संविदा की स्वीकृति, सूचना,और प्रतिग्रहण (केस लॉ के साथ)-part 3

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क्या संविदा के प्रतिस्थापन के संस्वीकृति की संसूचना (Communication of Acceptance of offer) आवश्यक है?

                  चूंकि ऑफर की स्वीकृति की संसूचना (communication) के बाद ही एक विधिक संविदा का गठन होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति (प्रतिग्रहण) करने वाला पक्ष प्रस्तावक को इस प्रतिग्रहण की सूचना दे दे।

प्रतिस्थापन के संस्वीकृति की संसूचना (communication of acceptance of offer) कब पूरा होता है?

             संसूचना कब पूर्ण हो जाती है यह कांट्रैक्ट एक्ट के सेक्शन 3 और 4 बताता है। जब दोनों पक्ष आमने-सामने हो तब संसूचना मौखिक या लिखित हो सकती है । कुछ स्थितियों में विवक्षित स्वीकृति कार्य द्वारा भी दिया जा सकता है।

उदाहरण के लिए जब एक व्यक्ति बस में यात्रा करता है तो वह उसका किराया देने की सहमति विवक्षित रूप से दे देता है। समय अंतराल नहीं होने के कारण यहाँ संसूचना के समय के लिए और विवाद नहीं होता है।

               लेकिन जब दोनों पक्ष एक-दूसरे से दूर हो तो डाक, तार, फोन, मेल, संदेश वाहक इत्यादि तरीकों से संसूचना दिया जा सकता है। ऐसी स्थिति में समय अंतराल होने के कारण यह विवाद होने का अवसर हो सकता है कि संसूचना कब पूरा हुआ अर्थात संविदा कब बाध्यकारी हुआ। इस संबंध में स्थिति यह है:   संसूचना (communication) तब पूरी होती है:

  1. स्वीकृतिकर्ता (प्रतिग्रहीता) के विरुद्ध (against acceptor)- जब उस व्यक्ति के ज्ञान में आ जाती है, जिसके प्रति वह की गई है। यानि प्रस्थापक के ज्ञान में आ जाए (when it comes in knowledge of proposal) ।
  2. प्रस्थापक के विरुद्ध (against proposer) – जब वह प्रतिग्रहीता की शक्ति के बाहर हो जाय (when it comes out of control of acceptor) ।

डाक द्वारा संसूचना के विषय में भारत और इंग्लैंड के कानूनी स्थिति में क्या अन्तर है?

दोनों देशों के कानूनी स्थिति में एकमात्र अन्तर प्रतिग्रहीता की स्थिति के संबंध में है। इंग्लैंड में प्रतिग्रहीता जब अपनी स्वीकृति की सूचना डाक में डाल देता है तो यह वचनदाता और वचनग्राहिता दोनों के लिए बाध्यकारी बन जाता है यानि संविदा पूर्ण हो जाती है। जबकि भारत में वचनदाता (offeror/proposer) के विरुद्ध तब पूर्ण होता है जब वह वचनग्राहिता के नियंत्रण से निकल जाता है यानि यह डाक में दाल दिया जाता है। जबकि वचनग्राहिता के विरुद्ध तब पूर्ण होता है जब कि वह वचनदाता के ज्ञान में आता है।  

                 उदाहरण के लिए A ने B को अपनी एक जमीन 5,00,000 लाख में बेचने का डाक द्वारा प्रस्ताव 12 दिसंबर को करता है। वह पत्र 14 दिसम्बर को B को मिला। B ने उसी दिन उसे खरीदने के लिए अपनी स्वीकृति उसे डाक से भेजा। लेकिन यह पत्र डाक में डालने के बाद B ने अपना विचार बदल लिया। उसने को दूसरे डाक से पत्र लिखा की यदि A उसे 4,50,000/- में यह जमीन देगा वह तभी लेगा।

