संविदा निर्माण:केस लॉ-भाग 5

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संविदा का निर्माण

एक पक्ष (प्रस्थापक offerer) द्वारा प्रस्थापन (offer) करना और इसकी संसूचना दूसरे पक्ष (offeree अर्थात जिसके प्रति प्रस्थापन किया गया है) को देना। Offeree द्वारा उसे स्पष्ट और अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया जाना और इस संस्वीकृति की संसूचना पहले पक्ष (offerer) को देना। ये संविदा निर्माण के सामान्य चरण हैं। जिसके विषय में हम पिछले आलेख में पढ़ चुके हैं।

संविदा का निर्माण के लिए हरिद्वार सिंह वर्सेस बेगम सुंबरुई और इंडियन एयरलाइन्स कार्पोरेशन वर्सेस माधुरी चौधरी अत्यंत महत्वपूर्ण केस लॉ है।

हरिद्वार सिंह वर्सेस बेगम सुंबरुई (Haridwar Singh V. Bagum Sumbrui)[(1973) 3 SCC 889

तथ्य: (तत्कालीन बिहार के) हजारीबाग जिला के उत्तरी चतरा प्रभाग में बांस (bamboo) का एक कुंज था जिसका नाम था “बंठा बाँस कुंज”। 22 जुलाई, 1970 को, बिहार सरकार के वन विभाग ने सार्वजनिक नीलामी द्वारा इस कुंज (coup) के दोहन के अधिकार के नीलामी के लिए विज्ञापन दिया था।  

  यह नीलामी 7 अगस्त, 1970 को प्रभागीय वन अधिकारी के कार्यालय में आयोजित किया गया। इस नीलामी में अपीलकर्ता (हरिद्वार सिंह) सहित पांच व्यक्तियों ने भाग लिया। हालांकि निविदा सूचना में निर्धारित आरक्षित मूल्य 95,000 / – रुपये था लेकिन अपीलार्थी की बोली 92,001/- सबसे अधिक थी और इसलिए प्रभागीय वन अधिकारी द्वारा स्वीकार किया गया था। इसके बाद अपिलार्थी ने 23,800/- की प्रतिभूति राशि जमा की और इस संविदा को निष्पादित (executed) किया।    

  प्रभागीय वनाधिकारी ने अपने पत्र द्वारा दिनांक 25 अगस्त, 1970 को इस नीलामी की सूचना संरक्षक, वन विभाग, हजारीबाग सर्किल को दिया । चूंकि प्रारम्भिक रूप से जिस मूल्य को नीलामी के लिए निश्चित किया गया था वह 50,000 से ज्यादा था इसलिए इस नीलामी से संबन्धित डॉक्युमेंट्स को वन संरक्षक ने बिहार सरकार के वन विभाग के उप सचिव को संपुष्टि के लिए अग्रेषित कर दिया।

चूँकि यह नीलामी निश्चित मूल्य (आरक्षित मूल्य) से कम पर किया गया था इसलिए इसे वित्त विभाग के पास भी भेजा गया। वित्त विभाग ने कम मूल्य पर नीलामी के लिए 30 अक्तूबर, 1970 को डिविजिनल फॉरेस्ट ऑफिसर से स्पष्टीकरण मांगा।

जब यह मामला सरकार के पास लंबित था, अपिलार्थी ने नीलामी से लिए आरक्षित मूल्य 95,000/- पर इसे खरीदने की इच्छा जताते हुए विभाग से इसकी सूचना दे दी (26 अक्तूबर, 1970)। उसने पुनः 3 नवंबर को अधिकतम बोली के आधार पर यह नीलामी खरीदने के लिए अपनी सहमति जताते हुए आवेदन किया ।

27 नवंबर को वन मंत्री ने यह निर्देश दिया कि उस कुंज की नीलामी अपीलार्थी को सबसे अधिक बोली, जो कि उसके लिए आरक्षित मूल्य है, पर दे दिया जाय। 28 नवंबर को इस आशय का एक टेलीग्राम हजारीबाग सर्किल के वन संरक्षक को भेजा गया। चूँकि उसे डिवीज़नल फॉरेस्ट ऑफिसर से कोई सूचना नहीं मिली थी, इसलिए उसने मंत्री द्वारा इस बिक्री को संपुष्ट करने की सूचना अपीलार्थी को नहीं भेजा।

