आपराधिक दुराश्य-केस लॉ- part 1.3

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आपराधिक दुराशय (mens rea) क्या है?

आपराधिक कार्य को करने के पीछे के आशय या दुराशय को आपराधिक दुराशय या तकनीकी शब्द में मेंस रिया कहते हैं। इससे संबन्धित सिद्धान्त और कानून हम पिछले भाग में पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत भाग में इससे संबन्धित कुछ लिडिंग केस को पढ़ रहे हैं।

महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हेन्स जॉर्ज (State of Maharashtra v  Mayer Hanse George) ([(1965) I SCR 123: AIR 1965 SC 722]

बेंच- न्यायमूर्ति सुब्बाराव, के. आयंगर और एन. राजगोपाला मुदोलकर

संबंधित अधिनियम– फॉरेन एक्सचेंज रेगूलेशन एक्ट (1947 का 7) की धारा 8 (1), 23 (1)

संबद्ध विधिक प्रश्न – मेन्स रिया कब अपराध गठित करने के लिए अनिवार्य तत्त्व होता है?

तथ्य– प्रतिवादी (हेंस जॉर्ज) एक जर्मन तस्कर था। 27 नवम्बर, 1962 को उसने ज्यूरिख से मनिला के लिए फ्लाइट लिया। उसके साथ 34 किलो सोना था, जो उसे मनिला में किसी को देना था। ज्यूरिख से मनिला जाते हुए 28 नवम्बर को फ्लाइट मुंबई में रूकी। जॉर्ज प्लेन में ही रहा, बाहर नहीं निकला। मुंबई में कस्टम अधिकारियों को उसके पास से अघोषित सोना मिला। उसे फॉरेन एक्सचेंज रेगूलेशन एक्ट, 1947 की धारा 8 (1) और धारा 23 (1) सहपठित रिजर्व बैंक नोटिफिकेशन, दिनांक 8 नवम्बर (गजट में प्रकाशन की तिथि 24 नवम्बर), 1962 के तहत आरोपित किया गया।

ट्रायल कोर्ट ने जॉर्ज को दोषी माना लेकिन हाई कोर्ट ने उसे मुक्त कर दिया। हाई कोर्ट का तर्क था कि:

1. किसी भी अपराध को गठित करने के लिए मेन्स रिया अनिवार्य है। प्रस्तुत केस में जॉर्ज को रिजर्व बैंक के नोटिफिकेशन के विषय में ज्ञात नहीं था इसलिए किसी गैर कानूनी कार्य का उसका आशय नहीं था।

2. चूँकि रिजर्व बैंक का नोटिफिकेशन डेलिगेटेड या सबऑर्डिनेट लेजिस्लेशन है, इसलिए ऐसा कानून तभी लागू होगा जब कि इससे प्रभावित होने वाले व्यक्ति को यह ज्ञात हो।

3. इस नोटिफिकेशन के द्वितीय परन्तुक( Second Proviso) के अनुसार सोने की उद्घोषणा अनिवार्य है लेकिन यह उन यात्रियों पर लागू नहीं होगा जो यात्रा के क्रम में भारत में कुछ समय के लिए रूका हो और जो कि फ्लाइट से बाहर भी नहीं आया हो।

धारा 8 (1) को धारा 24 (1) के साथ पढ़ने से उसकी भाषा से यह स्पष्ट होता है कि यह साबित करने का भार अभियुक्त पर है कि उसने सोने को भारत में लाने के लिए आवश्यक अनुमति ली थी। सोने को भारत में लाने की प्रक्रिया स्वैच्छिक हो, यह कही इंगित नहीं था। धारा 23 (1-क) के तहत अपराध गठित करने के लिए मेन्स रिया का होना आवश्यक है। इस अधिनियम का उद्देश्य तस्करी को रोकना था, पर अगर इसका आशय स्वैच्छिक रूप से भारत में लाने से लगाया जाय तो यह अधिनियम के उद्देश्यों के विरूद्ध होगा।

