संविदा का उन्मोचन-संविदा पालन द्वारा (सेक्शन 37- 67)-part 20

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संविदा का पालन संविदा के उन्मोचन का सामान्य विधिक तरीका है। क्योंकि विधि द्वारा प्रवर्तनीयता ही एक वैध संविदा का आधार है।

संविदा के उन्मोचन (discharge of contract)

एक विधिमान्य संविदा दोनों पक्ष के लिए बाध्यकारी होता है, लेकिन जब यह बाध्यकारी नहीं रह जाता है तब संविदा का उन्मोचन हुआ कहा जाता है। पक्षकार चार प्रकार से उन्मोचित हो सकते हैं:

  1. संविदा के पालन द्वारा (by the performance of the contract)
  2. संविदा भंग द्वारा (by breach of the contract)
  3. पालन की असंभव्यता द्वारा (by the impossibility of performance)
  4. करार और नवीयन द्वारा (by agreement and novation)  

संविदा का पालन (performance of contract) (सेक्शन 37 – 67)

संविदा के पक्षकारों की बाध्यताएँ क्या हैं? अथवा, संविदा के पालन (performance of the contract) से आप क्या समझते हैं?

एक विधिमान्य संविदा का प्रत्येक पक्षकार अपने द्वारा दिए गए वचन के पालन के लिए बाध्य होते हैं। सेक्शन 37 के अनुसार सविदा के पक्षकारों का कर्तव्य होता है कि वे –

  1. संविदा का पालन करे, या
  2. संविदा के पालन के लिए प्रस्थापना (offer to perform) करे।

सेक्शन 38 के अनुसार अगर कोई पक्षकार संविदा के पालन के लिए प्रस्थापना, जिसे टेंडर भी कहते है, करे और दूसरा पक्ष इसे स्वीकार करने से मना कर दे तो वह अपालन के लिए उत्तरदायी नहीं होगा, बशर्ते:  

  1. उसके द्वारा संविदा के पालन के लिए ऑफर बिना किसी शर्त के अधीन दिया गया हो,
  2. यह उचित समय, स्थान और परिस्थितियों में किया गया हो,
  3. अगर वचन किसी वस्तु को देने के लिए हो, तो वचन ग्रहिता के पास इस बात का अवसर हो कि वह वस्तु को देख और जाँच सके कि वस्तु वही है या नहीं।
  4. अगर कई संयुक्त वचनग्रहिता हो तो पालन की प्रस्थापना उनमे से किसी एक के हित में करना भी ऑफर होगा।

उपर्युक्त दोनों परिस्थितियों में पक्षकार अपनी बाध्यताओं से मुक्त (discharge) हो जाते हैं यानि मान लिया जाता है कि उसने अपने वचन का पालन कर लिया है। लेकिन सेक्शन 63 दो ऐसी स्थितियों (अपवादों) का उपबंध करता है जब वचन के पालन की जरूरत नहीं होती है। ये हैं :

  1. ऐसे पालन से अभिमुक्ति दे दी गई हो, या
  2. इस अधिनियम के उपबंधो के तहत, या किसी अन्य विधि के अंतर्गत प्रतिहेतु (माफी) प्राप्त हो गया हो। उदाहरण के लिए सेक्शन 56 के अनुसार अगर संविदा करने के पश्चात उसका पालन असंभव या विधिविरुद्ध हो जाए तो संविदा शून्य हो जाती है और उसका पालन करना आवश्यक नहीं होता है।
  3. सेक्शन 67 के अनुसार अगर वचनग्रहिता वचन के पालन के लिए उसकी तरफ से दिए जाने वाले आवश्यक सहूलियत प्रदान नहीं करे तब भी वचन ग्राहिता वचन के अपालन के लिए दायित्वधीन नहीं होता है।
  4. सेक्शन 41 के अनुसार अगर वचनग्रहिता वचन का पालन किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर लेता है तो वचनदाता के विरुद्ध इसे फिर से लागू नहीं करवा सकता है।
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वचन पालन की प्रस्थापना या टेंडर (offer of performance or tender) क्या होता है?

अगर कोई वचनदाता अपने वचन के पालन का इच्छुक होता है और इसके लिए ऑफर देता है, लेकिन वचनग्रहिता इसे स्वीकार नहीं करता है, तो यह माना जाता है कि उसने अपने वचन का पालन कर लिया है और वचन के पालन नहीं करने के लिए उसके विरुद्ध कोई दायित्व नहीं होता।

वचनग्रहिता का यह कर्तव्य होता है कि इस तरह ऑफर को स्वीकार करे लेकिन अगर वह ऐसे नहीं करता तब माना जाता है कि वचनदाता के विरुद्ध पालन करने का अपना अधिकार खो दिया है। वचन पालन के ऑफर को भारतीय विधि में offer to performance और इंग्लिश विधि में टेंडर कहते हैं।

कब संविदा के पालन के लिए बाध्यता नहीं होती है?

