साधारण अपवाद: तथ्य की भूल- पार्ट 4.1
आईपीसी- अध्याय 4
भारतीय दण्ड संहिता का अध्याय 4 साधारण अपवादों का उपबंध करता है जो कि संहिता के तहत समस्त अपराधों पर लागू होता है। इसी संहिता का धारा 6 इस आशय का उपबंध करता है। धारा 6 के अनुसार:
‘‘इस संहिता में सर्वत्र, अपराध की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबंध और हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबंध का हर दृष्टांत, “साधारण अपवाद” शीर्षक अध्याय में अंतरविष्ट अपवादों के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादों को ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबंध या दृष्टांत में दुहराया न गया हो।‘‘
धारा 6 का आशय यह है कि इस संहिता के तहत प्रत्येक अपराध को गठित करने के लिये यह आवश्यक है कि वह अपराध अध्याय 4 के किसी अपवाद में नहीं आता हो। इन सभी अपवादों को एक अध्याय में रखा गया है ताकि इन्हें बार-बार दुहराना ना पडे। इस अध्याय में उल्लिखित प्रतिरक्षाओं का बचाव अभियुक्त इस संहिता या विशिष्ट या स्थानीय विधि के अन्तर्गत अपराधों मे ले सकता है।
अध्याय 4 में उल्लिखित सिद्धांत वास्तव में साक्ष्य के सिद्धांत हैं जो निश्चयात्मक या खण्डनीय (rebuttable) उपधारणा से संबंधित हैं। वे उन परिस्थितियों से संबंधित हैं जो मनःस्थिति के अस्तित्व को प्रतिषिद्ध (preclude) करती है। हुदा के शब्दों में ये किसी कार्य के लिए ‘‘आपराधिक दायित्व से मुक्ति की शर्तें‘‘ हैं।
इस अध्याय में उल्लिखित प्रतिरक्षा अभियुक्त इस संहिता या विशिष्ट या स्थानीय विधि के अंतर्गत अपराधों में ले सकता है।
इस अध्याय में वर्णित अपवादों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-(1) क्षम्य (excusable), और (2) युक्तिसंगत या न्यायोचित (justifiable)।
क्षम्य प्रतिरक्षाएँ वे हैं जिनमें कारित कार्य मनःस्थिति के आवश्यक तत्वों के अभाव के कारण क्षमायोग्य है। ऐसे मामले में कार्य इसलिए अपराध नहीं होता क्योंकि अभियुक्त का आशय आपराधिक नहीं था। धारा 76 से 95 क्षम्य अपराधों की श्रेणी में आतें हैं।
युक्तियुक्त या न्यायोचित कार्य ऐसे कार्य होते हैं जिन्हें क्षमा नहीं किया जाता किंतु उस विशेष परिस्थिति में तर्कसंगत ठहराया जाता है। इसलिए ऐसे कार्य यद्यपि आपराधिक होते हैं किन्तु दण्डनीय नहीं होते। धारा 96 से 106 इस श्रेणी के प्रतिरक्षा का उपबंध करती है।
अध्याय 4 में 7 प्रकार के साधारण अपवादों का उपबंध हैः
- तथ्य की भूल (mistake of law) (धारा 76 और 79)
- न्यायिक कार्य (judicial act) (धारा 77, 78)
- दुर्घटना (accident) (धारा 80)
- तुच्छ अपराध (धारा 95)
- बाल्यपन (infancy) (धारा 82-83)
- पागलपन (insanity) (धारा 84)
- मत्तता (intoxication) (धारा 85, 86)
- सहमति (consent) (धारा 87-91)