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कोर्ट ने इंडो-चायना स्टीम नेवीगेशन कं लि. बनाम जसजीत सिंह, एडिशनल कलक्टर कस्टम, कलकत्ता (AIR 1964, SC 1140) मामले का पुर्विलोकन भी किया। इस मामले में भारत में नोटिस प्रकाशित किया गया था, एक विदेशी व्यक्ति द्वारा इसकी अवहेलना पर कोर्ट ने यह तर्क नहीं माना कि यह भारत में नोटिफाइड था और विदेशी व्यक्ति को इसकी जानकारी नहीं थी। इस मामले में कोर्ट ने माना था कि प्रतिवादी का भारत में प्रकाशित नोटिफिकेशन से अनभिज्ञ होना, पूर्णतः अप्रासंगिक है और उसे दोषी पाया गया।

कोर्ट ने कहा कि किसी वैधानिक प्रावधान नहीं होने की स्थिति में किसी सबऑडिनेट लेजिस्लेशन को सरकारी गजट में पब्लिश किया जाना चाहिए। ऐसे पब्लिकेशन के बाद यह धारणा की जाती है कि इस नियम की जानकारी सभी को है। कोर्ट ने इंग्लैण्ड के स्टैच्यूटरी इन्स्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1946 और उसके समनुरूप जनरल क्लॉजेज एक्ट, 1897 में हुए संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि इसमें स्पष्ट रूप से शामिल है कि सबऑडिनेंट लेजिस्लेशन कब पारित और कब लागू हुआ माना जाता है और यह धारणा की जाती है कि यह सभी व्यक्ति को ज्ञात हो गया है।

कोर्ट ने इस पर भी विचार किया कि नोटिफिकेशन में ‘‘व्यक्तिगत सामान (personal luggage)” के बजाय “cargo” शब्द का प्रयोग किया गया है। व्यक्तिगत सामान का सामान्य आशय यह होता है कि वह सामान यात्री को अपने व्यक्तिगत कार्यों में तत्काल या यात्रा के बाद प्रयोग हो, लेकिन जितनी मात्रा में प्रतिवादी सोना ले जा रहा था वह व्यक्तिगत सामान की परिभाषा में नहीं रखा जा सकता है।

लेकिन न्यायमूर्ति सुब्बाराव बहुमत के उपर्युक्त तर्क से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार यह साबित नहीं हो पाया कि प्रतिवादी जानबूझ कर सोना भारत में लाया था। यह धारणा है कि मेन्स रिया किसी वैधानिक अपराध को गठित करने के लिए आवश्यक है। इसका अपवाद तभी माना जा सकता है जब ऐसा उल्लेख विधान में हो। अधिनियम के उद्देश्य के प्रतिकूल होने मात्र के आधार पर मेन्स रिया का अपवाद नहीं माना

जा सकता है। ignorance of law is not excuse” सिद्धांत यहाँ लागू नहीं किया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने लिनचिन अइक वर्सेस द क्वीन (1963) (AC 160) के निर्णय को माना। भारत होते हुए दूसरे देश जाने वाले यात्रियों के सामान को उन्होंने “cargo” परिभाषा में नही मानकर “transhipment cargo” (131 A & B) माना।

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दो-एक के बहुमत से अपील स्वीकार कर ली गई।

मध्य प्रदेश राज्य बनाम नारायण सिंह (State of Madhya Pradesh v Narayan Singh & Ors.) [(1989) 3 SSC 596]

बेंच- न्यायमूर्ति एस नटराजन और न्यायमूर्ति ए एम अहमदी।

संबंधित अधिनियमIPC और Essential Commodities Act, 1955 की धारा 3 और 7 (1967 का अधिनियम 36 द्वारा यथासंशोधित),  Fertilizer (Movement Control) Order 1973  की धारा 2 (क) और 3, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 51।

मुख्य विधिक प्रश्न– उपर्युक्त अधिनियम के तहत आवश्यक परमिट के बिना राज्य से बाहर उर्वरक का निर्यात करने के प्रयत्न की स्थिति में मेन्स रिया सिद्ध करना अभियोजन पक्ष के लिए आवश्यक था या नहीं 

