाही को लागू नहीं होगी जिसमें अनुतोष धारा 13 की उपधारा (1) के खण्ड (ii) (प्रत्यर्थी हिन्दू नहीं रहा हो), (iii) (प्रत्यर्थी) असाध्य रूप से विकृतचित्त हो), (iv) (प्रत्यर्थी) अव्यहित उग्र और असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो), (v) (प्रत्यर्थी अव्यहित रतिज रोग से पीड़ित हो), (vi) (प्रत्यर्थी) संन्यास लेकर संसार त्याग चुका हो), या खण्ड (vii) (7 वर्ष या अधिक समय से प्रत्यर्थी के जीवित होने के विषय में न सुना गया हो), में विनिर्दिष्ट आधारों में से किसी पर चाहा गया हो।

1976 के संशोधन द्वारा धारा 23 में एक उपधारा (3) जोड़कर मेल मिलाप का निम्नलिखित उपबंध किया गया है- “ऐसा मेल मिलाप कराने में न्यायालय की सहायता के प्रयोजनार्थ न्यायालय यदि पक्षकार चाहे तो, या यदि न्यायालय ऐसा करना न्यायसंगत और उचित समझता है तो, कार्यवाहियों को पन्द्रह दिन से अनधिक युक्तियुक्त कालावधि के लिये स्थगित कर सकेगा और इस मामले को पक्षकारों द्वारा इस निमित्त नामित किसी व्यक्ति को या यदि पक्षकार किसी व्यक्ति को नामित करने में असफल होते हैं तो न्यायालय द्वारा नाम-निर्देशित किसी व्यक्ति को इन निर्देशों के साथ निर्दिष्ट कर सकेगा कि वह न्यायालय को इस बात की रिपोर्ट दे कि क्या मेल मिलाप किया जा सकता है और करा दिया गया है और न्यायालय कार्यवाही का निपटारा करने में ऐसी रिपोर्ट पर सम्यक् ध्यान देगा।”

वैवाहिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए अवबाधाएँ (धारा 23)
(1) अपने ही दोष या निर्योग्यता का लाभ उठाना (2) उपसाधकता (Accessory) (3) मौनानुकूलता (Connivance) (4) उपमर्षण (Condonation) (5) दुस्संधि (6) अनुचित विलम्ब (Unreasonable delay) (7) अन्य कोई वैध आधार।

हिन्दू विवाह अधिनियम में 1976 में संशोधन कर (विवाह विधियाँ (संशोधन) अधिनियम, 1976) द्वारा एक नई धारा 23-क और जोड़ी गई है जो विवाह विच्छेद और अन्य कार्यवाहियों में प्रतिपक्षी के लिए अनुतोष प्रदान करती है। इस उपधारा के अनुसार विवाह विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण या दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये किसी कार्यवाही में प्रत्यर्थी अर्जीदार के जारकर्म, क्रूरता या अभित्यजन के आधार पर न केवल चाहे गये अनुतोष का विरोध कर सकेगा बल्कि उस आधार पर इस अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष के लिए प्रतिदावा भी कर सकेगा और यदि अर्जीदार का जारकर्म, क्रूरता या अभित्यजन सिद्ध हो जाता है तो न्यायालय प्रत्यर्थी को इस अधिनियम के अधीन ऐसा अनुतोष दे सकेगा जिसका वह उस दशा में हकदार होता या होती जिसमें उस आधार पर ऐसे अनुतोष की माँग करते हुए अर्जी उपस्थापित की गई होती।

1958 तक पक्षकारों का भरण पोषण और अपत्यों का संरक्षण अनुषंगी मानी जाती थी। मेट्रीमोनियल कॉजेज एक्ट, 1950 के अन्तर्गत यदि मुख्य कार्यवाही खारिज हो जाती थी तो अनुषंगी कार्यवाही स्वयं समाप्त हो जाती थी। लेकिन मेट्रमोनियल कॉजेज एक्ट, 1973 के अन्तर्गत मुख्य कार्यवाही के खारिज हो जाने के बाद भी समनुषंगी कार्यवाही चल सकती है। अपत्यों की अभिरक्षा, शिक्षा और भरण-पोषण के मामले अब समनुषंगी कार्यवाही नही मानी जाती। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24, 25 और 26 के अंतर्गत अनुतोष समनुषंगी अनुतोष है। पर सामान्यत: न्यायालयों ने यह दृष्टिकोण रखा कि मुख्य कार्यवाही का निर्णय होने से पहले इन अनुषंगी कार्यवाही का भी निर्णय हो जाना चाहिए। वर्तमान में भारतीय न्यायालयों का दृष्टिकोण यह है कि ये अनुषंगी कार्यवाहियाँ भी मुख्य कार्यवाही से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं और इनका युक्तियुक्त और न्यायिक रूप से निपटारा होना चाहिए।  

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