- संवाद (communication) (धारा 93)
- बलप्रयोग या अवपीडन (duress) (धारा 94)
- आवश्यकता (necessity) (धारा 81)
- प्राइवेट प्रतिरक्षा (धारा 96 से 106)
तथ्य की भूल (Mistake of facts) (धारा 76 और 79)आईपीसी की धारा 76 और 79 ऐसे स्थितियों के विषय में उपबंध करता है जब तथ्य संबंधी किसी भूल के कारण कोई ऐसा कार्य करता है जो अन्यथा अपराध होता।
धारा (section) 76, IPC:
धारा 76 के निम्नलिखित अवयव हैं अर्थात इन तत्त्वों की उपस्थिति होने पर ही अभियुक्त इस सेक्शन का लाभ ले पाएगा:
- कर्ता उस कार्य को करने के लिए विधि द्वारा बाध्य हो, या
- अपने को उस कार्य को करने के लिए विधि द्वारा बाध्य समझता हो,
- ऐसा वह सद्भावपूर्वक विश्वास से करता हो, और
- ऐसा विश्वास वह तथ्य संबंधी भूल के कारण करता है विधि संबंधी भूल के कारण नहीं।
धारा (section) 79, IPC:
धारा 79 के लिए मुख्य अवयव हैः
- तथ्य की भूल के अन्तर्गत किया गया कोई कार्य;
- भूल तथ्य से संबंधित होनी चाहिए, विधि से नहीं;
- भूल सद्भाव से कारित होनी चाहिए;
- कर्ता या तो विधि द्वारा न्यायानुमत हो या वह अपने आप को न्यायानुमत होने का विश्वास करता हो।
धारा 76 और 79 में अंतर (differences between section 76 and 79):
धारा 76 में कर्ता तथ्य की भूल के कारण अपने को विधि द्वारा बाध्य (bound by law) मानता है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है और वह कोई अपराध कर रहा होता है। जबकि धारा 79 में तथ्य की भूल के कारण कर्ता अपने को विधि द्वारा न्यायानुमत (justified by law) मानता है। अर्थात् दोनों में मौलिक अंतर केवल अपने को विधि द्वारा बाध्य और विधि द्वारा न्यायानुमत मानने का है। तथ्य की भूल दोनों में ही होता है।
यद्यपि तथ्य का भूल क्षम्य है और इसके तहत किया गया कोई अपराध दण्डनीय नहीं होता है, लेकिन यह नियम दो अपवादों के अधीन हैः
- यदि सर्तकता से पता करने पर वास्तविक स्थिति पता चल सकता था। उदाहरण के लिए तलाक की डिक्री द्वारा विवाह विच्छेद का विश्वास करते हुए दूसरा विवाह कर लेना जबकि वास्तव में डिक्री पास नहीं हुई हो क्योंकि सम्यक सर्तकता से इस तथ्य का पता लगाया जा सकता है।
- जहाँ विधि द्वारा उस अपराध के लिए दुराशय की आवश्यकता नहीं हो और कार्य अपने आप में अपराध गठित करता हो।
ignorantia corumquoe scire tenetur non-excusat – (उन वस्तुओं को नहीं जानना जिसे जानने के लिए हर कोई बाध्य है, क्षम्य नहीं है) (हेल) ignorantia facti excusat ignoantia juris non-excusat (तथ्य की भूल क्षमा करती है , विधि की भूल क्षमा नहीं करती) (लैटिन सूत्र) ignorantia facti doth excuse (तथ्य की भूल क्षम्य है) । malum in se and malum prohibitum (ऐसा कार्य जो स्वयं में दोषपूर्ण है तथा ऐसा कार्य जो विधि द्वारा प्रतिषिद्ध है)। |
Case law