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4 दिसंबर को मोहम्म्द याक़ूब (प्रतिवादी संख्या 6) ने बिहार सरकार (प्रतिवादी संख्या 1) के समक्ष एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसमे उस बाँस कुंज को 1,01,125/- रु में खरीदने की इच्छा जताया गया था।

5 दिसंबर, को सरकार द्वारा एक टेलीग्राम डिवीज़नल ऑफिसर को भेजा गया जिसमे उसे पहले वाले टेलीग्राम के आधार पर कोई कार्यवाही करने से रोक दिया गया था।

टेलीग्राम डिवीज़नल ऑफिसर को 10 दिसंबर को मिला। उसने 10 दिसंबर के टेलीग्राम द्वारा सरकार को सूचित किया कि उसे 28 नवंबर का टेलीग्राम नहीं मिला है इसलिए उसने इसकी सूचना अपीलार्थी को नहीं दिया है।        

पूरा मामला वन मंत्री के समक्ष लाया गया। मंत्री ने 13 दिसंबर को अपीलार्थी के साथ पहले वाला संविदा रद्द कर के मोहम्म्द याक़ूब के पक्ष में यह बिक्री कर दिया। इस आशय का टेलीग्राम वन संरक्षक और प्रभागीय वन अधिकारी (डिवीज़नल फॉरेस्ट ऑफिसर) को 21 दिसंबर को भेजा गया।      

  अपीलार्थी ने कोर्ट में एक रिट फ़ाइल किया। उसका तर्क था कि नीलामी के लिए उसकी बोली डिवीज़नल फॉरेस्ट ऑफिसर ने स्वीकार किया था जो कि सरकार के अनुमोदन के बाद अंतिम होना था। इसलिए जब सरकार ने 27 नवंबर को इसे स्वीकार कर लिया तब दोनों के बीच संविदा हो गया जो दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी था।  

  इसलिए 13 दिसंबर को प्रतिवादी नंबर 7 के पक्ष में नीलामी की बोली स्वीकृत करना अवैध है। उसने राजनगरम विलेज को-ओपरेटिव सोसाइटी वर्सेस वीरासामी मुदले [AIR 1951 Mad. 322] को उद्धृत किया जिसमे कोर्ट ने कहा था कि अगर स्वीकृति सशर्त हो और उस शर्त की पूर्ति हो जाए तो संविदा का निर्मार्ण हो जाता है और किसी संसूचना की आवश्यकता नहीं रह जाती है।  

                      कोर्ट ने विभिन्न मतों पर विचार करने के बाद कहा कि प्रस्तुत मामला ऐसा नहीं है जिसमे डिवीज़नल ऑफिसर द्वारा स्वीकृति सरकार के स्वीकृति (संपुष्टि) के अधीन हो बल्कि इसमे सरकार को स्वीकृति (संपुष्टि) डिवीज़नल ऑफिसर द्वारा सशर्त स्वीकृति देने पर देना था (क्योंकि ऑफिसर ने आरक्षित मूल्य से कम मूल्य पर बोली स्वीकार किया था)।

मंत्री ने अपीलार्थी द्वारा 95,000 के नए ऑफर को स्वीकृति दिया था, न कि ऑफिसर द्वारा स्वीकार किए गए 92,000 को और इस नए संविदा की सूचना वन संरक्षक द्वारा अपीलार्थी को नहीं दी गई थी। यहाँ तक कि उसे सूचना प्रेषित भी नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त अपीलार्थी ने स्वयं अपना ऑफर (सबसे ऊँची बोली के आधार पर खरीदने का) नया ऑफर देकर प्रतिसंहरित (revoke) कर लिया था।

इसलिए कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सरकार और अपीलार्थी के बीच कोई वैध संविदा नहीं था।

