संविदा का उन्मोचन- पालन की असंभव्यता और नवीयन द्वारा (सेक्शन 56, 62, 63)- part 23

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संविदा का उन्मोचन

संविदा का उन्मोचन उस स्थिति को कहते हैं जब संविदा का पालन आवश्यक नहीं रह जाए। संविदा का उन्मोचन (discharge of contract) संविदा के पालन या भंग के अतिरिक्त इसके असंभव हो जाने या फिर से एक नए संविदा अर्थात संविदा के नवीयन द्वारा भी हो सकता है।

भारत और इंग्लैंड दोनों में अगर किसी संविदा का पालन (performance of contract) असंभव हो जाए तो संविदा शून्य (void) हो जाती है। संविदा के पालन का कार्य केवल भौतिक रूप से ही नहीं बल्कि विधिक रूप से भी अगर असंभव हो जाए तो उसे इसी श्रेणी में रखा जाता है।

विधिक रूप से असंभव हो जाने पर सेक्शन 23 लागू होगा जो विधिविरुद्ध उद्देश्य या प्रतिफल होने पर संविदा को शून्य करता है।

सेक्शन 56 दो प्रकार के असंभावनाओं का उल्लेख करता है:

  1. ऐसी संविदा जो होने के समय से ही असंभव थी (initial impossibility), और
  2. ऐसी सविदा जो होने के समय पूर्णतः संभव और विधिपूर्ण थी, लेकिन बाद में असंभव और विधिविरुद्ध हो गई (subsequent impossibility)

विफलता (नैराश्य) का सिद्धांत (the doctrine of frustration) क्या है?

अगर किसी आकस्मिक घटना के कारण किसी संविदा का पालन असंभव हो जाता है, तो वचन दाता को संविदा के पालन से छुट मिल जाती है यानि करार शून्य हो जाता है। इस स्थिति में जो उद्देश्य जो पक्षकारों के मस्तिष्क में होता है, वह विफल हो जाता है। इसे इंग्लैंड में विफलता या नैराश्य का सिद्धांत (the doctrine of frustration) कहा जाता है। भारत में यह सिद्धांत सेक्शन 56 में शामिल है।

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भारत में भी असंभवता का तात्पर्य केवल भौतिक ही नहीं बल्कि अन्य कारणों से भी अगर संभव नहीं हो या उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता हो, जिसके लिए संविदा किया गया हो, तो वह संविदा के उद्देश्य को विफल करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने सुशीला देवी बनाम हरी सिंह (AIR 1971 SC 1756) में यह दुहराया कि सेक्शन 56 उन मामलों को भी शामिल करता है, जहाँ संविदा की विषय-वस्तु और उद्देश्य को देखते हुए पालन असाध्य या व्यर्थ हो जाता है। लेकिन केवल पालन में विलम्ब किया जाना संविदा का नैराश्य नहीं होता है (आरती सुखदेव कश्यप बनाम दया किशोर अरोड़ा – AIR 1994 NOC 279)

लेकिन सेक्शन 56 उसी मामले के लिए है जब संविदा का पालन नहीं हुआ हो, अगर पालन हो चुका हो तब यह लागू नहीं होगा अर्थात निष्पादन के बाद कोई संविदा विफल नहीं हो सकती है।

उदाहरण के लिए A ने एक जमीन B से पट्टे पर लिया। उसने जमीन से आंशिक लाभ उठाया। लेकिन देश बँटवारे के बाद वह जमीन पाकिस्तान में चला गया। A ने B को दिए गए किराए के वसूली के लिए यह कहते हुए वाद किया कि पालन असंभव हो जाने के कारण संविदा विफल (frustret) हो गया और इसलिए शून्य संविदा है। लेकिन कोर्ट ने यह कहते हुए इसे ख़ारिज कर दिया कि यह एक निष्पादित संविदा था और सेक्शन 56 केवल निष्पाद्य संविदा पर लागू होता है। (ध्रुवदेव बनाम हर मोहिंदर सिंह– AIR 1968 SC 1024)।

