अपराध किसे कहते हैं?-भाग 1.2

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अपराध की परिभाषा

आईपीसी मे अपराध शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। जनरल क्लॉंजेज़ एक्ट, 1897 का सेक्शन 3 (38) अपराध (offence) को परिभाषित करते हुए केवल इतना कहता है कि:

कोई भी कार्य या लोप जो कि उस समय प्रवर्तित किसी कानून द्वारा दंडनीय बनाया गया हो (any act or omission made punishable by any law for the time being in force)”

विभिन्न विधिशास्त्रियों ने “अपराध” को विभिन्न रूपों में परिभाषित करने का प्रयास किया है जिनमें निम्न प्रमुख हैं-

आपराधिक विधि के अतिक्रमण के रूप में – रसेल, ब्लैकस्टन आदि इस मत के मुख्य प्रतिपादक हैं। इनके अनुसार विधि की अवज्ञा अपराध हैं लेकिन सभी विधियों का अतिक्रमण अपराध नहीं होता है; जैसे, संविदा विधि, पारिवारिक विधि तथा व्यवहार विधि का उल्लंघन अपराध में तब तक परिगणित नहीं होता है जब तक इसे विधि द्वारा अपराध घोषित नहीं कर दिया जाता है।

सामजिक कल्याण के साधन के रूप में – बेंथम तथा अन्य उपयोगितावादी चिंतक अपराध और उसके लिए दण्ड को समाज कल्याण के साधन के रूप में देखते हैं। प्राचीन एवं मध्यकाल में अपराधी को दण्ड देना मुख्यतः प्रतिशोध के सिद्धांत पर आधारित था। सिविल मामलें में सामान्तः क्षतिपूर्ति के सिद्धांत का पालन किया जाता था। पर वर्तमान में अपराधियों से प्रतिशोध के बजाय उन्हें सुधारनें के साधन के रूप में दण्ड का सिद्धांत अधिक मान्यता प्राप्त कर रहा है।

सार्वजनिक अधिकारों और कर्तव्यों का व्यक्तिगत हित में अतिक्रमण के रूप में– स्टीफन तथा कुछ अन्य लेखकों ने इस मत का प्रतिपादन किया है। पर यह भी अधूरी परिभाषा है क्योंकि समाज के लिए सभी हानिकारक कार्य अपराध नहीं होते। उदाहरण के लिए, अधिक घाटा होने की वजह से कोई कम्पनी बंद हो जाय और इसके फलस्वरूप कई कर्मचारी बेरोजगार हो जाए तो यह निःसंदेह समाज के लिए हानिकारक है पर विधि के अनुसार अपराध नहीं।

विधि द्वारा निषिद्ध और समाज के नैतिक मूल्यों के लिए अमान्य कार्य के रूप में– पर यह परिभाषा भी पूर्ण नहीं है। प्रत्येक अनैतिक कार्य अपराध नहीं होता है और न ही प्रत्येक अपराध अनैतिक होता है। नदी में डुबते व्यक्ति को बचाने का प्रयास नहीं करना अनैतिक है लेकिन अपराध नहीं दूसरी तरफ युद्ध अपराध, राजद्रोह और ट्रैफिक अपराध अनैतिक नहीं होते हुए भी अपराध होते हैं।

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स्पष्टतः उपर्युक्त में से कोई भी दृष्टिकोण या परिभाषा अपराध के सही और संपूर्ण स्वरूप का संकेत नहीं देता है। वास्तव में उपर्युक्त सभी आंशिक रूप से सत्य है और अपराध में इन सभी तत्वों का समावेश होता है। सामान्यतः “अपराध” शब्द का आशय वैसे कृत्य से होता है जिसे समाज गंभीर रूप से अस्वीकार्य मानता है और जिसे कानून निषिद्ध करते हुए अपराध के रूप में परिगणित करता है।

अपराध के प्रकार

(1) सक्रिय रूप से किया जाने वाला कार्य (अपराध)– जैसे, चोरी, ठगी, हत्या इत्यादि अपराध।

(2) लोप द्वारा किया जाने वाला कार्य (अपराध)- अपराध किसी कृत्य को सक्रिय रूप से कर के, जैसे किसी व्यक्ति को जहर देकर मार देना, या लोप यानि कार्य नहीं करके, भी किया जा सकता है, जैसे किसी व्यक्ति को भोजन नहीं देकर मार देना। ऐसे कार्य जिसे करने के लिए व्यक्ति विधिक रूप से उत्तरदायी हो जैसे, पत्नी और बच्चों का पोषण नहीं करना अपराध है क्योंकि इसके लिए वह विधिक रूप से उत्तरदायी होता है। किन्तु जिसके लिए विधिक रूप से उत्तरदायी नहीं हो, भले ही नैतिक रूप से उत्तरदायी हो, जैसे एक अच्छे तैराक द्वारा नदी में डुबते व्यक्ति को बचाने का प्रयास नहीं करना। यह अपराध नहीं है पर नैतिक रूप से गलत है।

(3) सामूहिक अपराध– कुछ कृत्य ऐसे होते हैं जिसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं होने पर भी व्यक्ति अपराधी माना जाता है अगर किसी रूप में वह अपराध करने में सहभागिता करता है भले ही वह सहभागिता षड्यंत्र के रूप में हो, सामान्य उद्देश्य या सामान्य आशय के अग्रसर करने के रूप में हो। सामूहिक आपराध में शामिल होने पर व्यक्ति उस अपराध के लिए दंडनीय  हो जाता है, उसकी पृथक भूमिका नहीं पर विचार नहीं किया जाता।

(4) प्रतिनिधिक अपराध– कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिसमें व्यक्ति (इसमे विधिक व्यक्ति, जैसे कंपनी भी शामिल है) स्वयं अपराध से किसी तरह संबन्धित नहीं होता है लेकिन प्रतिनिधि होने के कारण उसका कुछ दायित्व हो जाता है। जैसे, दुर्घटना के लिए फैक्टरी के मालिक या गाड़ी के मालिक द्वारा क्षतिपूर्ति का दायित्व। 

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अपराध के मूल तत्व क्या है?

