क्या है सीएए और इससे जुड़े विवाद?
11 मार्च 2024 को केंद्र सरकार ने नोटिफ़िकेशन जारी कर 2019 में पारित हुए नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, [Citizenship (Amendment) Act- CAA] को लागू कर दिया। 2019 में जब यह कानून बना था तब इस पर बहुत विवाद हुए थे, कई जगह तो हिंसक प्रदर्शन भी हुए। इन प्रदर्शनों में दिल्ली के शाहीन भाग में महिलाओं का दो महीने तक चला प्रदर्शन सबसे चर्चित रहा था। इसलिए इस कानून को लागू करते समय सरकार भी कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सजग है और लोग भी आशंकित हैं। ऐसा क्या है इस कानून में और लोग क्यों इसका विरोध कर रहे हैं।
क्या है CAA यानि नागरिकता कानून?
संविधान का भाग 2 भारत की नागरिकता के संबंध में प्रावधान करता है। इसका अनुच्छेद 11 इस संबंध में कानून बनाने की शक्ति संसद को देता है। इसी शक्ति का उपयोग कर संसद ने 1955 में भारतीय नागरिकता अधिनियम बनाया। भारत का संविधान और यह अधिनियम नागरिकता के लिए चार आधार बनाता है- (1) जन्म (2) वंश (3) पंजीकरण, और (4) निवास। इन शर्तों के पूरा होने पर निश्चित प्रक्रिया अपना कर भारत की नागरिकता ग्रहण की जा सकती है। इस अधिनियम में 2019 से पहले 5 संशोधन हुए थे लेकिन नागरिकता के आधारों को परिवर्तित नहीं किया गया था।
पर 2019 में हुए छठे संशोधन द्वारा इनमें एक और नया आधार जोड़ दिया गया है। यह नया आधार यह है कि तीन पड़ोसी देशों- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए ऐसे छह धार्मिक समुदाय, जिन्हें इन देशों ने धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे रखा है, अगर 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में आ गए हैं और धार्मिक उत्पीड़न के आधार यहाँ नागरिकता मांगते हैं तो जरूरी प्रक्रिया पूरी करने के बाद उन्हें भारत की नागरिकता दी जा सकती हैं। ये छह धार्मिक समुदाय हैं- हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई और पारसी।
पहले विदेश व्यक्ति को नागरिकता का आवेदन करने से पहले कम से कम 11 वर्ष तक भारत में रहने की शर्त थी। अब इन छह समुदायों के लिए यह समय घट कर छह वर्ष कर दिया गया है।
क्यों हो रहा है इस कानून का विरोध और क्या हैं सरकार के तर्क?
विरोध के मुख्यतः ये आधार हैं:
1. धार्मिक आधार
इन में जिन छह समुदायों को शामिल किया गया है उनमें मुस्लिम नहीं हैं। इसलिए कुछ लोग इसे धार्मिक आधार पर भेदभाव करने वाला मान रहे हैं। इसे एनआरसी के साथ जोड़ कर कुछ लोग मुसलमानों की संख्या को कम करने का बहाना मान रहे हैं।
सरकार के तर्क
1. इस कानून द्वारा किसी का कोई अधिकार या नागरिकता वापस नहीं गया है। नागरिकता के पहले से प्रचलित सभी मापदंड अभी भी मान्य रहेंगे। नागरिकों, जिनमें मुस्लिम भी शामिल हैं, के सभी अधिकार पहले की तरह ही मान्य रहेंगे।
2. जिन तीन पड़ोसी देशों- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश- के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए नए प्रावधान किए गए हैं, वे घोषित रूप से मुस्लिम राष्ट्र हैं। इन छह धार्मिक समुदायों- हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई और पारसी- को इन देशों ने स्वयं अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है।