स्टेट ऑफ उडीसा वर्सेस रामबहादुर थापा (AIR 1960 Ori 16)
संबंधित धारा: 79
तथ्य: उड़ीसा के एक परित्यक्त हवाई अड्डे के पास आदिवासियों के कई गाँव थे। गाँववाले भूतप्रेत में बहुत विश्वास रखते थे। उस हवाई अड्डे के आसपास भूत होने की बात कही जाती थी इसलिए वहाँ से गाँव जाने वाले पगडंडियों पर रात को कोई गाँववाले नहीं चलते थे।
एक व्यापारी जो कि उस हवाई अड्डे के रद्दी सामान को खरीदने आया था, एक गाँव में अपने एक नेपाली नौकर के साथ आया। दोनों एक ग्रामीण के घर पर ठहरे।
घटना की रात को पड़ोस की गाँव का एक व्यक्ति भी उस गाँव में आया था और रात होने पर वह भूतों के डर से अपने गाँव वापस नहीं गया और उसी ग्रामीण के चाय की दुकान में ठहर गया। व्यापारी और उसका नौकर भूत को देखना चाहते थे। उनके आग्रह पर जिस ग्रामीण के घर वे रूके थे और जो अन्य ग्रामीण उसकी चाय की दुकान पर रूका था, सभी आधी रात को हवाई अड्डा की तरफ भूत देखने के लिए गए।
उनका मानना था कि इस समय वहाँ भूत दिखेगा। अन्य गाँव वाले व्यक्ति को उसके गाँव में छोड़ने के बाद सभी हवाइ अड्डे से निकलने वाले पगडंडी से आ रहे थे।
उन्होंने कुछ दूरी एक टिमटिमाते हुए रोशनी के पास कुछ छायाकृतियों को देखा। वह गामीण जिसके यहाँ सब रूके थे, बोला ‘‘ये रहे भूत‘‘।
इतना सुनते ही उनका नेपाली नौकर (अभियुक्त) अपनी खुखरी लेकर उन आकृतियों के पास पहुँचा और उनपर अंधाधुध हमला कर दिया। वह ग्रामीण उसके पास पहुँचा लेकिन उसे भी उसने खुखरी से घायल कर दिया। तब वह जोर से चिल्लाया जिससे अभियुक्त सचेत हुआ। उसके हमले में एक व्यक्ति मारा गया और कई घायल हो गये। बाद में यह पता चला कि वे सब ग्रामीण थे जो लालटेन की रौशनी में महुआ का फूल चुन रहे थे।
अभियुक्त हत्या के लिए धारा 302 और अन्य लोगों को घायल करने के लिए धारा 326 के तहत विचारण किया गया। सेशन कोर्ट ने उसे धारा 79 का लाभ दिया क्योकि वह तथ्य की भूल के तहत कार्य कर रहा था उसने ग्रामीणों पर मानव नहीं बल्कि भूत समझ कर हमला किया था।
अभियोजन पक्ष यद्यपि इस पर सहमत था कि अभियुक्त का आशय किसी मानव की हत्या करना नहीं था लेकिन उसका दलील यह था कि अभियुक्त ने सतर्कता और सावधानी से काम नहीं किया और इसलिए उसे धारा 304क के अन्तर्गत मृृत्यु कारित करने के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए।
अभियुक्त के पास टॉर्च था, वह उससे देख कर यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर सकता था कि वे वास्तव में भूत हैं या मनुष्य। उसके दोषमुक्ति के विरूद्ध राज्य ने हाई कोर्ट में अपील की।
विधिक प्रश्न – धारा 79 का वास्तविक आशय क्या है और क्या सम्यक सर्तकता और सावधानी का ऐसा कोई मानक बनाया जा सकता है जो प्रत्येक परिस्थिति और स्थान के लिए लागू होता हो? क्या अभियुक्त इस धारा के लाभ का हकदार है?