तथ्य

प्रतिवादी नारायण सिंह ट्रक् (लॉरी) ड्राइवर था। वह उर्वरकों से भरा एक ट्रक लेकर मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र के लिए चला। उसके पास उर्वरक के निर्यात के लिए आवश्यक परमिट नहीं था। ट्रक पर सफाई कर्मचारी और कुली भी थे। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर, जब ट्रक मध्यप्रदेश की सीमा के अंदर ही था, sale tax barrier पर, पकडा गया। प्रतिवादी पर Essential Commodities Act, 1955  और Fertilizer (Movement Control) Order 1973 सहपठित भारतीय दण्ड संहिता की धारा 511 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया।

ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को बरी कर दिया। कोर्ट का तर्क था कि-

1.      प्रतिवादी का मेन्स रिया अभियोजन पक्ष साबित नहीं कर पाया।

2.      प्रतिवादी द्वारा उर्वरकों से लदा ट्रक मध्यप्रदेश की सीमा तक ले जाने का कार्य अपराध के लिए तैयारी (preparation) थे, अपराध कारित करने के लिए प्रयत्न (attempt) नहीं।

राज्य ने इस फैसले के विरूद्ध हाई कोर्ट में अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 378 (3) के तहत अपील की लेकिन हाई कोर्ट ने इसे मंजूरी नहीं दी। अतः राज्य सरकार ने सुप्रिम कोर्ट में अपील की। सुप्रिम कोर्ट ने अपील स्वीकार कर लिया। सुप्रिम कोर्ट ने निम्न तर्कों को माना-

धारा 7 (1) के शब्द थे ‘‘if any person contravenes whether knowingly, intentionally or otherwise any order made under section 3” इस धारा में knowingly और intentionally के साथ ही “otherwise” शब्द भी आया है। अर्थात् इस में ऐसे कार्य भी शामिल हैं जो “unintentionally” किए गए हो। इसका आशय यह हुआ कि बिना वैध परमिट के उर्वरक का राज्य से बाहर निर्यात करने के अपराध को गठित करने के लिए मेन्स रिया का होना आवश्यक नहीं है। अतः ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों का यह तर्क सही नहीं है कि अभियुक्त दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि अभियोजन मेन्स रिया की उपस्थिति साबित नहीं कर पाया। कोर्ट ने स्वास्तिक ऑयल इन्डस्ट्रीज वर्सेस स्टेट (1978) 19 गुजरात लॉ रिपोर्टर 1117 में दिए गए फैसले को फिर से पुष्ट किया। कोर्ट ने नत्थुलाल वर्सेस स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश (AIR 1966, SC 34) का हवाला दिया।

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कोर्ट ने तर्क दिया कि किसी अपराध को गठित होने के लिए या करने के लिए चार चरण होते हैं

  • आशय (intention)
  • तैयारी (preparation)
  • प्रयत्न (attempt) और
  • निष्पादन (executive)

इनमें से प्रथम दो दण्डनीय नहीं है लेकिन तीसरा और चौथा चरण निःसंदेह दण्डनीय हैं। प्रस्तुत मामले में प्रतिवादी अगर सेल्स टैक्स बैरियर पर पकड़े नहीं जाते तो बिना लाइसेंस/परमिट के उर्वरक मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र को निर्यात करने का अपराध कारित हो गया होता। इसलिए यह केवल तैयारी (preparation) नहीं था। उर्वरक को यहाँ तक लाने को कोई अन्य उद्देश्य नहीं हो सकता है। ये हो सकता था कि ये सीमा पार करने से पहले वापस अपने आरंभिक स्थान पर लौट आते या मध्यप्रदेश में ही किसी अन्य स्थान पर ले जाते। इसलिए यह प्रयत्न (attempt) था, तैयारी (preparation) मात्र नहीं। क्लॉज़ (3) न केवल निर्यात बल्कि निर्यात के प्रयत्न या इसके लिए दुष्प्रेरण (abetment)  को भी निषिद्ध करता है।