इंडियन एयरलाइन्स कार्पोरेशन वर्सेस माधुरी चौधरी(Indian Airlines Corporation V. Madhuri Chowdhuri [AIR 1965 Cal. 253]

    यह वाद 10 दिसंबर, 1954 को स्थापित किया गया था। 12 दिसंबर, 1953 को सुबह 3:25 बजे नागपुर से मद्रास के लिए उड़ान भरने वाला डकोटा हवाई जहाज VT-CHF नागपुर में ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया।

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    इस हवाई दुर्घटना में सभी यात्रियों और चालक दल के सदस्यों की मृत्यु हो गई और केवल पायलट डेसमंड आर्थर जेम्स कार्टनर जीवित रहे यद्यपि वे भी बुरी तरह झुलस गए थे। इन मृतकों में लगभग 28 वर्ष की आयु का एक युवा व्यवसायी सुनील बरन चौधरी भी था जो कि कलकत्ता से नागपुर होते हुए मद्रास जा रहा था ।    

मृतक सुनील चौधरी की विधवा माधुरी चौधरी ने स्वयं अपने, अपने नाबालिग पुत्र और नाबालिग पुत्री की तरफ से इंडियन एयरलाइंस के विरुद्ध 10 दिसंबर, 1954 को याचिका दायर किया।

याचिकाकर्ता (plaintiff) के अनुसार यह दुर्घटना तब हुई जब उक्त विमान ने नागपुर हवाई अड्डे के अंत से लगभग दो मील दूर उतरने का प्रयास किया, लेकिन इंजन में खराबी के कारण ऐसा नहीं कर सका।

इस कारण प्रतिवादी (respondent) सुरक्षित रूप से यात्रियों को ले जाने के लिए अनुबंध के उल्लंघन के लिए और the Carriage by Air Act और/या इसके अधिसूचना के तहत उल्लिखित कर्तव्यों के उल्लंघन के लिए दोषी है और इसलिए क्षतिपूर्ति देने के लिए उत्तरदायी है।

याचिका में वैकल्पिक वाद भी था जिसके अनुसार मृतक की मृत्यु जिस दुर्घटना में हुआ वह प्रतिवादी की लापरवाही और कदाचार (misconduct) के कारण हुआ था। याचिका में इन लापरवाहियों का अलग-अलग विशेष रूप से उल्लेख किया गया था।

  1. विमान के पोर्ट इंजन ने हवा मे लटकने के कारण जल गया और कार्य करना बंद कर दिया। यह दोषपूर्ण पर्यवेक्षण और जांच का परिणाम था।
  2. यह कि जब पोर्ट इंजन ठीक हो गया तो भी उसके हवा मे लटके होने को ठीक नहीं किया गया। एक बार पोर्ट इंजन फेल होने के बाद भी पायलट और/या कैप्टन ने इसके लिए सामान्य प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया। ऐसी स्थिति में, जब इंजन फेल था और एयरपोर्ट पर जहाज को उतारने के लिए पर्याप्त स्थान था, पायलट ने सही तरीके से नहीं उतारा।
  3. इंजन का अग्नि चेतावनी प्रणाली भी सही नहीं थी जो कि दोषपूर्ण पर्यवेक्षण का एक और उदाहरण था।
  4. आपातकाल में विमान से सुरक्षात्मक प्रणाली की जाँच एक साल से संभवतः नहीं दिया गया था और अगर ऐसे कोई जाँच हुई भी थी तो यह पायलट के ज्ञान में नहीं था और उसे इसके लिए पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया गया था ।

उपर्युक्त आधार पर वादी ने क्षतिपूर्ति के लिए कोर्ट से माँग की।  

 प्रतिवादी (इंडियन एयरलाइंस कॉरपोरेशन) ने मृतक को जारी किए गए 11.12.1953 के हवाई टिकट के छूट खंड के नियम और विनियमों (terms & condition) का बचाव लिया ।