3. इन घोषित मुस्लिम राष्ट्र में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। इसलिए धार्मिक आधार पर उनका उत्पीड़न नहीं हो सकता है। उनका उत्पीड़न राजनीतिक या अन्य कारणों से हो सकता है। वैसी स्थिति में शरणार्थियों के लिए जो प्रक्रिया है, उसे अपना कर वे शरण की मांग कर सकते हैं। जैसे, तिब्बत के लोग राजनीतिक उत्पीड़न के कारण भारत में शरण लिए हुए हैं। शरण देने के मापदंड में भी कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। (शरणार्थी और नागरिकता में अंतर यह होता है कि शरणार्थी वे लोग होते हैं किसी विशेष परिस्थिति में अपना देश छोड़ना पड़ता है उन्हें उम्मीद होती है कि कभी हालात ठीक होगी और वे अपने देश लौट जाएंगे। नागरिकता का अर्थ है हमेशा के लिए अपने देश को छोड़ देना।)
4. चूंकि असीमित आप्रवासियों को रखना किसी भी देश के लिए संभव नहीं होता है। इसलिए पूर्वोत्तर के अवैध आप्रवासियों, जिनमें हिन्दू और मुस्लिम, दोनों शामिल हैं, की पहचान कर कानूनी प्रक्रिया के अनुसार उन्हें उनके देश में वापस भेज दिया जाएगा। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NCR) बनाया जा रहा है। यह अवैध अप्रवासन को रोक कर देश की सुरक्षा और इसके संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव को रोकने के लिए किया जा रहा है। इससे किसी समुदाय विशेष के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
5. अवैध रूप से किसी देश में आने वाला कोई भी समुदाय उस देश के लिए अपराधी होता है। यह उस देश का विशेषाधिकार होता है कि वह उनसे किस तरह का व्यवहार करे। अवैध रूप से आने के बाद कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता है कि उसे वहाँ हमेशा के लिए रहने दिया जाय और नागरिकों को मिलने वाले सारे अधिकार दिया जाय। 2019 से पहले भी यह सरकार का विशेषाधिकार था। अगर केंद्र सरकार चाहे तो वह किसी व्यक्ति को अपने देश की नागरिकता देने से या अपने देश में आने से रोक सकती है। उसके इस निर्णय को चुनौती नहीं दिया जा सकता है। विश्व के अन्य देशों में भी यही नीति है। उदाहरण के लिए अमेरिका ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर रोक लगा दी थी। मोदी इसे चुनौती नहीं दे सकते थे क्योंकि यह किसी देश के सरकार का विशेषाधिकार होता है।
6. जिन छह समुदायों को नागरिकता का हकदार माना गया है वो मूल रूप से अविभाजित/वृहत्तर भारत के जमीन के मूल निवासी है। इनमें से चार धर्मों का उद्गम स्थल भारत की जमीन ही है। वे धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण उत्पीड़ित हैं। दुनियाँ में और कोई देश ऐसा नहीं है जो उन्हें सहारा दे सके। भारत के लोगों के साथ उनके भावनात्मक संबंध हैं। इसलिए मानवीय दृष्टि से वे सहारा पाने के हकदार है सजा के नहीं।
2. देशज संस्कृति को खतरा
विरोध का यह आधार पूर्वोत्तर के राज्यों में अधिक मुखर हो रहा है। बांग्लादेश से अवैध रूप से आए अप्रवासी के कारण पहले ही वहाँ काफी समस्या हैं। इससे स्थानीय समुदायों के अपने ही घर में अल्पसंख्यक हो जाने, उनके रोजगार और संसाधनों पर अधिक दवाब पड़ने और उनकी संस्कृति को खतरा होने की आशंका व्यक्त की जा रही है।
पूर्वोतर के राज्य असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में जो हिन्दू एनआरसी लिस्ट से बाहर हो गए हैं वो इसके द्वारा यहाँ की नागरिकता लेकर इन क्षेत्रों में बस जाएंगे जिससे इनका स्थानीय जनजातीय स्वरूप बिगड़ जाएगा।