कोर्ट ने यह तर्क भी दिया कि Essential Commodities Act, 1955 में 1974 में संशोधन किया गया। इस संशोधन के अनुसार अभियुक्त के आशय होने की धारणा की गई।

कोर्ट ने अभियुक्त को दोषी मानते हुए अपील स्वीकार कर लिया।

आर वर्सेस प्रिंस (R v Prince) (LR 2 CCR (1875)

इंग्लैंड में उस समय नाबालिग लड़की को उसके पिता की अनुमति के बिना ले जाना अपराध था। अभियुक्त प्रिंस के तरफ से प्रतिरक्षा में यह कहा गया की लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम थी लेकिन उसने अपने को वयस्क बताया था और वह देखने में भी इतने की लगती थी। चूँकि अभियुक्त उसका नाबालिग होना नहीं जनता था इसलिए किसी कानून के उल्ल्ङ्घन के लिए उसकी दुराशयता (मेंस रिया) नहीं थी।

लेकिन कोर्ट ने इन तर्कों को नहीं माना क्योंकि उसका कार्य दुराशय के बिना भी अपने आप में अपराध था। अभियुक्त को दोषी माना गया ।

आर वर्सेस टौल्सन (R v Tolson) [23 QBD 168 (1889)]

अभियुक्त का पति युद्ध में कही लापता हो गया था। सैनिक विभाग और उसके पति के रि”तेदारों ने भी उसे मरा हुआ मान लिया था। अभियुक्त ने पति को मृत मान कर दूसरा विवाह कर लिया। विवाह के बाद उसका पति लौट आया। उसने द्विविवाह के लिए पत्नी के विरुद्ध वाद दायर किया। पति की तरफ से यह तर्क किया गया की अभियुक्त का कार्य विधिविरुद्ध था भले ही उसका दुराश्य हो या नहीं।

लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना। कोर्ट ने इस तर्क पर विश्वास किया की अभियुक्त ने समुचित सावधानी के साथ युक्तियुक्त रूप से सत्य का पता करने के लिए प्रयास किया और जब उसे यह विश्वास हो गया की उसका पति जीवित नहीं है तब उसने विवाह किया। इसलिए उसे अभियोग मुक्त कर दिया गया।

अन्य महत्त्वपूर्ण केस:

  • नाथुलाल वर्सेस स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश [(AIR 1966 SC 43)]
  • कुंडी वर्सेस लिकौक (Cundy v Le Cocq  [(1884) 13 QBD 207)]
  • शेराज वर्सेस डी रुटजन (Sherras v De Rutzen) [(1895) 1 QB 918, 921)]
Sr No.Case titleFactsFinding
 महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हेन्स जॉर्ज (State of Maharashtra v  Mayer Hanse George( [(1965) I SCR 123: AIR 1965 SC 722]  हेन्स जॉर्ज सोने का तस्कर था। वह जर्मनी से फ़िनलैंड सोना लेकर हवाई जहाज से जा रहा था। जहाज मुंबई मे ईंधन लेने और मेंटेनेंस के लिए रुका। भारतीय कस्टम अधिकारियाओं ने उसे अघोषित सोना रखने के जुर्म मे गिरफ्तार कर लिया। जॉर्ज का बचाव यह था कि वह न तो भारतीय नागरिक था और न ही वह भारत आ रहा था। वह जहाज से बाहर भी नहीं निकला था। इसलिए भारतीय कानून तोड़ने का उसका कोई आशय नहीं हो सकता था।सुप्रीम कोर्ट ने कठोर दायित्व का सिद्धांत लागू किया । क्योंकि संबन्धित अधिनियम मे कहीं यह नहीं था कि भारत मे सोना लाने का कार्य जानबूझकर किया जाय। अगर ऐसे मामलों मे मेंस रिया का सिद्धान्त लागू किया जाय तो इस कानून का उद्देश्य विफल हो जाएगा।  
 मध्य प्रदेश राज्य बनाम नारायण सिंह(State of Madhya Pradesh v Narayan Singh & Ors. [(1989) 3 SSC 596प्रतिवादी नारायण सिंह लौरी ड्राईवर था । वह बिना परमिट का उर्वरक मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र ले जाते हुए मध्यप्रदेश की सीमा पर गिरफ्तार हुआ था। उसका बचाव था कि उसका आशय अवैध रूप से उर्वरक ले जाना नहीं था। दूसरा लौरी मध्य प्रदेश की सीमा मे ही था इसलिए यह अपराध के लिए प्रयास नहीं बल्कि तैयारी मात्र था जो कि दंडनीय नहीं है।सुप्रीम कोर्ट के अनुसार प्रासंगिक सेक्शन मे knowingly और  intentionally के साथ ही “otherwise” शब्द भी है।  इसलिए इसमे ऐसे कार्य भी शामिल है जो ‘unintentionally’ किए गए हो। इसका आशय यह हुआ कि बिना वैध परमिट के उर्वरक को राज्य से बाहर निर्यात करने के लिए वैध मेंस रिया का होना आवश्यक नहीं है । और यह कार्य अपनेआप मे अपराध गठित करने के लिए पर्याप्त है। इस केस मे कोर्ट ने अपराध के चार चरण– आशय  (intention), तैयारी (preparation) प्रयत्न] (attempt) और निष्पादन (execution) तथा तैयारी और प्रयत्न मे अंतर पर भी विचार किया। 
 आर वर्सेस प्रिंस (R v Prince) (LR 2 CCR (1875) इंग्लैंड मे उस समय नाबालिग लड़की को उसके पिता की अनुमति के बिना ले जाना अपराध था। अभियुक्त प्रिंस के तरफ से प्रतिरक्षा मे यह कहा गया की लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम थी।  लेकिन उसने अपने को वयस्क बताया था । वह देखने मे भी इतने की लगती थी। अभियुक्त उसका नाबालिग होना नहीं जनता था। इसलिए किसी कानून के उल्ल्ङ्घन के लिए उसकी दुराशयता (मेंस रिया) नहीं थी। लेकिन कोर्ट ने इन तर्कों को नहीं माना । क्योंकि उसका कार्य दुराशय के बिना भी अपने आप मे अपराध था। अभियुक्त को दोषी माना गया ।
 आर वर्सेस टौल्सन (R v Tolson) [23 QBD 168 (1889)] अभियुक्त का पति युद्ध मे कही लापता हो गया था। सैनिक विभाग और उसके पति के रि”तेदारों ने भी उसे मरा हुआ मान लिया था। अभियुक्त ने पति को मृत मान कर दूसरा विवाह कर लिया। विवाह के बाद उसका पति लौट आया। उसने द्विविवाह के लिए पत्नी के विरुद्ध वाद दायर किया। पति की तरफ से यह तर्क किया गया की अभियुक्त का कार्य विधिविरुद्ध था भले ही उसका दुराश्य हो या नहीं।लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना। कोर्ट ने इस तर्क पर विश्वास किया कि अभियुक्त ने समुचित सावधानी के साथ युक्तियुक्त रूप से सत्य का पता करने के लिए प्रयास किया। जब उसे यह विश्वास हो गया की उसका पति जीवित नहीं है, तब उसने विवाह किया। इसलिए उसे अभियोग मुक्त कर दिया गया।
 अन्य महत्त्वपूर्ण केस: नाथुलाल वर्सेस स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश [(AIR 1966 SC 43)]कुंडी वर्सेस लिकौक (Cundy v Le Cocq) [(1884) 13 QBD 207)]शेराज वर्सेस डी रुटजन (Sherras v De Rutzen) [(1895) 1 QB 918, 921)]हौब्स वर्सेस विंचेस्टर कार्पोरेशन (Hobbs v Winchester Corporation) [(1910 2 KB 471)]
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