हिन्दू विवाह का पंजीकरण (Registration of Marriage) धारा 8
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1956 द्वारा जो सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया है उनमें एक है विवाह का पंजीकरण या रजिस्ट्रेशन का उपबंध। इसमें विवाह के लिए किसी निश्चित विधि या अनुष्ठान का उल्लेख नहीं है। केवल विवाह के लिए योग्यता (धारा 5) का उल्लेख है। धारा 7 का आशय है कि सामाजिक रूप से मान्य सभी हिन्दू विवाह को इस अधिनियम के तहत मान्य विवाह माना जाएगा। लेकिन धारा 8 में हिन्दू विवाह के पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) का प्रावधान है। हिन्दू विवाह का पंजीकरण एक नई संकल्पना थी जिसका पहली बार प्रावधान इस अधिनियम के द्वारा किया गया।
पंजीकरण का उद्देश्य है विवाहित जोड़े को विवाह का प्रमाणित दस्तावेजी सबूत उपलब्ध हो ताकि वे विवाह संबंधी धोखाधड़ी से बच सके तथा पति या पत्नी होने के नाते उन्हें और उनके बच्चों को जो कानूनी अधिकार मिले है, उनका सहजता से लाभ उठा सकें। अन्य कई औपचारिक कार्यों, जैसे पेंशन, वीजा आदि के लिए भी विवाह के सबूत के रूप में रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की जरूरत होती है। इसीलिए सरकार का प्रयास यह है कि सभी विवाहित जोड़े विवाह का रजिस्ट्रेशन करवाएँ।
सुप्रिम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य करने पर बल दिया है। संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार विवाह राज्य सूची का विषय है अर्थात् इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों को है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 8 भी राज्य सरकार को यह अधिकार देती है। इसके लिए एक हिन्दू विवाह रजिस्टर बनाया जाएगा जिसमें किसी विवाह से संबंधित सभी मुख्य विवरण दर्ज रहेंगे। इसके लिए राज्य सरकार नियम बनाएगी।
रजिस्ट्रेशन में अनियमितता एक अपराध माना जाएगा और इसके लिए जुर्माना किया जा सकता है। लेकिन रजिस्ट्रेशन रजिस्टर में अगर कोई सूचना भूलवश छूट गया हो या कोई प्रविष्टि (entry) त्रुटिपूर्ण हो तो इससे विवाह की वैधता प्रभावित नहीं होगी अर्थात् विवाह वैध बना रहेगा। इस रजिस्टर का आवश्यकता होने पर सबूत के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है।
महत्वपूर्ण मुकदमे (Case Law)
सीमा वर्सेस अश्वनी कुमार (AIR 2006 SC 1158; (2006) 2 SCC 578)
यह केस इसलिए विशेषरूप से महत्वपूर्ण है कि इस केस में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू विवाह के पंजीकरण (registration) पर विस्तार से विचार किया और राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को विवाह पंजीकरण अनिवार्य बनाने और इसके लिए एक समुचित गाइड लाइन बनाने के लिए कहा।
न्यायालय ने यह भी कहा कि अधिकांश राज्यों में विवाहों का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है जिसका अनुचित लाभ उठाकर कई लोग विवाह के अस्तित्व हो अस्वीकार कर देते हैं।
बड़ी संख्या में न्यायालय के समक्ष ऐसे मामलें आते हैं जिसमें एक पक्ष विवाह के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देते हैं जिससे पीड़ित पक्ष को उसका हक नहीं मिल पाता।
इस मामलें में जो सबसे बड़ा विधिक प्रश्न था वह यह कि इसमें राज्यों से अपने-अपने राज्यों में विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए अधिसूचना जारी करने के लिए कहा जाय।
मामलें में उच्चतम न्यायालय (न्यायमूर्ति अरिजित पसायत) ने विवाह के अनिवार्य पंजीकरण पर विस्तार से विचार करते हुए निम्नलिखित तर्क रखा:
भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची जो कि राज्यों और संघों में विषयों के विभाजन से संबंधित है, की तीसरी सूची (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 5 में विवाह और विवाह-विच्छेद और प्रविष्टि 30 में महत्त्वपूर्ण आँकड़ों की सूची है जिसमें जन्म और मृत्यु पंजीकरण भी शामिल है। विवाह का पंजीकरण भी महत्त्वपूर्ण आँकड़ों के अन्तर्गत आता है।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 8 विवाह पंजीकरण का उपबंध करता है लेकिन विवाह पंजीकार के समक्ष हो या अपने परम्परागत विधि से विवाह कर यहाँ पंजीकरण कराएँ यह विवाह के पक्षकारों पर छोड़ दिया गया है।
साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि पंजीकरण में कोई प्रविष्टि भूलवश छूट जाने से विवाह की वैधता प्रभावित नहीं होगी।
धारा 8 की उपधारा 2 राज्य सरकारों को शक्ति देती है कि वे विवाह पंजीकरण और विवाह पंजीकरण को अनिवार्य करने के लिए नियम बनाए।
राज्य सरकार द्वारा बनाए गए इन नियमों का उल्लंघन दण्डनीय अपराध होगा जिसके लिए जुर्माना किया जा सकता है। लेकिन महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर किसी अन्य राज्य ने विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य नहीं किया है।
अगर विवाह का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाए और प्रत्येक विवाह का समुचित आधिकारिक रिकॉर्ड हो तो विवाह से संबंधित कई समस्याओं का समाधान सरल हो जाएगा।
राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार अनिवार्य पंजीकरण नहीं होने से सर्वाधिक हानि महिलाओं को होता है क्योंकि:
1. अगर पति विवाह होने से ही इंकार कर दे तो वैसी स्थिति में विवाह साबित करना उनके लिए बहुत कठिन होता है। यह संतान की वैधता साबित करने में भी सहायक होगा।
2. यद्यपि विवाह का पंजीकरण विवाह के वैध होने का प्रमाण नहीं है फिर भी जैसा कि स्वयं धारा 8 में कहा गया है इसका उद्देश्य विवाह का एक समुचित सबूत उपलब्ध कराना है।
3. इससे बाल विवाह पर रोक लगाने में भी सहायता मिलेगी।
4. न्यायालय ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि अपने-अपने राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेश में सभी धर्मों के लोगों के लिए विवाह पंजीकरण को उनके व्यक्तिगत कानून के तहत अनिवार्य करने की व्यवस्था करे।
साथ ही यह निर्देश भी दिया कि सभी राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों में विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया को तीन महिने के अंदर अधिसूचित किया जाए। इन नियमों में पंजीकरण में विवाह के पक्षकारों की उम्र और पूर्व वैवाहिक स्थिति स्पष्ट शब्दों में लिखने का उपबंध हो।
पंजीकरण नहीं कराने या पंजीकरण के लिए गलत जानकारी देने के क्या परिणाम हो सकते हैं यह भी स्पष्ट होना चाहिए। न्यायालय ने संघीय सरकार को यह निर्देश भी दिया कि वह एक समन्वित विधि बनाए और परीक्षण के लिए उसे न्यायालय के समक्ष रखें।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में विवाह के पंजीकरण (registration) के लिए क्या उपबंध किए गए हैं? क्या विवाह का पंजीकरण कराना अनिवार्य है और इसके नहीं करने से विवाह अविधिमान्य (invalid) हो जाता है?
प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी: विवाह का पंजीकरण।