इस स्थिति में यह A के विरुद्ध तब पूरा होगा जब कि 14 दिसंबर को B ने अपना स्वीकृति पत्र डाक में डाल दिया यानि कि यह उसके नियंत्रण से बाहर हो गया। जबकि B के विरुद्ध यह तब पूरा होगा जबकि वह पत्र A को मिल जाय यानि यह स्वीकृति A के ज्ञान में आ जाय।            

   इसका व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि B पहला पत्र पहुँचने से पहले किसी और तीव्रगामी साधन, जैसे तार, द्वारा अपने असहमति का पत्र भेज दे और वह पहले पहुँच जाय तो यह संविदा नहीं होगा।

दूसरी तरफ अगर A अपने पत्र के पहुंचने से पहले दूसरा पत्र भेज दे तो उसका प्रस्ताव रद्द हो जाएगा और इस आधार पर कोई संविदा का गठन नहीं होगा। (यही सिद्धांत इलेक्ट्रॉनिक मिडियम, जैसे इमेल, टेलीफोन आदि से संविदा होने की स्थिति में भी लागू होगा। इस सिधान्त का सुप्रीम कोर्ट ने भगवान दास गोवर्धन दास केडिया केस में व्याख्या किया।   केस लॉ

लालमन शुक्ला वर्सेस गौरी दत्त (Lalman Shukla v. Gauri Datt) [(1913) XL ALJR 489 (All.)

तथ्य:         प्रतिवादी (respondent) गौरी दत्त का भतीजा घर से लापता हो गया। उसने उसकी खोज के लिए अपने नौकरों को अलग-अलग जगहों पर भेजा। इन्हीं में से एक था उसका मुनीम लालमन शुक्ला (वादी-plaintiff)। प्रतिवादी ने रेल का किराया और अन्य खर्चे के लिए पैसे देकर वादी को हरिद्वार बच्चे की खोज के लिए भेजा।

          जब वादी हरिद्वार के लिए निकाल गया उसके बाद प्रतिवादी ने एक हस्तलिखित बिल द्वारा बच्चे को ढूंढने वाले व्यक्ति के लिए ₹501 के इनाम की घोषणा की। वादी को ऋषिकेश में बच्चा मिल गया। उसने प्रतिवादी को तार द्वारा इसकी सूचना दे दी। लौटने पर प्रतिवादी ने उसे 2 सोवरेन और ₹20 और दिए। वादी ने कोई मांग नहीं की।

लगभग 6 महीने बाद वादी को किसी कारण से मुनीम की नौकरी से हटा दिया गया। वादी ने प्रतिवादी द्वारा घोषित इनाम की राशि 501 में से 2 सोवरेन घटा कर ₹499 के दावे के लिए केस डाला।   विचारण न्यायालय (ट्रायल कोर्ट) ने वाद को खारिज कर दिया। वादी ने अपील की।

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  विधिक प्रश्न:        

 वादी का तर्क था कि प्रतिवादी उस व्यक्ति को ₹501 देने के लिए बाध्य था जो उस खोए हुए बच्चे को खोजता। वादी उस बच्चे को खोजने में सफल रहा। अर्थात उसने कार्य (परफॉर्मेंस) द्वारा संविदा को स्वीकृति दी। अतः वह उस इनाम राशि को पाने का हकदार था। जबकि दूसरी तरफ प्रतिवादी के वकील का तर्क था कि प्रस्तुत मामले में संविदा नहीं हुआ था।        

   न्यायाधीश बनर्जी ने विलियम्स वर्सेस कार्बाइन [(1833) 4 B&A 621)] और गिब्सन वर्सेस प्रोटेक्टर[(1891) 64 LT 594)] केस में व्यक्त मत से सहमति जताते हुए माना कि शर्तों का पालन (परफॉर्मेंस) से भी प्रस्ताव के स्वीकरण की संसूचना होती है।