हाई कोर्ट ने प्रेक्षण किया कि धारा 79 उस स्थिति में प्रवर्तनीय है जब कोई व्यक्ति सद्भावपूर्वक यह विश्वास करता है कि उसका कार्य न्यायानुमत है। धारा 52 सद्भावपूर्वक में सम्यक सर्तकता और ध्यान को आवश्यक बताता है। लेकिन सम्यक सर्तकता और ध्यान के लिए को सर्वव्यापी मानक नहीं बनाया जा सकता है । क्योंकि यह उस व्यक्ति की व्यक्तिगत क्षमता और बौद्धिक स्तर पर निर्भर करता है जिसके व्यवहार का परीक्षण किया जाना है।
उसकी स्थिति और व्यवसाय को ध्यान में रखे बिना विधि सभी व्यक्तियों से समान सर्तकता और ध्यान की अपेक्षा नहीं कर सकता है। यह प्रत्येक के लिए उसकी स्थिति पर निर्भर करता है और भिन्न मामलों में भिन्न हो सकता है।
प्रस्तुत केस में अभियुक्त उस स्थान के लिए नया था और किसी से उसकी कोई दुश्मनी नहीं थी। गवाहों के बयान से स्पष्ट है कि वह भूतों में विश्वास करता था और जब वह टिमटिमाते रौशनी की तरफ बढ़ा तब वह यह नहीं सोच पाया कि वह किसी मानव की तरफ बढ़ रहा है।
वह हवाई अड्डा और आसपास का क्षेत्र भूतों के लिए कुख्यात था और आधी रात को उन्हे वहाँ देख कर वह लगभग निश्चित हो गया कि वे भूत ही हैं। वे भूत देखने के लिए ही गाँव से निकले थे। न तो उसके मालिक और न ही वह ग्रामीण ने उसके दिमाग से यह वहम निकालने का प्रयास किया । उल्टे वे भी भूत देखने चले गए जिससे उसका विश्वास और बढ़ा।
वह भूत देखने के लिए इतना उत्तेजित था कि जैसे ही उसने टिमटिमाते रौशनी में कुछ आकृतियाँ देखी, एक क्षण भी नहीं सोचा और उनपर हमला कर दिया।
अभियुक्त की स्थिति और सम्पूर्ण परिस्थतियों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि उसने सम्यक सर्तकता और ध्यान से कार्य नहीं किया। अगर उसे थोड़ी भी शंका होती तो वह टॉर्च से उन्हें देखकर सुनिश्चित करने का प्रयास करता। यहाँ तक कि उससे अधिक मानसिक योग्यता वाले उसके मालिक और ग्रामीण ने भी उसे उसके विश्वास के विरूद्ध कुछ नहीं कहा बल्कि यह कह कर कि यह रहा भूत उसके विश्वास को और पक्का कर दिया।
परिणामस्वरूप वह हमला करते समय यही समझ रहा था कि वह भूतों पर हमला कर रहा था। इसलिए जब तक कि यह साबित नहीं कर दिया जाय कि वह सद्भाव से कार्य नहीं कर रहा था उसे धारा 79 का लाभ मिलेगा।
हाई कोर्ट ने राज्य की अपील को खारीज कर उसके दोषमुक्ति के निर्णय को बनाए रखा।
स्टेट ऑफ उडीसा वर्सेस भगवान बारिक(1987) 2 SCC 498)
संबंधित धारा: 79
तथ्य: सक्ष्यों से स्पष्ट हुआ था कि अभियुक्त और मृतक के बीच पशुओं को चराने के विवाद के कारण तनावपूर्ण संबंध थे। घटना की रात को गाँव में भगवतगीता का पाठ हुआ जहाँ अभियुक्त और मृतक दोनों उपस्थित थे।
रात के लगभग 10 बजे यह पाठ समाप्त हुआ और मृतक अपने घर के लिए निकल गया। कुछ समय बाद ही अभियुक्त के घर के पास शोर-शराबा सुनकर ग्रामीण वहाँ गए तो देखा मृतक वहाँ खून से लथपथ पड़ा था और उसका सिर जख्मी था। अभियुक्त अपनी पत्नी और माँ के साथ उसकी घाव से रिसते खून को पोंछ रहा था और उसकी सहायता कर रहा था।
मृतक उस समय तक होश में था। उसने गाँव वालों, अपनी पत्नी और डॉक्टर को बताया कि अभियुक्त ने उसे मारा था।
