प्रतिफल: केस लॉ-भाग 7
प्रतिफल (consideration) एक वैध संविदा के लिए अनिवार्य तत्त्व है। इस के विषय में पिछले आलेख में हमने चर्चा की थी। अब हम प्रतिफल से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण केस (leading cases) को देखते हैं।
प्रतिफल (consideration)
संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार:
“सब करार संविदाएँ हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विधिपूर्ण उद्देश्य से किए गए हैं और एतद्द्वारा अभिव्यक्ततः शून्य घोषित नहीं किए गए हैं।
इसमे अंतर्विष्ट कोई भी बात भारत में प्रवृत और एतदद्वारा अभिव्यक्ततः निरसित न की गई किसी ऐसी विधि पर, जिसके द्वारा किसी संविदा का लिखित रूप में या साक्षियों की उपस्थिति में किया जाना अपेक्षित हो, या किसी ऐसी विधि पर जो दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण से संबंधित प्रभाव न डालेगी।
केदारनाथ भट्टाचार्यजी बनाम गोरी मोहम्मद
(Kedarnath Bhattacharji v. Gorie Mahomed[(1886) 7 I.D. 64 (Cal)
तथ्य: वादी (plaintiff) केदारनाथ भट्टाचार्यजी हावड़ा का नगर आयुक्त (Municipal Commissioner) था। साथ ही वह हावड़ा टाउन हॉल फंड के ट्रस्टियों में से एक है। वह हावड़ा में एक टाउन हॉल बनाना चाहता था, बशर्ते इसके लिए आवश्यक धन जुटाया जा सके।
उसने यह पता लगाने का प्रयास किया कि कितने लोग इसमे रुचि ले सकते है, जो पैसा देने के लिए तैयार हो। कुछ लोग पैसे देने के लिए तैयार हो गए। जब यह संख्या एक निश्चित स्तर तक पहुँचा तब उसने बिल्डिंग बनाने के लिए एक ठेकेदार से अनुबंध (contract) किया। बिल्डिंग की योजनाएं प्रस्तुत की गईं और पारित की गईं।
लेकिन जब (पैसा देने के लिए) सदस्यता सूची बढ़ी, तो योजनाओं में भी वृद्धि हुई, और यह बढ़ कर 26,000 रु से 40,000 हो गया। चूँकि बिल्डिंग के मूल योजनाओं में जो परिवर्तन हुआ था उसे सभी आयुक्तों (जिसमें वादी भी शामिल था) द्वारा संपुष्टि मिली थी, इसलिए इस अतिरिक्त खर्चे के लिए पैसे ठेकेदारों को देने के लिए भी आयुक्त उत्तरदायी थे।
प्रतिवादी (defendant) (गोरी मोहम्मद) ने सदस्यता वाले रजिस्टर (subscription book) में अपना नाम लिख कर 100 रु देना स्वीकार किया था। लेकिन उसने यह रकम नहीं दिया।
वादी ने उससे इस रकम की वसूली के लिए वाद दायर किया। अब प्रश्न यह उठा कि क्या वादी को यह अधिकार है कि वह अपने तरफ से और सभी आयुक्तों की तरफ से प्रतिवादी से इस रकम की वसूली के लिए वाद दायर कर सकता है? दूसरे शब्दों में क्या यह केस maintainable है?
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार वह ऐसा कर सकता था। वादी के ट्रस्टी या नगर आयुक्त होने के संदर्भ के बिना वह नागरिक प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code- CPC) के प्रावधानों के तहत वह स्वयं और दूसरों की ओर से (संयुक्त हित रखने वाले लोगों की ओर से) कार्रवाई करने का हकदार है। यदि कार्रवाई सभी की ओर से की जाए और इसे रोकने के लिए कोई प्रावधान नहीं हो, तो यह मामले में किसी भी तकनीकी दोष नहीं होगा।
अब सवाल यह है कि क्या यह उन सभी सदस्यों (subscriber) के विरुद्ध किया जा सकता है जिन्होने इसमे पैसे देने के लिए स्वीकृति दी है (और इसलिए वे ठेकेदारों के प्रति उत्तरदायी हैं) । लेकिन यह स्पष्ट है कि अगर किसी चैरिटेबल कार्य के लिए कोई व्यक्ति अपनी सहमति देता है लेकिन वह वास्तव में ऐसा नहीं करता है तो उसके विरुद्ध इस रकम की वसूली के लिए वाद नहीं लाया जा सकता है क्योंकि दोनों के बीच हुए इस अनुबंध में प्रतिफल (consideration) नहीं होता है।
प्रस्तुत केस में लोगों से एक निश्चित कार्य के लिए पैसे देने के लिए कहा गया। सदस्यों ने यह जानते हुए कि पैसे का क्या उपयोग होने वाला है स्वेच्छा से ठेकेदार को इस कार्य के लिए पैसे देना स्वीकार किया था (यानि सब्स्क्रिप्न लिया)। तो क्या दोनों पक्षों के बीच एक वैध कांट्रैक्ट का निर्माण हुआ?