विद्वान न्यायाधीश ने सर फ्रेडरिक पोलक (Law of Contracts) और अमेरिकन लेखक एशले (Law of Contract) द्वारा इन दोनों केसों की आलोचना पर भी विचार किया। संविदा अधिनियम की धारा 8 के प्रावधानों की भी विवेचना की। उपर्युक्त विभिन्न मतों पर विचार करने के बाद न्यायाधीश बनर्जी ने अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया।

                 किसी भी संविदा के लिए प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति आवश्यक है। स्वीकृति के लिए यद्यपि आशय का होना आवश्यक नहीं है लेकिन उस विशेष तथ्य या प्रस्ताव का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि इसके बिना स्वीकृति नहीं दी जा सकती है।      

                  प्रस्तुत मामले में वादी प्रतिवादी का मुनीम था। अपने मालिक के किसी खोए हुए रिश्तेदार को ढूंढना यद्यपि मुनीम के पद के लिए कार्य में शामिल नहीं था, लेकिन फिर भी उसने मालिक द्वारा बच्चे की खोज में हरिद्वार जाने के आदेश को माना। इस समय तक प्रतिवादी ने इनाम की घोषणा नहीं की थी।

अर्थात उसकी स्वीकृति प्रस्ताव से पहले और बिना उसके ज्ञान की थी। उसने जिस कार्य का दायित्व प्रस्ताव से पहले ही ले लिया उसके लिए घोषित किसी प्रस्ताव की स्वीकृति के आधार पर किसी वैध संविदा का दावा नहीं कर सकता है। न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए अपील को कॉस्ट (cost) के साथ ख़ारिज (dismissed) कर दिया।

फेल्टहाउस बनाम बिंडले (Felthouse v. Bindley) [(1862) 11 CB 867)              

  तथ्य: वादी (फेल्टहाउस) ने अपने भतीजे को पत्र द्वारा उसका घोड़ा निश्चित धनराशि (30 पाउंड 15 शिलिंग) में खरीदने का ऑफर दिया। उसने यह भी लिखा कि “अगर तुम मुझे घोड़े के विषय में कुछ नहीं बताते हो तो मैं समझूंगा कि घोड़ा 30 पाउंड 15 शिलिंग में मेरा हो गया”।

भतीजे ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन घोड़े के नीलामीकर्ता बिंडले (प्रतिवादी) को बता दिया कि वह घोड़े को ना बेचे क्योंकि वह उसे अपने अंकल के लिए रखना चाहता है। प्रतिवादी ने गलती से वह घोड़ा बेच दिया।  

                     इस मामले में यह भी निर्धारित हुआ कि चूंकि भतीजे ने प्रतिग्रहण की सूचना वादी को नहीं दी थी इसलिए दोनों के बीच कोई संविदा न होने के कारण वादी घोड़े का मालिक नहीं बना था। भतीजे का अपने अंकल को घोड़ा बेचने के आशय को अपने नीलामीकर्ता को बताना संविदा के लिए पर्याप्त नहीं था (स्वीकृति प्रस्तावक के प्रति या उसके किसी प्राधिकृत व्यक्ति के प्रति ही होना चाहिए)।    

                  दूसरा विषय बिंदु जो इस बात से स्पष्ट होता है वह यह है कि प्रतिस्थापक प्रतिस्थापना प्राप्त करने वाले व्यक्ति पर उत्तर देने का कर्तव्य नहीं लगा सकता है (अर्थात वह चाहे तो इसे स्वीकृत करे, अस्वीकृत करे या बिना जवाब दिए व्यपगत हो जाने दे)।

इसीलिए प्रस्तावक यह नहीं कह सकता है कि उत्तर नहीं मिलने के कारण उसकी प्रस्तावना का प्रतिग्रहण हो गया है। प्रतिस्थापना प्राप्त करने वाले व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह पतिस्थापना निश्चित अवधि या युक्तियुक्त अवधि के अंदर प्रतिग्रहण न करके उसे व्यपगत हो जाने दे या उसे स्वीकार कर ले। केवल चुप रहना प्रतिस्थापना का प्रतिग्रहण नहीं माना जा सकता है।