सरकार के तर्क
1. यह सच है कि पूर्वोत्तर भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़ी संख्या में अवैध बंग्लादेशी अप्रवासी, जिसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों शामिल हैं, स्थानीय लोगों में मिल गए हैं। उनके कारण स्थानीय लोगों को रोजगार और जमीन की समस्या होने लगी है। साथ ही यह स्थिति देश की सुरक्षा के लिए भी खतरनाक है। इन लोगों की पहचान कर उन्हे वापस भेजने के लिए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NCR) बनाया जा रहा है।
2. त्रिपुरा, अरुणाचल तथा कुछ अन्य राज्यों के कुछ विशेष क्षेत्रों को स्वयं संविधान द्वारा आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है जहाँ देश के अन्य भागों के व्यक्ति न तो जमीन खरीद सकते हैं और न ही स्थायी रुप से बस सकते है। ये नियम “नए नागरिकों” पर भी लागू होगा। इसलिए उनकी जनसंख्या का अनुपात बिगड़ने का कोई खतरा नहीं है।
3 जो वास्तव में धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए अवैध रूप से भारत में आ गए हैं, उन्हें एक कानूनी मापदंड के आधार पर अगर एक वैध रास्ता दे दिया जाय तो वे सामान्य नागरिक की तरह खुलेआम रह सकेंगे और देश के अन्य हिस्सों में भी जा सकेंगे। उनसे संबन्धित सभी जानकारियाँ सरकार के पास होंगी। शेष अवैध अप्रवासियों को वापस भेज दिया जाएगा। इसलिए इस कानून से इन क्षेत्र पर अप्रवासियों का दबाव बढ़ेगा नहीं बल्कि कम होगा।
3. देश के संसाधनों पर दवाब
भारत अभी भी अपने सभी नागरिकों को जीवन की मौलिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवा पाया है। इन ‘नए नागरिकों’, के कारण इसके संसाधनों पर अधिक द्वाब पड़ेगा। भारत को इजरायल-फिलिस्तीन समस्या से सीख लेनी चाहिए और अपने संसाधनों पर अधिक अनावश्यक दवाब नहीं डालना चाहिए।
सरकार के तर्क
1. वर्तमान आंकड़ों के अनुसार लगभग 30,000 लोगों को इस कानून के अनुसार भारत की नागरिकता मिलेगी। इन लोगों को रोजगार और रहने के लिए जमीन और इनके बच्चों के लिए शिक्षा संस्थाएं तो चाहिए ही। इससे संसाधन पर दवाब बढ़ेगा। लेकिन भारत की वर्तमान जनसंख्या को देखते हुए यह संख्या बहुत अधिक नहीं है।
2. अभी देश में बहुत बड़ी संख्या में अवैध अप्रवासी हैं। कई तो जरूरी दस्तावेज़ बना कर देश के अंदर के भागों तक आ गए हैं। इनकी संख्या इन ‘नए नागरिकों’ से बहुत अधिक है। ये देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा हैं क्योंकि इनकी कोई जानकरी सरकार के पास नहीं है। अगर उन्हें पहचान कर देश से बाहर कर दिया जाए तो देश के संसाधनों अनावश्य पर दबाव कम होगा, साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सही रहेगा।
4. अन्य हिंदुओं के साथ भेदभाव
विरोध का एक कारण यह भी है कि हिंदुओं के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव अन्य देशों में भी होते हैं। हमारे अधिकांश पड़ोसी देश राजनीतिक और आर्थिक रूप से अस्थिर हैं। उदाहरण के लिए श्रीलंका। वहाँ अल्पसंख्यक तमिल लोगों का बहूसंख्यक सिंहली लोगों द्वारा दमन किया जाता है। इस कानून का सरक्षण उन्हें भी मिलना चाहिए।
सरकार के तर्क