अभियुक्त का कहना था कि दिन में उसके पीतल के बर्तन चोरी हो गए थे और वह चोर के लिए नजर रख रहा था। रात को जब उसने किसी व्यक्ति को अपने घर की तरफ आते देखा तो सोचा यह चोर होगा जो चोरी के बर्तन लेने आया होगा। उसने आवाज लगायी लेकिन मृतक ने कोई उत्तर नहीं दिया इस पर उसे विश्वास हो गया कि वह चोर ही है जो तालाब में उसके चोरी का बर्तन लेने आया था इसलिए उसने लाठी से उसके सिर पर वार कर दिया।
पोस्टमार्टम में मृतक के शरीर पर कई घाव मिले। डॉक्टर के अनुसरा सिर के चोट की प्रकृति ऐसी थी जो, यदि बहुत शक्तिशाली प्रहार किया गया हो तो एक चोट में भी कारित हो सकता था।
सेशन कोर्ट ने अभियुक्त को हत्या के लिए नहीं बल्कि आपराधिक मानव वध के लिए दोषी पाया। लेकिन हाई कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए उसे धारा 79 का लाभ दिया। हाई कोर्ट का तर्क था कि घटना के समय मृतक तलाब से अपने पीतल के बर्तन लेने गया था। अंधेरी रात थी। अभियुक्त ने चोर का शक होने पर आवाज लगाई कि ‘‘वहाँ कौन है?‘‘ कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलने पर उसने यह विश्वास करते हुए कि वह कोई चोर था उस पर प्रहार कर दिया। इसके बाद उसने मृतक को पहचाना।
विधिक प्रश्न: इस मामलें में सुप्रिम कोर्ट के समक्ष निर्णय के लिए मुख्य विधिक प्रश्न यह था कि धारा 79 में प्रयुक्त ‘‘तथ्य की भूल‘‘ का अर्थ क्या है? क्या प्रस्तुत केस में अभियुक्त को इसका लाभ मिलना चाहिए?
सुप्रिम कोर्ट (न्यायमूर्ति ए पी सेन) के अनुसार धारा 79 यह उपबंध करता है कि जो यदि कोई कार्य अपने को न्यायसंगत मानते हुए या फिर तथ्य की भूल के कारण, न कि विधि की भूल के कारण अपने को न्यायसंगत मानने का सद्भावपूर्वक विश्वास करते हुए किया गया हो, वह अपराध नहीं है। धारा 52 कहता है कि जो कार्य सम्यक् सर्तकता और ध्यान के बिना की जाती है वह सद्भावपूर्वक की हुई नहीं कही जाती है।
सद्भावपूर्वक क्या है यह प्रत्येक मामले में अभियुक्त की स्थिति और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही देखा जा सकता है। सद्भावपूर्वक क्या है यह तथ्य का प्रश्न है।
न्यायमूर्ति सेन ने ‘‘रसेल ऑन क्राइम‘‘ किताब को भी उद्धृत किया ‘‘जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य की उपस्थिति से अनभिज्ञ होता है, या गलती से कुछ समझता है, उसके इस कार्य से कोई ऐसा परिणाम निकलता है जिसका न तो उसे आशय था और न ही उसे इसकी संभावना का अनुमान था। तब ऐसी गलती प्रतिरक्षा प्रदान कर सकती है बशर्ते:
- जिस स्थिति को गलती के कारण वह जैसा समझ रहा था वह अगर वास्तव में होता तो वह कार्य न्यायोचित होता
- वह गलती युक्तियुक्त हो, और
- वह गलती तथ्य से संबंधित हो, विधि से नहीं।‘‘
उन्होंने रतनलाल एवं धीरजलाल के “लॉं ऑफ क्राइम” पर भी विचार किया और उसके 23वें संस्करण में पृष्ठ संख्याा 199 पर तथ्य से संबंधित भूल संबंधी भूल को उद्धृत किया ‘‘भूल का अर्थ केवल किसी चीज के विस्मरण से अधिक है। यह दुर्योग से किया गया कार्य है, विचार कर किया गया कार्य नहीं।