हार्वे बनाम फैसी (Harvey v. Facey)[(1893) AC 552]

                   प्रतिवादी (फैसी) जमीन के एक टुकड़े जिसका नाम “बंपर हाल पेन” (Bumper Hall Pen) था, मालिक था। वादी हार्वे उससे उस जमीन को खरीदना चाहता था। उसने प्रतिवादी को तार भेजा “क्या आप हमें बंपर हाल पेन बेचेंगे?” “सबसे कम नकद कीमत तार द्वारा बताइए।“      

                  प्रतिवादी ने तार दिया “बंपर पेन की सबसे कम कीमत 900 पाउंड है”। वादी ने दूसरा तार प्रतिवादी को भेजा “हम आपके द्वारा बताए गए 900 पाउंड पर बंपर हाल पेन खरीदने के लिए तैयार हैं। कृपया अपने हक विलेख हमें भेज दीजिए”।    

                         वादी का तर्क था कि वह तार जिसमें प्रतिवादी ने कीमत बताई थी, जमीन बेचने के लिए ऑफर था, जिसे प्रतिवादी ने दूसरे तार से स्वीकार कर लिया था। इसलिए दोनों के बीच एक वैध हो गया था।        

               प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति ने अभिनिर्धारित किया कि तारों के आदान-प्रदान से कोई संविदा नहीं हुई क्योंकि वादी ने तार द्वारा दो सवाल पूछे थे – एक जमीन बेचने की इच्छा तथा दूसरा उसका मूल्य। जवाब में प्रतिवादी ने पहले प्रश्न का उत्तर नहीं दिया केवल मूल्य बताया। तीसरे तार में वादी ने खरीदने की इच्छा बताया जो वास्तव में ऑफर था। पर इसका प्रतिग्रहण नहीं हुआ। अतः दोनों के बीच इस जमीन के लिए कोई संविदा नहीं हुई।

भगवान दास गोवर्धन दास केडिया वर्सेस मैसर्स गिरधारीलाल पुरुषोत्तम दास एंड कंपनी (Bhagwandas Goverdhandas Kedia v. M/s Girdharilal Parshottamdas & Co [(AIR 1966 SC 543]

तथ्य:  

          फोन पर बातचीत होने के बाद 22 जुलाई 1959 को दोनों पक्षों के बीच एक मौखिक समझौता हुआ। इसके अनुसार प्रतिवादी (केडिया गिनिंग फैक्ट्री एंड आयल मिल्स), जो खेलगांव में स्थित थी, कुछ व्यापारिक माल वादी (गिरधारी लाल पुरुषोत्तम दास एंड कं.) को देने के लिए राजी हो गई। लेकिन वह माल की आपूर्ति करने में असफल रही। वादी ने उसके विरुद्ध ₹31,150 का दावा अहमदाबाद के सिटी सिविल कोर्ट में डाला।    

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            वादी का तर्क था कि प्रतिवादी ने माल बेचने का प्रस्ताव दिया, जिसे वादी ने अहमदाबाद में स्वीकार किया। प्रतिवादी संविदा द्वारा अहमदावाद में माल बेचने के लिए बाध्य है। साथ ही इसका भुगतान अहमदाबाद के बैंक से ही को होना था। इसलिए संविदा का स्थान अहमदाबाद था और अहमदाबाद के कोर्ट को इस मामले को सुनने का न्यायाधिकार (jurisdiction) है।