1. इन तीन देशों में से दो देश पाकितान और बांग्लादेश अविभाजित भारत के अंग रहे हैं। अफगानिस्तान भले ही अविभाजित भारत का अंग नहीं रहा है लेकिन यह वृहत्तर भारत का अंग रहा है (अशोक का साम्राज्य और हड़प्पा सभ्यता और पूर्व वैदिक सभ्यता का यह क्षेत्र रहा है। अविभाजित भारत का सीमा उससे मिलता था)। वहाँ के लोगों का अभी भी भारत से भावनात्मक जुड़ाव है। अर्थात इन तीन देश में जो अल्पसंख्यक हैं वे मूल रूप से भारतीय ही थे जो कि देश का विभाजन होने के बाद वहाँ रह गए थे।
2. इन तीनों को छोड़ कर अन्य देशों छोड़ कर अन्य पड़ोसी देश कभी भारत के अंग नहीं रहे, श्रीलंका भी नहीं। इसलिए उनके प्रति अलग नीति अपनाना तर्कसंगत है। उदाहरण के लिए जब श्रीलंका में बहुसंख्यक अत्याचार से पीड़ित होकर तमिल तमिलनाडु के तटीय क्षेत्र में शरण लेने लगे, तब उनकी बढ़ती संख्या और भारतीय तमिल जनता में उनके प्रति सहानुभूति के कारण भारत सरकार को श्रीलंका में हस्तक्षेप करना पड़ा। यह तभी संभव हुआ जबकि वहाँ की सरकार ने भारत का सहयोग लेना स्वीकार किया क्योंकि किसी अन्य संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में भारत हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।
3. अन्य देश जिनकी सीमा भारत से लगती है, में धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों से इतना अधिक भेदभाव नहीं होता है जितना इन तीन देशों में। भारत में आने वाले अवैध अप्रवासी अधिकांशतः इन्हीं तीन देशों के हैं।
4. अन्य देश के अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक अगर चाहे तो वर्तमान कानूनों के तहत भारत की नागरिकता ले सकते हैं। उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है।
5. यह आप्रवासियों में धर्म और उनके मूल देश के आधार पर भदभाव करता है
इसी भेदभाव के कारण कुछ लोग इसे संविधान के अनुच्छेद 14 में दी गई समानता के मौलिक अधिकार का हनन मानते हैं। इसी आधार पर लगभग 65 याचिकाएँ इस कानून के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं।
सरकार के तर्क
ऐसा नहीं है क्योंकि:
1. संविधान का अनुच्छेद 14 युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति देता है और यह युक्तियुक्त वर्गीकरण है।
2. यह देश में रहने वाले किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंधन नहीं करता है केवल देश में अवैध रूप से आने वाले लोगों के प्रति नीति में अंतर करता है। लेकिन यह अंतर उनके अपने देश में घोषित तौर पर उनके अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने के आधार पर है धर्म के आधार पर नहीं।
3. प्रस्तुत कानून भारत में रहने वाले किसी व्यक्ति से किसी तरह के भेदभाव की बात नहीं करता है बल्कि नागरिकता पाने के आधार और उसकी प्रक्रिया में भेदभाव करता है। अर्थात यह उनपर लागू होता है जो अभी भारत के नागरिक नहीं हैं।
6. इससे भारत मे अवैध अप्रवासियों की संख्या बढ़ेगी
जिस तीन देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने की बात की गई हैं वे सभी राजनीतिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं। संभव है वहाँ के लोग बेहतर जीवन की चाह में धार्मिक उत्पीड़न का झूठा बहाना लेकर भारत की नागरिकता लेना चाहें।
सरकार के तर्क
हाँ, इस बात कि संभावना हो सकती है क्योंकि इन तीन देशों में राजनीतिक अशांति, धार्मिक उत्पीड़न और आर्थिक बदहाली है। स्वेच्छा से कोई भी अपनी मूल जमीन नहीं छोडना चाहता है। लेकिन विवशता की स्थिति में उन्हे भारत से आस तो होगा ही।
7. भाजपा राजनीतिक फायदे और अपना स्थायी मतदाता बनाने के लिए यह कानून लायी है
