कपट और दुर्व्यप्देशन से प्राप्त सहमति का संविदा पर प्रभाव (सेक्शन 10, 13, 14, 17, 18, 19)- part 15

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कपट और दुर्व्यप्देशन से अगर संविदा के लिए सहमति प्राप्त की जाती है, तो यह सहमति स्वतंत्र नहीं मानी जाती है और पीड़ित पक्ष के पास यह विकल्प होता है कि इस संविदा को कोर्ट द्वारा शून्य घोषित करवा ले। अर्थात ऐसी संविदा शून्यकरणीय होती है।

कपट (Fraud) क्या है?

इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट का सेक्शन 17 कपट (Fraud) को इस तरह परिभाषित करता है:  

“कपट’ से अभिप्रेत है और उसके अन्तर्गत आता है- निम्नलिखित कार्यों में से कोई भी ऐसा कार्य संविदा के एक पक्षकार द्वारा, या उसकी मौनानुकूलता से या उसके अभिकर्ता द्वारा, संविदा के किसी अन्य पक्षकार की या उसके अभिकर्ता की प्रवंचना करने के आशय से या उसे संविदा करने के लिए उत्प्रेरित करने के आशय से किया गया हो :

  1. जो बात सत्य नहीं है उसका तथ्य के रूप में उस व्यक्ति द्वारा सुझाया जाना जो यह विश्वास नहीं करता कि वह सत्य है;
  2. किसी तथ्य का ज्ञान या विश्वास रखने वाले व्यक्ति द्वारा उस तथ्य का सक्रिय छिपाया जाना;
  3. कोई वचन जो उसका पालन करने के आशय के बिना दिया गया हो; ।
  4. प्रवंचना करने योग्य कोई अन्य कार्य;
  5. कोई ऐसा कार्य या लोप जिसका कपटपूर्ण होना विधि विशेषतः घोषित करे। 

स्पष्टीकरण — संविदा करने के लिए व्यक्ति की रजामन्दी पर जिन तथ्यों का प्रभाव पड़ना सम्भाव्य हो, उनके बारे में केवल मौन रहना कपट नहीं है जब तक कि मामले की परिस्थितियाँ ऐसी न हों जिन्हें ध्यान में रखते हुए मौन रहने वाले व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता हो कि वह बोले या जब तक कि उसका मौन स्वत: ही बोलने के तुल्य न हो।

दृष्टान्त

(क) क’ नीलाम द्वारा ‘ख’ को एक घोड़ा बेचता है जिसके बारे में ‘क’ जानता है कि वह ऐबदार है। ‘क’ घोड़े के ऐब के बारे में ‘ख’ को कुछ नहीं कहता। यह ‘क’ की ओर से कपट नहीं है।

(ख) ‘क’ की ‘ख’ पुत्री है और अभी ही प्राप्तवय हुई है। पक्षकारों के बीच के सम्बन्ध के कारण ‘क’ का यह कर्तव्य हो जाता है कि यदि घोड़ा ऐबदार है तो ‘ख’ को वह बात बता दे।  

(ग) ‘क’ से ‘ख’ कहता है कि यदि आप इस बात का प्रत्याख्यान न करे तो मैं मान लूंगा कि घोड़ा बेऐब है। ‘क’ कुछ। नहीं कहता है। यहाँ ‘क’ का मौन बोलने के तुल्य है।  

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(घ) ‘क’ और ‘ख’, जो व्यापारी हैं, एक संविदा करते हैं। ‘क’ को कीमतों में ऐसे परिवर्तन की निजी जानकारी है। जिससे संविदा करने के लिए अग्रसर होने की ‘ख’ की रजामन्दी पर प्रभाव पड़ेगा। ‘ख’ को यह जानकारी देने के लिए ‘क’ आबद्ध नहीं है।   

कांट्रैक्ट एक्ट के सेक्शन 17 के अनुसार अगर संविदा का एक पक्षकार स्वयं, या उसकी मौन सहमति से कोई अन्य व्यक्ति, या उसका कोई अभिकर्ता (agent) दूसरे पक्षकार या उसके अभिकर्ता को संविदा करने के लिए उत्प्रेरित करने के लिए या उसे प्रवंचित करने के लिए निम्न में से कोई कार्य करता है, तो यह कहा जाता है कि उसने कपट किया है:

  1. ऐसे कोई तथ्य जो वास्तव में सत्य नहीं है, इस तरह कहता है कि दूसरा पक्षकार इसे सत्य मान लेता है अर्थात तथ्य का मिथ्या कथन करता है,
  2. कोई ऐसा तथ्य जिसका ज्ञान उसे है, दूसरे पक्ष से छिपा लेता है,
  3. कोई ऐसा वचन देता है, जिसके पालन का वास्तव में उसका कोई विचार नहीं था,
  4. प्रवंचना करने योग्य कोई अन्य कार्य करता है,
  5. कोई ऐसा कार्य या लोप करता है जिसे विधि द्वारा कपटपूर्ण घोषित किया गया हो।

चूँकि कपट के लिए एक विशेष प्रकार का आशय आवश्यक है इसलिए केवल अपने विचार रखना या जानते हुए भी मौन रह जाना कपट नहीं होगा। क्योंकि संविदा के पक्षकार के लिए प्रत्येक तथ्य को दूसरे पक्ष को बताने का कोई दायित्व नहीं है।

उदाहरण के लिए अगर कोई पक्षकार अपनी किसी वस्तु को बेचना चाहता है तो यह उसका दायित्व नहीं है कि वह अपनी वस्तु के त्रुटियों को बताए। परंतु, मौन रहना भी दो स्थितियों में कपट माना जा सकता है:

(1) अगर किसी तथ्य को प्रकट करना कर्तव्य हो, वहाँ मौन रहना कपट है;

(2) अगर किसी विशेष स्थिति में मौन रहना स्वतः ही बोलने के समान हो, तो वहाँ मौन रहना कपट है। उदाहरण के लिए बीमा की संविदाएँ। वस्तुओं के विक्रय से भिन्न कुछ तथ्य केवल बीमा करने वाले व्यक्ति के ज्ञान में होता है। इस तरह के संविदा मे अधिकतम विश्वास और सद्भाव की आवश्यकता होती है (वी श्रीनिवास पिल्लई बनाम एलआईसी ऑफ इंडिया – AIR 1977 SC 381)। 

अगर क्रेता विक्रेता से कहता है कि अगर आपने कुछ नहीं कहा तो मैं मान लूँगा कि घोड़ा में कोई ऐब नहीं है। विक्रेता चुप रह जाता है। खरीदने के बाद पता चलने पर कि घोड़ा ऐबदार है, क्रेता ने इसे शून्य करवाने के लिए वाद दायर किया। कोर्ट ने माना कि इस स्थिति में मौन रहना बोलने के समान होगा (धारा 17 का दृष्टान्त)।

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एक स्थिति ऐसी भी हो सकती है कि जब कोई कथन किया जाय तब वह सत्य हो, लेकिन बाद में कुछ ऐसा परिवर्तन हो जाए जिससे वह कथन झूठ बन जाय तो ऐसे में कथन करने वाले का यह दायित्व होगा ही वह इसकी सूचना दूसरे पक्ष को दे। अगर वह जानबूझकर ऐसा नहीं करता है तो यह कपट होगा।

उदाहरण के लिए एक चिकित्सा व्यवसायी अपने व्यवसाय को बेचना चाहता था। इसके लिए उसने क्रेताओं को अपने व्यवसाय की जो कीमत (turn over) बताई वह बाद में बहुत कम हो गया। संविदा के समय उसने इस कमी को अपने क्रेता को नहीं बताया।

न्यायालय में पाया कि संविदा पर हस्ताक्षर होने से पहले उसे वास्तविक कीमत का ज्ञान हो गया था। हो सकता था अगर वह यह बता देता तो क्रेता इसे नहीं खरीदता। लेकिन उसने यह जानबूझ कर छिपाया। अतः क्रेता इस संविदा को शून्य घोषित करवाने के लिए हकदार थे (विद बनाम ओ’फैलेनगैन– 1936 Ch D 575 (1936) AIR 727) ।

“केविएट एम्प्टर” (caveat emptor) का सिद्धांत क्या है?