दूसरी तरफ प्रतिवादी का तर्क था कि वादी ने माल खरीदने के लिए प्रस्ताव दिया। जिसे उसने खेलगांव में फोन पर स्वीकृति दी। माल का निष्पादन और इसके लिए भुगतान भी खेलगांव में ही होना था। इसलिए अहमदाबाद के कोर्ट को इस मुकदमे के सुनवाई का अधिकार नहीं है। उसका यह भी कहना था कि टेलिफोनिक वार्ता में संविदा का स्थान वहीं माना जाएगा जहां प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई हो। प्रतिवादी ने संविदा अधिनियम की धारा 3 और 4 का हवाला दिया।

  प्रेक्षण (observation):        

     न्यायमूर्ति (जस्टिस) जे. सी. शाह ने मत व्यक्त किया कि संविदा टॉर्ट की तरह एकतरफा नहीं, बल्कि दो तरफा होता है। अगर दोनों पक्ष एक मत नहीं होंगे तो संविदा नहीं होगी। एक पक्ष द्वारा (अभिव्यक्त या विवक्षित) प्रतिस्थापना और दूसरे पक्ष द्वारा उसी भावना और आशय के साथ उसी अर्थ में स्वीकृति संविदा के लिए आवश्यक है।

लेकिन संविदा केवल मानसिक स्थिति अर्थात प्रतिस्थापना स्वीकृत करने के आशय मात्र से नहीं होता है। इस आशय का (प्रत्यक्ष या विवक्षित) अभिव्यक्ति और इसकी प्रस्थापित को सूचना देना भी आवश्यक है, जब तक कि ऐसी सूचना देने से उसे छूट ना दी गई हो।

                न्यायाधीश ने यह भी कहा कि यद्यपि संविदा अधिनियम संविदा के स्थान के विषय में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं करता है। फिर भी इसकी धारा 3 और 4 सूचना, संस्वीकृति और प्रतिसंहरण (revocation) के विषय में है।

सेक्शन 4 कहता है कि “प्रस्थापना (proposal) की संसूचना तब पूरी होती है जब यह उसके ज्ञान में आ जाता है जिसके प्रति प्रस्थापना की गई हो। प्रस्थापना की संस्वीकृति (acceptance of proposal) की सूचना प्रतिस्थापक के विरूध्द तब पूर्ण होती है जब प्रेषण के क्रम में डाल दी जाती है और संस्वीकृतिकर्ता के नियंत्रण से बाहर हो जाती है। संस्वीकृतिकर्ता के विरुद्ध तब पूर्ण होती है जब यह प्रतिस्थापक के ज्ञान में आता है।  

            इसी तरह प्रतिसंहरण (revocation) उस व्यक्ति के विरूध्द, तो ऐसा प्रतिसंहरण कर रहा है, तब पूर्ण होता है, जब वह उसे प्रेषण के क्रम मे डाल दे और उसके नियंत्रण से बाहर हो जाए। उस व्यक्ति के विरूध्द, जिसके प्रति प्रतिसंहरण किया जाता है, तब प्रतिसंहरण पूर्ण हो जाता है जब यह उसके ज्ञान मे आता है।    

             विद्वान न्यायाधीश ने संविदा अधिनियम की धारा 2 जो कि परिभाषा खंड है, के उपखंड (a), (b), (c) और (h) पर भी विचार किया। ये धाराएँ यद्यपि संविदा के स्थान के विषय में नहीं बताती है लेकिन इससे यह स्पष्ट होता है कि अगर अन्यथा उपबंध ना हो तो संविदा तब पूर्ण हो जाती है जब संस्वीकृतिकर्ता द्वारा संस्वीकृति की जाती है और इसकी संसूचना प्रस्थापक कि दे दी जाती है।

इसलिए संस्वीकृति और संस्वीकृति की संसूचना दोनों ही एक बाध्यकारी संविदा के गठन के लिए आवश्यक है।  

           न्यायमूर्ति ने कुछ पूर्व निर्णीत मुकदमों पर भी विचार किया। उन्होंने ऐडम्स वर्सेस लिंडसेल केस [Adems v. Lindsell (1818) IB and Ald 681] का हवाला दिया जिसमें पत्र द्वारा संस्वीकृति दी गई थी।