सरकार के तर्क
हाँ, यह हो सकता है कि “नए नागरिक” बीजेपी के स्थायी वोटर बन जाए लेकिन उनकी कम संख्या (30,000) को देखते हुए यह कोई बहुत परिवर्तनकारी नहीं होगा।
विश्लेषण
यह सही है कि अवैध रूप से आने वाले सभी विदेशी घुसपैठिए आतंकवादी नहीं होते या देश को नुकसान पहुँचने के उद्येश्य से नहीं आते हैं। हो सकता है कि वे आर्थिक बदहाली या अपने देश की अशांत स्थिति में एक बेहतर जीवन की चाह में अवैध रूप से दूसरे देश आ गए हो। लेकिन हर देश के अपने संसाधन सीमित होते हैं जिनसे उन्हे अपने देशवासियों की जरूरते पूरी करनी पड़ती है। इसलिए बाहर से आने वाले सभी व्यक्ति को देश में आने और रहने की अनुमति नहीं देता है।
दूसरी तरफ यह भी सही है कि दुनियां के किसी भी भाग में रहने वाले हिन्दू मूल रूप से भारतीय होते है क्योंकि हिंदुओं में किसी अन्य देश मे जाकर वहाँ के मूल निवासियों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें हिन्दू बनाने की परंपरा नहीं रही है। इसके विपरीत भारत (या कई अन्य देशों में भी) वहाँ रहने वाले मुस्लिम या ईसाई समुदाय के लोग मूल रूप से इसी जमीन के होते हैं।
यहाँ हिन्दू शब्द में वे सभी धर्म शामिल हैं जिनका उद्भव भारत में हुआ है, जैसे- बौद्ध, जैन, सिक्ख। मुस्लिम या ईसाई की तरह उनका कोई और देश नही है। क्या होगा अगर कहीं इनके साथ अन्याय हो? वह सहारा के लिए किसके तरफ देखेंगे? श्रीलंका में जब बहुसंख्यक सिंहली के अत्याचार से तमिल पीड़ित हुए तो उन्होंने भारत के तमिलनाडु में ही शरण लिया और भारत को श्रीलंका में हस्तक्षेप करना पड़ा था।
इस में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के जिन अल्पसंख्यक समुदाय को भारत की नागरिकता देने की बात की गई है उनमें हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिक्खों के अतिरिक्त अल्पसंख्यक पारसी और ईसाई समुदाय भी शामिल हैं। अर्थात यह केवल हिन्दू या भारतीय धर्म नहीं बल्कि इन घोषित इस्लामिक देशों में रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के लिए है।
ये सभी वास्तव में वृहत्तर भारत (अविभाजित भारत) के मूल निवासी हैं। इनके पूर्वजो की गलती ये रही कि जब भारत का विभाजन हुआ तब ये विभाजित भारत के जमीन पर जाने के बदले अपनी मूल जमीन पर रह गए थे ठीक वैसे ही जैसे भारत में रहने वाले वर्तमान मुस्लिमों के पूर्वज अपनी जमीन छोड़ कर नहीं गए। अपनी मूल जमीन पर रहने वाले दोनों समुदाय के लोगों को शायद यह भरोसा था कि यह दंगे, त्रासदी और उत्पीड़न अस्थायी है और स्वतंत्रता और देश विभाजन के बाद कोई विवाद नही रहेगा, सब ठीक हो जाएगा। ऐसा नही था कि इन जगहों पर रहने वाले सभी भारत से द्वेष रखने वाले थे। सीमांत गाँधी कहे जाने वाले अब्दुल गफ्फार खान इसके सबसे दुखद उदाहरण है जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी लेकिन जब स्वतंत्रता मिली तब लगभग सारा जीवन ही पाकिस्तान के जेल में भारत के समर्थन के अपराध में रहे।
पर व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं है कि भारत धार्मिक रूप से उत्पीड़ित दुनिया के सभी लोगों को अपना नागरिक बना ले। अगर धर्म की सीमा हटा ले तो इसका अर्थ यह हुआ कि जो कोई भारत की नागरिकता लेना चाहे उसे दे दे। लेकिन यह किसी भी देश के लिए संभव नहीं हो सकता है। अपनी नागरिकता के लिए आवेदन करने वालों के लिए कोई तो मापदंड उसे बनाना ही होगा।