आओ रेप-रेप खेलें
एक बार फिर मीडिया में “रेप” शब्द छाया हुआ है। एक बार फिर आम लोगों में आक्रोश है, अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंता है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। चेहरे, जगह, उम्र आदि भले भी बदलते रहे हों, लेकिन ऐसे घृणित घटना के पीछे छिपी मानसिकता, क्रूरता और पीड़ा नहीं बदलती है। ऐसी प्रत्येक घटना निंदनीय और अक्षम्य होती है। घटना की शिकार की पीड़ा कम करने और अपराधियों को कठोरतम सजा दिए जाने की जरूरत निर्विवाद होती है। लेकिन व्यवहार में जाने-अनजाने ऐसी घटनाओं के प्रति हमारी संवेदना वास्तव में संवेदनहीनता के रास्ते खोलते जा रहे हैं।
शायद यह सुनने में बहुत कठोर लगे। एक वकील के रूप में मेरे कुछ ऐसे रोंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव भी रहे हैं। एक नाबालिग बच्ची का अपहरण हुआ और बाद में उसकी लाश मिली। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के आधार पर लड़की उस समय “पीरियड” में थी। किसी तरह के शारीरिक दुर्व्यवहार या चोट का कोई निशान नहीं था। सिर पर किसी भारी चीज से चोट किया गया था, जिससे मृत्यु हुई थी। मृतिका का परिवार आर्थिक रूप से बहुत कमजोर और अशिक्षित था।
इस केस को मेरे पास जो व्यक्ति लेकर आया था, उसने अपना परिचय एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दिया। इस केस में पुलिस ने अपहरण और हत्या का केस दर्ज किया था। मेरे पास केस लेकर आने वाले उस तथाकथित समाज सेवक के इस प्रश्न ने मुझे झकझोड़ दिया “क्या इस केस को किसी तरह रेप और मर्डर साबित किया जा सकता है?” कारण पूछने पर उसने मुझे बताया कि “केवल हत्या में अधिक कंपन्सेशन राशि नहीं मिलेगा। लड़की मंद बुद्धि थी। वैसे भी वह कौन-सा माँ-बाप को कमा कर देती। अगर उसके मरने से कुछ ज्यादा मिल जाए तो क्या हर्ज है। लड़की लौट कर तो आएगी नहीं। इससे सबका भला हो जाएगा। आरोपी का बाप पैसे वाला है।”
मैं ऐसी घटनाओं के प्रति संवेदनशील दिखने वाले या समाज सेवा करने वाले सभी लोगों पर शक नहीं कर रही हूँ, लेकिन आम लोगों की भावनाओं से लाभ उठाने वाले कुछ लोग भी हैं। सच तो यह है कि स्त्री सुरक्षा का मुद्दा जितना लोगों को आकर्षित करता है, उनकी भावनाओं से जुड़ा हुआ है उतना संभवतः जाति, धर्म, बेरोजगारी इत्यादि कोई भी अन्य मुद्दा नहीं है। क्योंकि प्रत्येक परिवार में ये मुद्दे लागू होते हों या नहीं, लेकिन स्त्री को हर घर में होती ही है।
लेकिन वास्तव में सबसे जुड़े होने के बावजूद ऐसे घृणित अपराधों को रोकने के लिए हम कुछ नहीं करते हैं। इसके लिए दोषी केवल सरकार और मीडिया ही नहीं है बल्कि हम सब भी हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सोशल मीडिया में पीड़िता और आरोपियों की जाति, धर्म, स्थान आदि से ऐसे अपराधों को नहीं जोड़ा जाता। आज अगर एक समुदाय या जाति की बेटी शिकार हुई है तो कल दूसरे की हो सकती है। दर्द को खाँचों में बाँटने वाला समाज तो हमने ही बनाया है। अपने-अपने खाँचों के रहनुमा बनने का प्रयास करने वाले लोगों के लिए ऐसी घटनाएँ एक अवसर की तरह होता है।
दूसरा दोषी मीडिया है जो लोगों की भावनाओं को उभार कर अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए जाँच-परख कर सूचना देने के बदले अपने विचार और अफवाह बढ़ाने लगता है। हम उनकी टीआरपी बढ़ा कर उनके इस कार्य में सहायता करते हैं।
तीसरी गलती सरकार जल्दीबाजी में टुकड़े-टुकड़े कानून बना कर करती है। निर्भया केस में लोगों का दवाब बढ़ा तो 2013 में आपराधिक कानून में सुधार कर महिला अपराध संबंधी कुछ प्रावधानों में परिवर्तन कर दिया। कठुआ और उन्नाव केस हुआ तो 2018 में नाबालिग बच्ची से अपराध से संबंधित कानूनों में बदलाव ला दिया गया। कानून तो बदल गए पर कानून को लागू करने वाले सिस्टम वही रहे। किसी भी अपराध के लिए घटनास्थल पर सबसे पहले मिलने वाला साक्ष्य सबसे मौलिक होता है। लेकिन ऐसे साक्ष्य पुलिस विभाग में सबसे निचले स्तर का कर्मी लेता है जिनकी ट्रेनिंग इस तरह की होती ही नहीं है कि वे अन्वेषण करने और साक्ष्य लेने के विशेषज्ञ हों। न्यायिक व्यवस्था की खामियाँ भी अपराधियों के पक्ष में ही जाती है। इससे कोई अधिक फर्क नहीं पड़ता कि उनके अपराधों का शिकार किसी हिंदु, मुस्लिम, दलित, सवर्ण की बेटी हो या फिर बेटा ही क्यों न हो।