इस खंड में कहा गया है कि निगम यात्रियों या उसके कानूनी प्रतिनिधियों या आश्रितों की मृत्यु, चोट या यात्री को देरी या उनकी संपत्ति के नुकसान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। उसने यह भी कहा कि मृतक इन शर्तों को जानते हुए भी यात्रा करने के लिए तैयार हुआ था। अतः दोनों के बीच किसी तरह इस अनुबंध और इसके उल्लंघन (breach of contract) का वाद सही नहीं है।

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    उसने कैरिज बाय एयर एक्ट द्वारा लगाए गए कर्तव्यों के उल्लंघन के आरोप का भी खंडन किया। प्रतिवादी ने कदाचार, लापरवाही, दोषपूर्ण पर्यवेक्षण या जांच के आरोपों से इनकार किया।

प्रतिवादी ने इससे इनकार किया कि प्रभारी पायलट को सीधे जमीन पर विमान उतरने का प्रयास करना चाहिए था।   उसके अनुसार यह निर्णय में एक त्रुटि थी जिसके लिए पायलट को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।

वह पायलट एक कुशल और सक्षम पायलट था और उसने सद्भाव के साथ निर्णय लिया था। विमान का नियमित रूप से निरीक्षण होता था और चालक दल के पास वैध लाइसेंस थे और वे उड़ान भरने के लिए पर्याप्त योग्य थे।

ऑल-अप वजन अधिकृत टेक-ऑफ वजन से अधिक नहीं था, और टेक-ऑफ से पहले विमान की उचित सावधानी के साथ परीक्षा भी की गई थी। इस आधार पर प्रतिवादी ने अपने को किसी भी क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी नहीं माना।


ट्रायल कोर्ट ने अनुबंध में छूट वाले खंड (exemption clause) को अवैध, अमान्य, गलत और शून्य ठहराया । कोर्ट ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट वर्सेस रुक्मिणी बाई (AIR 1937 नागपुर 354) मामले पर कोर्ट द्वारा दिए गए प्रेक्षण पर भरोसा किया। इसने कैप्टन कार्टनर को भी लापरवाही के लिए दोषी माना ।

कोर्ट ने यह भी कहा कि गाड़ियों के मामले में कानून द्वारा लगाए गए उत्तरदायित्व केवल अनुबंध पर नहीं बलिक और भी कई दृष्टियों से देखा जान चाहिए। विद्वान ट्रायल जज ने तीन वादी को 1,50,000 रु की एकमुश्त राशि प्रदान की, जिसे उनके बीच समान रूप से विभाजित किया जाना था । 5000 रु अनुकंपा राशि का भी आदेश दिया।    

इस निर्णय के विरुद्ध इंडियन एयर लाइंस ने अपील की। कोर्ट ने छूट खंड को सही और वैध मानते हुए वादी के क्लेम को तोषणीय (maintainable) नहीं माना।

बेंच ने मृतक के टिकट में उल्लिखित छूट क्लॉज को बरकरार रखा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह संविदा अधिनियम के प्रावधानों (सेक्शन 23) के खिलाफ नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि मृतक ने अपने जीवनकाल के दौरान किसी अनुबंध (contract) द्वारा खुद को क्षतिपूर्ति का दावा करने के अधिकार वंचित रखा है, तो अधिनियम के तहत उसके आश्रित या लाभार्थी भी इसके लिए दावा नहीं कर सकते है ।    

                खंडपीठ ने कहा कि res ipso loquitor’ (means mere occurrence of some types of accident is sufficient to imply negligence) का विधिक सिद्धान्त प्रत्येक दुर्घटना के विशेष परिस्थितयों को देखते हुए लागू भी हो सकता है और नहीं भी। अर्थात इसका लागू होना प्रत्येक दुर्घटना के तथ्यों पर निर्भर करती है।

उसने यह भी कहा कि यह मुख्य रूप से साक्ष्य का एक नियम है। कैप्टन कार्टनर के कार्यों को निर्णय की भूल माना जा सकता था। प्रतिवादी की तरफ से किसी भी तरह का लापरवाही और कदाचार भी साबित नहीं हो सका।

उपर्युक्त आधारों पर कोर्ट ने एयरलाइन्स से अपील को स्वीकार कर लिया।

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