केविएट एम्प्टर” का शाब्दिक अर्थ होता है, “क्रेता सावधान रहे”। अर्थात जब कोई व्यक्ति कोई वस्तु किसी से खरीदता है, यानि खरीदने के लिए संविदा करता है, तो यह उसका दायित्व है कि वह यथासंभव तथ्यों का पता लगा ले, न ही विक्रेता का दायित्व है कि वह उसे अपने वस्तु की त्रुटियों को बताए। यह संविदा में कपट के सिद्धांत का अपवाद है।

इसके अनुसार अगर विक्रेता अपने विक्रय योग्य वस्तु की त्रुटियों के विषय में नहीं बताता है तो उसका मौन रहना कपट नहीं माना जाएगा। वस्तु के गुण को सामान्य रूप से बढ़ा-चढ़ा कर कहना भी कपट नहीं है। लेकिन अगर विक्रेता वस्तु के गुण के बारे में कोई मिथ्या कथन करता है तो यह कपट होगा।

अगर किसी पक्षकार की सहमति कपट द्वारा प्राप्त की गई हो, तो दूसरे पक्षकार के पास क्या विकल्प है?

अगर संविदा के किसी पक्षकार कि सहमति कपट द्वारा प्राप्त की गई हो तो ऐसे सहमति देने वाले पक्ष के पास सेक्शन 19 के अनुसार यह विकल्प होता है कि वह न्यायालय से इस संविदा को शून्य घोषित करवाए। चूँकि कपट एक अपकृत्य (tort) भी होता है इसलिए क्षतिपूर्ति के लिए भी कानूनी कार्यवाही का उसे अधिकार होता है।      

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लेकिन इस संबंध में एक अपवाद है। अगर संविदा के पक्षकार के पास इस बात का साधन या अवसर था कि वह समान्य तत्परता से सत्य का पता लगा सकता था, तो यह कपट के अंतर्गत नहीं माना जाएगा।

उदाहरण के लिए परीक्षार्थी द्वारा अपने उपस्थिति (attendance) में कमी के विषय में नहीं बताया गया। कोर्ट ने माना कि विश्वविद्यालय मामूली तत्परता से इसका पता लगा सकता था। (श्रीकृष्ण बनाम कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी– AIR 1976 SC 376)। क्रेता-विक्रेता संविदा में भी केवल अपने वस्तु की कमियों को नहीं बताना कपट नहीं माना जाएगा क्योंकि यहाँ “केविएट एम्प्टर” का सिद्धांत लागू होगा।

दुर्व्यप्देशन क्या है?

संविदा अधिनियम का सेक्शन 18 दुर्व्यप्देशन को परिभाषित करता है। इसके अनुसार अगर संविदा का कोई पक्षकार किसी ऐसे कथन को, जिसे वह सत्य मानता है, लेकिन वह वास्तव में असत्य है, दूसरे पक्षकार को कहता है और दूसरा पक्षकार इसे सत्य मान कर संविदा कर लेता है तो यह दुर्व्यप्देशन कहलाता है।

कपट के विपरीत इसमे कहने वाले का आशय दूसरे पक्ष को प्रवंचित करने का नहीं होता है। चूँकि इसमे भी एक मिथ्या कथन के आधार पर एक पक्षकार कुछ लाभ प्राप्त करता है, भले ही वह कथन निर्दोष ही क्यो न हो, इसलिए इसे भी स्वतंत्र सहमति नहीं माना जाता है।

कपट (fraud) और दुर्व्यदेशन (misrepresentation) में क्या अन्तर है?

Fraud (कपट) – misrepresentation (दुर्व्यपदेशन) में दोनों में ये अन्तर हैं–

1. दोनों में कथन मिथ्या होता है लेकिन कपट में मिथ्या कथन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो जानता है की यह मिथ्या है, जबकि दुर्व्यपदेशन करने वाला व्यक्ति कथन को सत्य मानता है।

2. कपट में मिथ्या कथन करने वाले व्यक्ति का आशय दूसरे पक्षकार को प्रवंचित करने और संविदा के लिए उत्प्रेरित करने का होता है। दुर्व्यपदेशन में ऐसा कोई गलत आशय नहीं होता है।

3. अगर संविदा के लिए सहमति कपट या दुर्व्यपदेशन द्वारा ली गई हो, तो ऐसे सम्मति देने वाले के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है। (धारा 19) लेकिन कपट द्वारा सम्मति देने वाला पक्ष अपकृत्य विधि (tort law) के अंतर्गत नुकसानी पा सकता है क्योंकि कपट एक अपकृत्य भी है, लेकिन दुर्व्यपदेशन के लिए ऐसा कोई अतिरिक्त प्रावधान नहीं है।

4. दुर्व्यपदेशन का बचाव यह हो सकता है की पीड़ित मामूली तत्परता से सत्य खोज सकता था। लेकिन कपटपूर्ण मौन के मामले को छोड़कर इसमें यह बचाव नहीं लिया जा सकता है।

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