इस केस में माना गया था कि जैसे ही पत्र प्रेषण के क्रम में डाल दिया गया, संविदा पूर्ण हो गया। इस केस में जब वादी ने संस्कृति की सूचना डाक द्वारा भेजी थी, और एक सप्ताह के बाद जब यह प्रतिवादी को प्राप्त हुआ के, बीच प्रतिवादी ने माल किसी पर-व्यक्ति (third party) को बेच दिया।

कोर्ट ने माना कि स्वीकृति पत्र डाक में डालते ही संविदा पूर्ण हो गया था। इसलिए प्रतिवादी को क्षतिपूर्ति करनी पड़ेगी।    

             इस केस में कोर्ट ने प्रश्न किया था कि अगर प्रतिवादी को तब बाध्य नहीं माना जाए, जब संसूचना प्रेषण में डाल दिया गया हो, और प्रतिवादी (प्रस्थापक) द्वारा सूचना मिलने की प्राप्ति तक प्रतीक्षा किया जाए, तो हमें संविदा के लिए संसूचना की इस प्राप्ति की सूचना वादी (संस्वीकृतिकर्ता) को मिलने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और यह अंतहीन हो सकता है

ऐडम्स केस का यह नियम हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने डनलप बनाम विंसेट हिगिंस केस [Dunlop v. Vincent Higgins (1848) 1 HCL 382] केस में पुनः पुष्ट किया। न्यायमूर्ति ने इंग्लैंड और भारत में टेलीफोन और पत्र से होने वाले संविदा संबंधी नियमों में भी तुलना की और निर्णय दिया कि वाद कारण अहमदाबाद में उत्पन्न हुआ था जहां संस्वीकृति की संसूचना फोन पर वादी को दी गई थी।

पावेल वर्सेस ली (Powell V. Lee) [(1908) 99 IT 284]

                    वादी (पावेल) एक स्कूल के हेडमास्टर के पद के लिए अभ्यर्थी था। प्रबंधक बोर्ड में सर्वसम्मति से पावेल को पद के लिए चुन लिया। बोर्ड द्वारा पावेल को नतीजे की सूचना नहीं दी गई, लेकिन बोर्ड के एक सदस्य जो कि प्राधिकृत नहीं था, अपने व्यक्तिगत हैसियत से इस विषय में पावेल को खबर कर दी। बाद में प्रबंधक बोर्ड ने दोबारा बैठक कर पावेल को अस्वीकार कर उसकी जगह किसी और को नियुक्त कर दिया।  

                   पावेल ने बोर्ड के अध्यक्ष पर संविदा भंग करने का वाद किया। यह अभिनिर्धारित हुआ कि चूंकि बोर्ड का पावेल को नियुक्त करने का फैसला बोर्ड द्वारा या किसी प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा पावेल को सूचित नहीं किया गया था। इसलिए संसूचना नहीं होने के कारण इसमे कोई संविदा नहीं हुआ था।

 क्या प्रतिस्थापना (offer) और इसके प्रतिग्रहण (acceptance) को वापस लिया (Revocation) जा सकता है?

              प्रतिस्थापना (offer) करने वाला अपनी प्रस्थापना को उसके विधितः प्रतिग्रहण से पहेल वापस ले सकता है। इसी तरह प्रतिग्रहण करने वाला प्रतिग्रहण की संसूचना से पहले अपना प्रतिग्रहण वापस ले सकता है।

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प्रतिस्थापना या प्रतिग्रहण को वापस लेना प्रतिसंहरण (revocation) कहलाता है। संविदा होने से पहले प्रतिसंहरण कर लिया जाय तो संविदा नहीं होता है। लेकिन संविदा हो जाने के बाद प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है। संविदा होने के बाद अगर कोई पक्ष उसे रद्द करना चाहता है तो उसे न्यायालय में संविदा को शून्य (void) घोषित कराने के लिए वाद लाना पड़ेगा।  