न्यायशास्त्र में भूल का आशय मस्तिष्क की ऐसी स्थिति से है जिसमें किसी भूल या अनभिज्ञता या गलत अवधारणा के कारण के कारण सत्य का आभास नहीं होता है और कोई ऐसा कार्य हो जाता है या किसी कार्य का लोप हो जाता है जिससे एक या दोनों पक्षों को अपहानि होती है, ऐसी अपहानि कारित करने के समय ऐसा कारने का न तो आशय होता है और न ही इस बात का ज्ञान होता है।‘‘
एक सामान्य नियम बनाया जा सकता है कि अभियुक्त उस मानसिक स्थिति में माना जा सकता है जब उसने सद्भावपूर्वक उस स्थिति के उपस्थित होने का विश्वास करते हुए वह कार्य करता है। धारा 79 का लाभ अभियुक्त को तब मिल सकता है यदि यह साबित हो जाय कि अभियुक्त तथ्य संबंधी भूल के कारण युक्तियुक्त और इमानदार विश्वास के अधीन वह कार्य कर रहा था, तो उसे निर्दोष माना जाना चाहिए।
भूल की उपस्थिति साबित करने का भार अभियुक्त पर होता है । वह या तो अभियोजन के गवाह की प्रतिपरीक्षा में या अपनी तरफ से कोई सबूत देकर इसे सिद्ध कर सकता है।
प्रस्तुत मामले में अभियुक्त का मृतक से तनावपूर्ण संबंध था। वह यह अच्छी तरह जानता था कि मृतक भगवतगीता सुनने आया था। मृत्युपूर्व बयान और गैर न्यायिक बयान में मृतक ने बताया था कि वह भागवत सुनने के बाद तलाब पर पीतल के बर्तन लेने गया था। अभियुक्त के बदला लेने के लिए इस मौके का फायदा उठाया और उस पर लाठी से प्रहार किया।
अभियुक्त ऐसा कोई प्रमाण नहीं दे सका जिससे यह सिद्ध होता हो कि प्रहार करते समय वह यह समझ रहा था कि वह एक चोर पर प्रहार कर रहा है। यह ऐसा मामला नहीं है जिसमें अभियुक्त तथ्य की भूल के कारण वास्तविक तथ्य से अनभिज्ञ था या गलती से उसने कोई कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप किसी की ऐसी हानि हुई जैसा कि उसका आशय नहीं था।
यदि वह चोर भी होता तो भी उसके सिर पर लाठी से प्रहार न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। मृतक न तो अभियुक्त के घर में घुसा था
और न ही उसके पास ही था। वह तालाब पर अपने पीतल के बर्तन लेने गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि अभियुक्त ने चुपचाप उसके पीछा किया और पुरानी शत्रुता का बदला लेने के लिए इस स्थिति का लाभ लेते हुए उसके मर्मस्थल अर्थात् सिर पर लाठी से इतना शक्तिशाली प्रहार किया जिससे उसकी मृत्यु कारित हो गई।
ऐसा कोई विचार नहीं दिया गया है कि उसने लाठी से प्रहार स्वयं की प्रतिरक्षा में किया था। यद्यापि यह साबित नहीं होता है कि अभियक्त मृत्यु कारित करना चाहता था लेकिन उसने जिस शक्ति से मृतक के सिर पर लाठी से प्रहार किया था उससे उसे इस बात की पूरी संभावना थी कि मृत्यु कारित हो सकती थी।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए अभियुक्त को आपराधिक मानव वध, जो कि हत्या नहीं है, के लिए दोषी ठहराया और धारा 304 के खण्ड के 2 के तहत दण्डनीय बताया। अपील स्वीकार कर लिया गया।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुकदमें (case laws):
इन मामलों में तथ्य की भूल की प्रतिरक्षा को न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया है-
1. रेक्स बनाम लीवेट्स (79 इंग्लिश रिपोर्ट (1064) के. बी. 1638):