अमीरचंद बनाम चुन्नी लाल (एआईआर 1990 P & H 345) में कोर्ट ने यह पाया कि विफलता का सिद्धांत भूमि में सम्पदा या हित बनाने वाली संविदाओं पर लागू नहीं होता है जो कि पहले ही उत्पन्न हो चुके हो।

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इस केस में एक किराएदार को कब्जे का डिक्री मिल गया। लेकिन निष्पादन न्यायालय के सामने मकान-मालिक ने यह दलील दिया कि उस भूमि पर खड़ी इमारत को म्युनिसिपल कमिटी ने गिरा दिया है और अब वहाँ केवल खाली जमीन है। कोई इमारत नहीं होने से अब डिक्री का पालन असंभव हो गया था इसलिए किराएदार कब्जे के लिए हकदार नहीं था।

यह पाया गया कि पट्टे की संविदा मालिक के लिए असंभव नहीं हुई थी। क्योंकि वह उस खाली जमीन पर फिर उसी प्रकार निर्माण कर सकता था।

अगर कोई पक्ष किसी माल की आपूर्ति इसलिए नहीं कर सके कि हड़ताल के कारण उसे मिल से माल की आपूर्ति नहीं हो सकी। वह इस आधार पर संविदा के असंभव हो जाने के कारण शून्य घोषित करवाने के लिए वाद लाए तो यह मान्य नहीं होगा क्योंकि संविदा में यह शर्त नहीं थी कि “जैसे ही माल हमे मिलों से प्राप्त होगा” [हरनन्द राय फुलचंद बनाम प्रागदास बुद्धसेन– एआईआर 1923 पीसी 54 (2)]

सेक्शन 65 के अनुसार किसी संविदा के (1) शून्य होने पर, या (2) किसी करार के शून्य होने का पता चलने पर उसके तहत उठाए गए लाभ को लौटना होगा।

उदाहरण के लिए A B को इस वचन के लिए 1000 रु प्रतिफल के रूप में देता है कि वह उसकी पुत्री C से विवाह करेगा। लेकिन जिस समय यह संविदा किया गया था उस समय C मर चुकी थी। इसलिए यह संविदा शून्य था लेकिन A B से उसे इस संविदा के लिए दिए गए 1000 रु वापस लेने का हकदार है (सेक्शन 65 का दृष्टान्त (illustration) क)   

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करार और नवीयन (agreement and novation)

सेक्शन 62 और 63 ऐसे संविदा के विषय में उपबंध करता है जिसमे पक्षकारों की बाध्यताएँ पक्षकारों की सहमति से समाप्त हो जाती है। अर्थात ये ऐसी संविदाएँ होती हैं जिनका पालन आवश्यक नहीं होता है (Contracts which need not be performed)।

सेक्शन 62 में प्रयुक्त नवीयन का आशय है किसी नई संविदा द्वारा किसी संविदा को प्रस्थापित करना। ऐसी स्थिति में पुरानी संविदा का उन्मोचन हो जाता है और पक्षकारों का दायित्व नई संविदा से उत्पन्न हो जाती है, न कि पुरानी से। नवीयन (novation) दो प्रकार का होता है:

  1. संविदा के उपबंधों में परिवर्तन द्वारा;
  2. संविदा के पक्षकारों में परिवर्तन द्वारा (इसके लिए तीनों पक्षों की सहमति जरूरी है)

सेक्शन 63 पालन के परिहार (remission of performance) से संबंध में उपबंध करता है। यह सेक्शन उस पक्षकार को, जो किसी संविदा के पालन के लिए हकदार है, अनुमति देती है कि वह–

  1. संविदा पालन से अभिमुक्ति या उसका परिहार (dispensing with or remitting performance) पूर्णतः या अंशतः दे सकेगा, या
  2. पालन के समय को बढ़ा सकेगा, या
  3. पालन के बजाय कोई अन्य तुष्टि स्वीकार कर सकेगा।
One thought on “संविदा का उन्मोचन- पालन की असंभव्यता और नवीयन द्वारा (सेक्शन 56, 62, 63)- part 23”
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