साधारण अपवाद: न्यायिक कार्य, दुर्घटना, तुच्छ अपराध, संवाद और अवपीडन (s 76- 106)-part 4.1

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साधारण अपवाद ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिसमें  किया गया कार्य कोई आपराधिक दायित्व उत्पन्न नहीं करता है। क्योंकि कानून इसे इसकी विशेष स्थितियों के कारण आपराधिक दायित्व से मुक्त मानता है।साधारण अपवादों का विवरण आईपीसी से चैप्टर 4 में सेक्शन 76 से 106 तक है। इस अध्याय में न्यायिक कार्य, दुर्घटना, तुच्छ अपराध, संवाद और अवपीडन की चर्चा आपराधिक दायित्व के साधारण अपवाद के रूप में करेंगे। 

न्यायिक कार्य (धारा 77, 78)

आईपीसी की धारा 77 और 78 न्यायिक कार्य को आपराधिक दायित्व से मुक्ति प्रदान करता है। धारा 77 एक न्यायाधीश को सुरक्षा प्रदान करती है जब कि वह न्यायिक कार्य कर रहा हो। यह न्यायाधीश को सुरक्षा दो मामलों में देता है-

  1. उन मामलों में जिसमें वह विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग अनियमितता से करता है, तथा
  2. उन मामलों में जहाँ वह सद्भावपूर्वक कार्य करते हुए अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण कर जाता है। लेकिन यह धारा केवल आपराधिक दायित्व से मुक्ति प्रदान करती है।

धारा 78 धारा 77 का एक उप सिद्धांत है जिसमें न्यायालय के निर्णय या आदेश के अन्तर्गत कार्य करते हुए अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान किया गया है।

इस धारा के अन्तर्गत ऐसा अधिकारी भी उन्मुक्त है जो ऐसे न्यायालय के आदेश को जिसे क्षेत्राधिकार नहीं था, निष्पादित करता है किंतु उसे सद्भावपूर्वक यह विश्वास होना चाहिए कि न्यायालय क्षेत्राधिकार से युक्त था। इस धारा के अन्तर्गत विधि की भूल को प्रतिरक्षा हेतु अभिवाचित किया जा सकता है।

77. न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य    कोई बात अपराध नहीं है, जो न्यायिततः कार्य करते हुए न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग में की जाती है, जो या जिनके बारे में उसे सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि द्वारा दी गई है।   78. न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसारण में किया गया कार्य कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाये या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत रहते की जाये, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परन्तु यह तब जबकि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी।   

दुर्घटना (धारा 80)

80. विधिपूर्ण कार्य करने में दुर्घटना कोई कार्य अपराध नहीं है, जो दुर्घटना से या दुर्भाग्य से किसी आपराधिक आशय या ज्ञान के बिना विधिपूर्ण प्रकार से विधिपूर्ण साधनों द्वारा उचित सर्तकता और सावधानी के साथ विधिपूर्ण कार्य करने में ही हो जाती है। दृष्टांत क कुल्हाड़़ी से काम कर रहा है, कुल्हाड़़ी का फल उसमें से निकलकर उछल जाता है और निकट खड़ा व्यक्ति उससे मारा जाता है। यहाँ अगर क की ओर से उचित सावधानी का कोई अभाव नहीं था तो उसका कार्य माफी योग्य है और अपराध नहीं है।

धारा 80 के अवयव निम्नलिखित हैं अर्थात ये तत्व उपस्थित रहने पर ही किसी अभियुक्त को इस धारा का लाभ मिल सकेगा:  

  1. कार्य दुर्घटना से हुआ हो, जानबूझ कर नहीं किया गया हो;
  2. कार्य किसी आपराधिक आशय या ज्ञान के बिना किया गया हो;
  3. वह कार्य जिसके दौरान दुर्घटना हुई हो वैध हो;
  4. वह कार्य वैध साधनों द्वारा किया जा रहा हो;
  5. कार्य उचित सर्तकता और सावधानी से किया गया हो।
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तुच्छ अपराध (धारा 95)

धारा 95. तुच्छ अपहानि कारित करने वाला कार्य

कोई कार्य इस कारण से अपराध नहीं है कि उससे कोई अपहानि कारित होती है या कारित की जानी आशयित है या कारित होने की संभाव्यता ज्ञात है, यदि वह इतनी तुच्छ है कि मामूली समझ और स्वभाव वाला कोई व्यक्ति उसकी शिकायत नहीं करेगा।

यह धारा इस सिद्धांत पर आधारित है कि ‘‘विधि तुच्छ कार्यों पर ध्यान नहीं देती” (deminimis non curat lex)

संवाद (communication) (धारा 93)

93. सद्भावपूर्वक दी गई संसूचना

सद्भावपूर्वक दी गई संसूचना उस अपहानि के कारण अपराध नहीं हैं, जो उस व्यक्ति को हो जिसे वह दी गई हो।

दृष्टांत

क, एक शल्य चिकित्सक एक रोगी को सद्भावपूर्वक यह संसूचित करता है कि उसकी राय में वह जीवित नहीं रह सकता है। इस आघात के परिणामस्वरूप उस रोगी की मृत्यु हो जाती है। क ने कोई अपराध नहीं किया है, यद्यपि वह जानता था कि उस संसूचना से उस रोगी की मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है।