किया जाने वाला कार्य विधि द्वारा अपराध के रूप में परिगणित हो– कौन से कार्य “अपराध” की श्रेणी में आएंगे यह समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। उदाहरण के लिए सती होना या होने में सहयोग देना, दहेज लेना या देना, हिन्दुओं में द्विविवाह इत्यादि वर्तमान में कानून द्वारा अपराध बना दिए गए हैं जबकि पूर्वकाल में ये मान्य प्रथाएँ थीं। अतः किसी कार्य के अपराध बनने के लिए इसे विधि द्वारा अपराध घोषित होना चाहिए।

कार्य मानव द्वारा किया जाए– वर्तमान में सामान्यतः मानव द्वारा किए गए कार्य को ही अपराध माना जाता है। मशीन या पशु द्वारा अगर कोई अपराध का कार्य होता है तो उसे दुर्घटना माना जाता है और उसे दण्ड नहीं दिया जाता है लेकिन यदि यह दुर्घटना उस पशु या मशीन के मालिक की लापरवाही या गलती से हुई हो तो इस अपराध के लिए मालिक दण्डित होगा न कि वह पशु या मशीन। पूर्वकाल में प्रतिशोधात्मक न्याय के सिद्धांत को मानने वाले स्थानों पर पशुओं या मशीन को भी अपराधी मान कर दण्डित करने का प्रचलन था लेकिन वर्तमान में न्याय एवं दण्ड का मूल सिद्धांत बदल कर अपराधी को सुधरने का अवसर देना हो गया है। साथ ही अपराधियों के मनःस्थिति (mens rea) को अपराध के निर्धारण के लिए अधिक महत्व दिया जाने लगा है और पशु और मशीन आपराधिक दुराश्य के लिए अक्षम हैं।

वह कार्य करने का आशय हो अर्थात् आपराधिक मनःस्थिति (mens rea) का होना– न्याय के वर्तमान सिद्धांत के अनुसार किसी आपराधिक कृत्य के लिए साथ­साथ उसे करने के पीछे निहित आशय (intention) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह प्राकृतिक न्याय (natural justice) का भी एक सिद्धांत है कि किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए तब तक दण्डित नहीं किया जाय जब तक यह साबित न हो जाय कि इस कृत्य को उसने दुराश्य से किया है। इसका आशय इस कहावत से स्पष्ट है कि “मात्र कृत्य किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता जब तक उसका आशय ऐसा न रहा हो” (actus non facit reum nisi mens sit rea), लेकिन इस सिद्धांत के भी कई महत्त्वपूर्ण अपवाद हैं।

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व्यक्ति या व्यक्ति समूह को क्षति का होना– क्षति शरीर, मन, ख्याति या संपत्ति की हो सकती है जिसे रखने का उसे विधिक अधिकार हो। अपवाद- प्रयत्न (attempt), दुष्प्रेरण (abetment) और षड्यंत्र (conspiracy) इत्यादि किसी का क्षति नहीं होने पर भी अपनेआप में अपराध होतें हैं। अपराध होने से रोकने के लिए की गई निरोधक कारवाईय जैसे, डकैती की तैयारी (धारा 399) या डकैती के उद्देश्य से एकत्र होना (धारा 402) को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है।

दुराश्यवर्तमान में सामान्यतः यह माना जाता है कि अपराध के रूप में परिगणित सभी कार्य अपनेआप में अपराध गठित नहीं करता जब तक कि उस कार्य के लिए मानसिक तत्व न हो यद्यपि इस सामान्य नियम के कई महत्वपूर्ण अपवाद भी हैं। पूर्वकाल के विपरीत वर्तमान में अपराध करने वाले बच्चे, पागल, पशु, इत्यादि को आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति का आधार यही है कि उनका कृत्य मानसिक दुराश्य से संपोषित नहीं होता है। फिर भी आपराधिक मनःस्थिति सभी तरह के अपराधों के लिए अनिवार्य नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता में सामान्यतः प्रत्येक अपराध के लिए मानसिक तत्व या आशय का उल्लेख कर दिया गया है। भारतीय दण्ड संहिता में आपराधिक कृत्य के पीछे के मनःस्थिति के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है। इनमें प्रमुख हैं-

  • 1.    स्वेच्छया (voluntarily)  
  • 2.    विश्वास करने का कारण (reason to believe)
  • 3.    बेईमानी (dishonestly)
  • 4.    विद्वेष से (maliciously)
  • 5.    असावधानी से (recklessly)
  • 6.    उपेक्षा से (negligently)
  • 7.    स्वैरिता से (wantonly)
  • 8.    भ्रष्टतापूर्वक (malignantly)
  • 9.    दूषित रीति से (corrupt)
  • 10.   जानबूझकर (knowingly)
  • 11.   धोखे से (fraudulently)
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