इस मामले में अभियुक्त अपने घर में रात में कुछ अजीब सी आवाज सुन कर जगा और चोर समझ कर किसी व्यक्ति को अपने तलवार से मार डाला जो कि उसके नौकर का मित्र था और नौकर के निमंत्रण पर आया था।
2. गोपालिया कल्लैया केस ((1923) 26 बाम्बे लॉ रि. 138):
एक पुलिस अधिकारी के विरूद्ध सदोष परिरोध के वाद में यह प्रतिरक्षा स्वीकार किया गया कि उस अधिकारी ने शिकायतकर्ता को एक वारंट के अन्तर्गत इस विश्वास से कि उसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना है, गिरफ्तार कर लिया।
3. पश्चिम बंगाल राज्य बनाम शिव मंगल सिंह (1981 क्रि. लॉं ज. 1683 (सु. को.):
वरिष्ठ अधिकारी के आदेश पर पुलिस बल के सिपाहियों ने भीड़ पर गोली चलाया जिसमें कुछ व्यक्ति मारे गये। उन्हें हत्या के लिए दोषी नहीं माना गया क्योंकि उन्होंने ऐसा अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश को मानते हुए किया था।
4. चिरंगी लाल बनाम राज्य (AIR 1952 Nagpur 282):
अभियुक्त ने बाघ समझ कर विभ्रम में अपने इकलौते पुत्र को कुल्हाड़ी से मार डाला। न्यायलय ने उसे तथ्य की भूल की प्रतिरक्षा दिया क्योंकि प्रहार करते समय यह नहीं सोच पाया कि वह किसी इंसान पर प्रहार कर रहा है और इसलिए कोई अनुचित कार्य कर रहा है बल्कि उसने एक खतरनाक जानवर समझ कर उस पर प्रहार किया।
5. राजकपूर बनाम लक्ष्मण (1980 क्रि. लॉ ज. 436):
सेंसर बोर्ड ने किसी फिल्म को प्रमाणित कर दिया और इसे प्रदर्शित करने की अनुमति दे दी। न्यायालय के अनुसार इसके बाद इसके निर्माता और अन्य संबंधित एजेंसियों पर धारा 292 के तहत अश्लीलता के लिए वाद नहीं लाया जा सकता है क्योंकि उन्होंने बोर्ड से प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इस विश्वास से कार्य किय है कि उनका कार्य न्यायानुमत (justifiable) है।
इन मामलों में तथ्य की भूल की प्रतिरक्षा को न्यायालय द्वारा नहीं माना गया है:
1. चरन दास केस ((1950) 52 सी. एल. आर. 331):
सिपाही ने अपने वरिष्ठ अधिकारी के आदेश का पालन करते हुए एक ऐसे तम्बू पर गोली चलाया । जिसके अंदर कोई हिंसात्मक भीड़ एकत्र नहीं थी, केवल वहाँ जुआ खेला जा रहा था। इसमें एक महिला मारी गई।
उसे न्यायानुमत मानने की प्रतिरक्षा न्यायालय ने नहीं दिया क्योंकि सिपाही ने जिस आदेश का पालन किया था वह प्रत्यक्ष रूप से अवैध था और इसका उल्लंघन न्यायोचित होता। (लेकिन अगर आदेश प्रकट रूप से वैध प्रतीत होता है तो कनिष्ठ अधिकारी को इसका पालन अवश्य करना चाहिए और ऐसा आदेश यदि अवैध भी होगी तो भी यह प्रतिरक्षा कनिष्ठ अधिकारी को उपलब्ध होगा।)
2. उड़ीसा राज्य बनाम भगवान बारिक (1987 क्रि. लॉं ज. 1115 (सु. को.):
अभियुक्त और मृतक में पहले से ही विद्वेष था। अभियुक्त ने यह प्रतिरक्षा लिया कि दिन में उसके बर्तन चोरी हो गए थे और वह चोर पर निगाह रखे हुए था उसने अपने घर की परिसीमा के अंदर एक व्यक्ति को आते देखा तो उसे चोर समझ कर लाठी से मारा। बाद में पता चला कि वह मृतक है।
न्यायालय ने संपूर्ण परिस्थितियों पर विचार किया। मृतक अभियुक्त के घर या उसके आसपास नहीं था अपितु तालाब पर से अपने बर्तन लेने गया था। अन्य साक्ष्य भी सके विपरीत थे। अतः उसे यह प्रतिरक्षा नहीं दी गई।