धारा 93- इस धारा के अनिवार्य अवयव हैंः

  1. संसूचना सद्भाव में दिया गया हो, और
  2. जिस व्यक्ति को संसूचना दी गई हो, उसके लाभ के लिए दी गई हो।

इस धारा के अन्तर्गत अपहानि का अर्थ एक घातक मस्तिष्कीय प्रक्रिया से है। में न के अनुसार ‘‘इस धारा का अभिप्राय अपराधी को अनुचित सुरक्षा प्रदान किए बिना निर्दोष व्यक्ति को उचित सुरक्षा पहुँचाना है।”

बलप्रयोग या अवपीडन (धारा 94)

94. वह कार्य जिसको करने के लिए कोई व्यक्ति धमकियों द्वारा विवश किया गया है

हत्या और मृत्यु से दण्डनीय उन अपराधों को, जो राज्य के विरूद्ध है, छोड़कर कोई बात अपराध नहीं है, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए, जो उसे करने के लिए ऐसी धमकियों द्वारा की जाए, जो उसे करने के लिए ऐसी धमकियों से विवश किया गया हो,

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जिनसे उस बात को करते समय उसको युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो गई कि अन्यथा परिणाम यह होगा कि उस व्यक्ति की तत्काल मृत्यु हो जाए, परन्तु यह तब जबकि उस कार्य को करने वाले व्यक्ति ने अपनी ही इच्छा से या तत्काल मृत्यु से कम अपनी अपहानि को युक्तियुक्त आशंका से अपने को उस स्थिति में न डाला हो, जिसमें  कि वह ऐसी मजबूरी के अधीन पड़ गया है।

स्पष्टीकरण 1- वह व्यक्ति, जो स्वयं अपनी इच्छा से, या पीटे जाने या जाने की धमकी के कारण, डाकुओं की टोली में उनके शील को जानते हुए सम्मिलित हो जाता है, इस आधार पर ही इस अपवाद का फायदा उठाने का हकदार नहीं कि वह अपने साथियों द्वारा ऐसी बात करने के लिए विवश किया गया था जो विधिना अपराध है।

स्पष्टीकरण 2– डाकुओं की एक टोली द्वारा अभिगृहीत और तत्काल मृत्यु की धमकी द्वारा किसी बात को करने के लिए, जो विधिना अपराध है, विवश किया गया व्यक्ति, उदाहरणार्थ- एक लोहार, जो अपने औजार लेकर एक गृह का द्वार तोड़ने को विवश किया जाता है, जिससे डाकू उसमें प्रवेश कर सकें और उसे लूट सकें, इस अपवाद का फायदा उठाने के लिए हकदार है।

धारा 94 विधिशास्त्र के इस मान्यता प्राप्त सिद्धांत पर आधारित है कि ‘‘मेरे द्वारा, मेरी इच्छा के विरूद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है” (actus me invite foctus non est mens actus) इसका आशय है कि अनिच्छा से किया हुआ कार्य अपराध नहीं है अर्थात् अपराध गठित करने के लिए कार्य का स्वैच्छिक होना आवश्यक है।

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डॉ एच. एस. गौड़ के अनुसार किसी कार्य को धारा 94 के अन्तर्गत न्यायोचित ठहराये जाने के लिए तीन बातों को सिद्ध करना आवश्यक है-

  1. उस व्यक्ति ने स्वेच्छया अपने को दबाव के सम्मुख प्रस्तुत नहीं किया है।
  2. भय, जिसने कि कार्यवाही के लिए गतिशीलता प्रदान किया वह तुरन्त मृत्यु का भय था।
  3. कार्य उस समय किया गया जब कर्ता के पास उसे करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं था।

इस धारा में दो तरह के अपराधों का उल्लेख है-

  1. किसी की मृत्यु कारित करने अथवा राज्य के विरूद्ध ऐसा अपराध जो मृत्युदण्ड से दण्डनीय हो। क्षति के भय से उत्पन्न मानसिक दबाव की कोई भी मात्रा ऐसे अपराधों को क्षम्य नहीं बना सकती। विधि यह है कि ‘‘यदि आप को अपनी मृत्यु और किसी अन्य की मृत्यु के बीच चुनाव करना हो तो आप अपनी मृत्यु चुनें।” इसलिए कोई व्यक्ति यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता है कि उसने भय के अधीन विद्रोहियों का साथ दिया।
  2. हत्या या मृत्यु से दण्डनीय राज्य के विरूद्ध अपराधों के अतिरिक्त अन्य अपराध। ऐसे अपराध क्षम्य हो सकते हैं–

(1) उसने तत्काल मृत्यु के युक्तियुक्त आशंका के अधीन यह कार्य किया है।

(2) वह स्वतः या मृत्यु के अतिरिक्त किसी अन्य क्षति के भय से अपने को उस स्थिति में नहीं ला दिया है जिसमें वह ऐसे दबाव के अन्तर्गत आ गया है।

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