  1. S. 62– संविदा के नवीकरण, विखंडन या परिवर्तन कर देने पर मूल के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
  2. S. 62– वचनग्राहिता वचन के पालन से अभिमुक्ति (dispense) दे या उसका परिहार (remit) कर दे ।
  3. संविदा शून्य हो।
  4. S. 67– वचनग्रहिता वचन के पालन के लिए आवश्यक सहूलियत देने की उपेक्षा कर दे।

व्यतिकारी वचनों (reciprocal promises) के पालन के लिए क्या नियम हैं?

व्यतिकारी वचन (अर्थात दोनों पक्षों ने कुछ ऐसा वचन दिया हो जो दोनों वचन एक-दूसरे पर निर्भर हो) के पालन के संबंध में प्रावधान भारतीय संविदा अधिनियम के सेक्शन 51 से सेक्शन 58 तक में दिया गया है। व्यतिकारी वचन दो प्रकार के हो सकते हैं:

1. जब ऐसे दोनों वचनों का पालन साथ-साथ (एक ही समय) करना हो (सेक्शन 51)

ऐसी स्थिति में वचनदाता के लिए अपने वचन का पालन करना तभी आवश्यक होगा जब कि वचनग्राहिता अपने वचन का पालन करने के लिए तैयार हो, उसके द्वारा तैयार नहीं होने पर वचनदाता के लिए भी अपने वचन का पालन करना आवश्यक नहीं होगा।

उदाहरण के लिए A एक दुकानदार है। वह B को एक क्विंटल चावल बेचने के लिए संविदा करता है। संविदा में मूल्य किश्त पर या बाद में देने का या अन्य कोई शर्त नहीं है। अर्थात मूल्य माल लेते समय ही देना है। यहाँ दोनों का वचन व्यतिकारी है और दोनों वचन का पालन एक-ही समय बिन्दु पर होना है।

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ऐसी संविदा में A द्वारा माल (यहाँ चावल) देने के वचन का पालन तभी आवश्यक है जब B उसका मूल्य उस समय देने के लिए तैयार हो। अगर B इसके लिए तैयार नहीं हो, तब A के लिए भी वचन बाध्यकारी नहीं होगा अर्थात B उसके विरुद्ध उसके वचन के पालन करवाने या संविदा भंग के लिए कोई अन्य उपचार (relief) पाने के लिए हकदार नहीं होगा।

2. जब दोनों वचनों के पालन का क्रम संविदा में निर्धारित हो (सेक्शन 52)

ऐसी स्थिति में वचनदाता को अपने वचन का पालन उसी क्रम में करना चाहिए जिस क्रम में संविदा में निर्धारित है।

3. जब दोनों वचनों के पालन का क्रम संविदा में निर्धारित नहीं हो (सेक्शन 52)

ऐसी स्थिति में संविदा के पालन का क्रम वह होगा जो उस विशेष लेनदेन (जिसके लिए संविदा हुई है) के प्रकृति के लिए अपेक्षित है।

4. जब वचन का पालन किसी शर्त के अधीन हो और को वचनग्रहिता स्वयं उस शर्त के पालन में रुकावट डाले (सेक्शन 53)

ऐसी स्थिति में वचनदाता के लिए अपने पारस्परिक वचन का पालन आवश्यक नहीं होगा। उदाहरण के लिए A B से संविदा करता है कि वह B के खान में पड़े अनुपयोगी पत्थर हो हटाएगा, लेकिन इसके लिए उपयुक्त क्रशर (पत्थर तोड़ने वाली मशीन) B उसे उपलब्ध कराएगा।

लेकिन B उपयुक्त क्षमता का क्रशर उपलब्ध नहीं करवाता है। इस कारण A द्वारा पत्थर हटाने का कार्य रुक जाता है। A अपने पारस्परिक वचन (पत्थर हटाने का) को पूरा करने के लिए आबद्ध नहीं है।

B उसके विरुद्ध इसके लिए किसी तरह का वाद नहीं ला सकता है क्योंकि A द्वारा वचन का पालन नहीं कर पाना स्वयं B के कार्य का ही परिणाम है। लेकिन A को यह अधिकार है कि वह B के विरुद्ध अपने खर्च और लाभ की हानि के लिए वाद ला सकता है। (क्लीनर्ट बनाम एबोसो गोल्ड माइनिंग कं. [(1913) 58 सोल. जो. 45]

किसी पक्षकार की मृत्यु का संविदा के पालन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