                    प्रतिसंहरण के विषय मे धारा 5 कहता है कि कोई भी प्रस्थापना उसके प्रतिग्रहण की संसूचना प्रस्थापक के विरूध्द संपूर्ण हो जाने से पूर्व किसी भी समय प्रतिसंहरित की जा सकेगी अर्थात वापस ली जा सकेगी, किन्तु उसके पश्चात नहीं।    

                       धारा 4 बताता है कि संसूचना कब पूर्ण होती है। प्रस्थापना के मामले मे इसके प्रतिग्रहण से पहले ही इसका प्रतिसंहरण किया जा सकता है उसके बाद नहीं क्योंकि प्रतिग्रहण होने के बाद यह संविदा बन जाता है। धारा 6 मे प्रस्थापनाओं को प्रतिसंहरण के चार तरीके बताए गए है:

  1.  वापस लेने का नोटिस देकर (Notice of revocation)
  2.  समय के व्यतीत हो जाने के कारण (Laps of time)
  3. संविदा के पालन का असफल हो जाना (Failure)
  4. प्रतिस्थापक की मृत्यु या पागलपन (Death or insanity)

संविदा के लिए क्या विधिक संबंध स्थापित करने का आशय होना आवश्यक है (Intention to create legal contractual relationship)?

हाँ। एक वैध संविदा के लिए offer और acceptance का आशय एक विधिक संबंध (legal contractual) की स्थापना के लिए होना आवश्यक है। यही कारण है कि सामाजिक और पारिवारिक वचन और समझौते संविदा की श्रेणी में नहीं आते और उनको लागू करने के लिए विधि का सहारा नहीं लिया जा सकता है क्योंकि ऐसे समझौते में एक विधिक संबंध बनाने का आशय नहीं होता है।

लेकिन पक्षकारों का आशय जानने के लिए परीक्षा वस्तुपरक है, व्यक्तिपरक नहीं। वचनकर्ता केवल यह कह कर कि उसका आशय विधिक संबंध बनाने का नहीं था, अपने उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता है। (कारलील केस)   केस लॉ

बालफर बनाम बालफर (Balfour v. Balfour) (1918-19) ALL ER 860 (C.A.)

तथ्य –        

   पति भारत और श्रीलंका में पदस्थापित था। पत्नी उससे अलग इंग्लैण्ड में रहती थी। दोनों के बीच यह सहमति बना कि पति प्रतिमाह पत्नी को 30 पाउंड की राशि देगा। पत्नी इसके अतिरिक्त किसी तरह का भरण-पोषण खर्च या सहायता की दावा पति से नहीं करेगी।

पति ने यह राशि देना बंद कर दिया। पत्नी ने उस पर केस किया। अब प्रश्न उठा कि क्या वह संविदा जिसके आधार पर वह अपना दावा कर रही है, एक वैध संविदा है?    

        संविदा पत्नी की तरफ से लिखा गया था। संविदा के अनुसार पति की छुटटी समाप्त होने पर वह जा रहा था लेकिन पत्नी डॉक्टर की सलाह के अनुसार यात्रा नहीं कर रही थी। जब तक (सितम्बर, 1916 में) वह पति के साथ नहीं जाएगी तब तक वह उसे 30 पाउण्ड प्रतिमाह देगा। दोनों के बीच इस राशि को लेकर कुछ मतभेद थे लेकिन बाद में दोनों 30 पाउण्ड पर राजी हो गए।

  विधिक प्रश्नः      

        विचारण न्यायालय ने पत्नी के पक्ष में फैसला दिया। पति ने अपील की। लॉर्ड जस्टिस वारिंगटन (Warrington), लॉर्ड जस्टिस एटकिन (Atkin) और लॉर्ड जस्टिस डयूक (Duke) के समक्ष प्रश्न यह था कि सामान्य व्यवस्था के तहत पति-पत्नी के बीच बनी कोई सहमति क्या संविदा माना जा सकता है?  

             इस केस में करार (agreement) और संविदा (contract) में अंतर भी स्पष्ट किया गया। लॉर्ड जस्टिस वारिंगटन (Warrington, L. J.) के मत में पत्र की भाषा से स्पष्ट था कि एक सामान्य मित्रतापूर्ण माहौल में दोनों के बीच एक सामान्य समझौता हुआ था। पत्र में ऐसा भी उल्लेख था जब पति के मित्रों पर पत्नी को होने वाले अधिक खर्चें के भुगतान के लिए पति ने अधिक राशि दिया था।    

            पत्नी की तरफ से ऐसा कोई साक्ष्य नहीं दिया गया था जिससे पता चले कि यह उसके लिए भरण-पोषण के बदले दिया जाने का भुगतान था जो उसे हर परिस्थिति में मिलती और पति का यह दायित्व होता कि भुगतान करे। 30 पाउण्ड प्रति माह पति कब तक देगा, यह भी उल्लेख नहीं था।

इसलिए यह घरेलू जीवन का सामान्य प्रक्रिया के तहत पत्नी द्वारा एक सामान्य धनराशि जिसके लिए पति आर्थिक रूप से सक्षम था, की मांग की गई और जिसे देने के लिए पति तैयार हो गया।        

       चूंकि पति ने सामान्य रूप से यह देने का प्रॉमिस किया था इसलिए जब तक वह सक्षम है तब तक अपने प्रॉमिस का सम्मान रखते हुए उसे देने के लिए बाध्य है। जबकि दूसरी तरफ पत्नी ने भी इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी। इसलिए इस सहमति को ऐसी संविदा नहीं माना जा सकता है जिसे विधि द्वारा प्रवर्तित कराया जा सके

। इसलिए यह मानना अनावश्यक है कि पति भुगतान करने में असफल रहा और पत्नी कर्ज की तरह यह राशि विधि द्वारा वसूल सकती है।            

  लॉर्ड जस्टिस एटकिन का भी मत समान ही था। उन्होंने तर्क दिया कि अगर दो व्यक्ति साथ घूमने के लिए सहमत होते हैं तो क्या वहाँ मेहमानवाजी के लिए कोई प्रस्ताव और उसका स्वीकरण होगा?

पति-पत्नी में आपसी सहमति से ऐसी व्यवस्था बिल्कुल सामान्य है और ऐसे सहमतियों को संविदा का दर्जा नहीं दिया जा सकता है और इससे किसी विधिक बाध्यता की उत्पत्ति नहीं होता है। ऐसे समझौते में दोनों पार्टी का आशय विधिक परिणाम नहीं होता है।

          उपर्युक्त ऑब्जरवेशन के आधार पर इस समझौते को संविदा नहीं माना गया और पति की अपील स्वीकार कर ली गई।

जोन्स बनाम पदवतन (Jones v Padavatton) [(1969) 1 WLR 328)]

                माँ ने बेटी को खर्चे का वचन देकर इंग्लैंड बुलाया था। जब माँ ने खर्च देना बंद कर दिया तो बेटी ने इसके लिए कोर्ट में केस लिया । लेकिन विधिक संबंध का आशय साबित नही हो सका । करार न तो लिखित था और न ही पालन के लिए समय निर्धारित था । इसलिए कोर्ट ने संविदा नहीं माना।

मेरिट बनाम मेरिट (Meritt v Meritt)[(1970) 1 WLR 1211]

             पति-पत्नी का संयुक्त मकान था। पति अन्य स्त्री के साथ अलग रहने लगा और पत्नी से समझौते के लिए नोट लिखा। इसमे विधिक आशय था, इसलिए संविदा था।

एसबीआर मुदालिया बनाम राजा बाबू
(AIR 1995 SC 1607)

करार को शिष्ट समझौता कहा गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविदा माना।

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