सेक्शन 37 के दूसरे पैरा के अनुसार अगर वचन के पालन से पहले किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाए तो यह उसे अपने आप संविदा के पालन की बाध्यता को समाप्त नहीं करती अर्थात मृत्यु के बाद भी सविदात्मक बाध्यता बनी रहती है। इसलिए अब उसके प्रतिनिधियों को यह बाध्यता पूरी करनी पड़ेगी। इस सामान्य नियम के तीन अपवाद है, जब उसके प्रतिनिधि बाध्य नहीं होंगे:  

  • 1. अगर उस संविदा में ही ऐसा प्रावधान हो,
  • 2. अगर संविदा का पालन व्यक्तिगत प्रवीणता की अपेक्षा करता हो,
  • 3. अगर संविदा पक्षकारों के व्यक्तिगत विश्वास पर आधारित हो।

संविदा का पालन किसके द्वारा किया जाना चाहिए?

1. वचनदाता द्वारा– अगर संविदा का:

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i.ऐसा आशय हो (कि संविदा का पालन व्यक्तिगत रूप से वचनदाता ही करेगा), या

ii.ऐसी प्रकृति हो (जिसका पालन वचनदाता द्वारा ही किया जाए जैसे किसी कलाकार द्वारा अपने कला के प्रदर्शन के लिए संविदा। इस की प्रकृति ऐसी है (व्यक्तिगत प्रकृति) कि यह कार्य किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता है),    

2. वचनदाता के अभिकर्ता (agent) द्वारा– अन्य दशाओं में

संयुक्त वचनदाता (joint promissors) के दायित्वों की प्रकृति क्या होती है?

भारतीय संविदा अधिनियम (The Indian Contract Act) का सेक्शन 42, 43 और 44 संयुक्त वचनदाताओं (दो या अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से कोई वचन देते हैं तो उन्हें संयुक्त वचनदाता कहा जाता है) के उत्तरदायित्व के विषय में उपबंध करता है। संयुक्त वचनदाताओं के दायित्व की प्रकृति निम्न प्रकार की होती है:

संयुक्त वचनदाताओं का दायित्व संयुक्त और पृथक होता है (सेक्शन 43)

संयुक्त और पृथक दायित्व का आशय यह है कि ऐसे प्रत्येक वचनदाता का दायित्व दो प्रकार का होता है– वह पृथक रूप से वचन के उतने हिस्से के लिए उत्तरदायी होता है जितने का उसने वचन दिया है। लेकिन इसके साथ ही वह पूरे वचन के लिए भी संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है।

इसका आशय यह हुआ कि अगर A और B ने संयुक्त रूप से C को 2000 (A रू 1000 और B रु 1000) देने का वचन दिया है तो दोनों ही अपने हिस्से के 1000 के लिए पृथक रूप से और संयुक्त वचन के 2000 के लिए संयुक्त रूप से उत्तरदायी है। इसलिए अगर B C को 1000 नहीं देता है तो C को यह अधिकार है कि वह A से ही 2000 वसूल ले। क्योकि A 2000 रु के संयुक्त वचन के लिए भी उत्तरदायी है। 

संयुक्त वचनदाताओं में से किसी एक या अधिक के विरुद्ध कार्यवाही बाद में क्या अन्य के विरुद्ध कार्यवाही को रोकती है?

इस संबंध में कानून में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि अगर वचनग्रहीता संयुक्त वचनदाताओं में से किसी एक या अधिक के विरुद्ध विधिक कार्यवाही करता है लेकिन अन्य को छोड़ देता है तो बाद में वह अन्य वचनदाता/वचनदाताओं के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है या नहीं?

विभिन्न न्यायिक निर्णयों में भी इस संबंध में मतभिन्नता रही है। लेकिन मुकुंददास राजा आदि के संयुक्त परिवार बनाम द स्टेट ऑफ हैदराबाद [AIR 1971 एससी 449] मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मत अभिव्यक्त किया कि जब संयुक्त वचनदाताओं के विरुद्ध कोई कार्यवाही की गई है तो डिक्री उन सब के विरुद्ध होनी चाहिए (भले ही उन्हे इसमें पक्षकार बनाया गया हो या नहीं)।

न्यायालय के शब्दों में वचनग्रहिता पहली बार किसी विशिष्ट वचनदाता के विरुद्ध कार्यवाई करे और बाद में बकाया राशि के लिए फिर अन्य के विरुद्ध, यह विधि में बुरी है। इसका आशय यह है कि अगर एक बार डिक्री हो जाए तो फिर से उसी वाद के लिए अन्य वचनदाता के विरुद्ध कानूनी कार्यवाई नहीं की जा सकती है।

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