सुप्रीम कोर्ट ने इसका उत्तर हाँ में दिया। कोर्ट के अनुसार यह कहना सही नहीं है की इस कांट्रैक्ट मे प्रतिफल नहीं था। क्योंकि जो बिल्डिंग बनने वाला था, वही इस केस में प्रतिफल था।
दोरास्वामी अय्यर वर्सेसअरुणाचला अय्यर
(Doraswami Iyer V. Arunachala Ayyar)[(1935) 43 L.W. 259 (Mad)]
तथ्य: एक मंदिर के मरम्मत का काम चल रहा था। इस काम में पैसों की कुछ कमी पड़ गई। पैसे की कमी को पूरा करने के लिए इस मंदिर के ट्रस्टियों ने लोगों से सदस्यता (subscription) आमंत्रित किया।
जो लोग अपनी इच्छा से इस कार्य में आर्थिक सहयोग देना चाहते थे, अर्थात इसके लिए सदस्यता (सब्सक्रिप्शन) लेना चाहते थे उन्होंने अपना नाम लिखवाया। इस सूची में प्रतिवादी का नाम भी था। उसने ₹125 स्वेच्छा से मरम्मत के कार्य के लिए देने के लिए अपना नाम सदस्यता सूची में लिखवाया था। लेकिन उसने यह रुपए नहीं दिया ।
वादी (अरुणाचला अय्यर), जो कि ट्रस्टियों में से एक था, ने इस पैसे की वसूली के लिए उस पर केस किया। प्रतिवादी (दोरास्वामी अय्यर) का तर्क था कि इस अनुबंध में किसी भी तरह का प्रतिफल नहीं दिया गया था। इसलिए वादी और प्रतिवादी के बीच कोई वैध संविदा नहीं था जिसको कोर्ट द्वारा प्रवर्तित कराया जा सके। अर्थात वादी का वाद (plaint) पोषणीय (maintainable) नहीं था।
वादी का कहना था कि उसने प्रतिवादी के वचन (promise) पर भरोसा करके ही मरम्मत कार्य में खर्च किया था और यह संविदा के लिए प्रतिफल है। इसलिए दोनों के बीच हुआ समझौता के वैध संविदा था और इसलिए विधि द्वारा प्रवर्तनीय (enforceable) है।
सिविल कोर्ट ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया। प्रतिवादी ने सिविल रिविज़न पिटीशन फ़ाइल किया। [इसलिए प्रस्तुत रिविज़न पिटीशन में जो मूल वादी (अरुणाचला अय्यर) था, वह प्रतिवादी बन गया और जो मूल वाद में प्रतिवादी (दोरास्वामी अय्यर) था, वह यहाँ वादी बन गया।]
अपीलीय कोर्ट के समक्ष विधिक प्रश्न यह था कि क्या यह एक वैध प्रतिफल है और इसलिए विधि द्वारा प्रवर्तनीय संविदा है?
(क्योंकि अधिनियम के अनुसार एक वैध संविदा के लिए प्रतिफल का होना अनिवार्य है।)
[S. 2 (d) the Indian Contract Act, 1872 – “consideration” – when, at the desire of the promisor, the promise or any other person has done or abstained from doing, or does, or abstains from doing, or promises to do or to abstain from doing, something, such act or abstinence or promise is called a consideration for promise;
[2(घ) जबकि वचनदाता की वांछा पर वचनग्रहिता या कोई अन्य व्यक्ति कुछ कर चुका है या करने से विरत रहा है, या करता है या करता है या करने से प्रविरत रहता है, या करने का या करने से प्रविरत रहने का वचन देता है, तब ऐसा कार्य या प्रविरती या वचन उस वचन के लिए प्रतिफल कहलाता है;
कोर्ट ने यह माना कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि प्रतिवादी ने मंदिर के मरम्मत के लिए पैसे देने का कोई ऑफर दिया हो जिसे वादी ने स्वीकार किया हो। जिस समय यह तथाकथित संविदा हुआ था, उस समय मंदिर के मरम्मत का कार्य पहले से ही चल रहा था, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वादी ने प्रतिवादी के कहने पर, या उसके आश्वासन के बाद उसके अनुसार कार्य शुरू किया था।
केदार नाथ भट्टाचार्य वर्सेस गोरी मोहम्मद केस से इस इस केस के तथ्य भिन्न है। केदार नाथ केस में सदस्यों ने इस शर्त पर कि वादी भवन या उसका कोई हिस्सा बनाएगा, अपने हिस्से का राशि देने का स्पष्ट रूप से वचन दिया था। (in consideration of your agreeing to enter into a contract to erect or yourselves erecting this building, I undertake to supply the money to pay for it upto the amount for which I subscribe my name ..)
प्रतिफल के लिए वचनदाता की तरफ से वचनग्रहीता को ऑफर होना आवश्यक है। लेकिन प्रस्तुत केस में इसका कोई प्रमाण नहीं है बल्कि वचनदाता द्वारा एक निश्चित राशि देने का एक सामान्य सा कथन है। यह भी साबित नहीं हो पाया कि मरम्मत का कार्य प्रॉमिस यानी वचन के अनुपालन में किया गया था ।
उपर्युक्त प्रेक्षण के आधार पर कोर्ट ने माना कि दोनों पक्षों के बीच कोई वैध समझौता नहीं था। इसलिए पैसे की वसूली का अधिकार स्वीकार नहीं किया गया और मूल केस के प्रतिवादी द्वारा फ़ाइल सिविल रिविज़न पिटीशन स्वीकार कर लिया गया।
अब्दुल अज़ीज़ वर्सेस मासूम अली (AbdulAziz v. Masum Ali)[AIR 1914 All. 22]
तथ्य: आगरा के इस्लाम एजेंसी के स्थानीय समिति के एक मस्जिद की मरम्मत की जानी थी। मरम्मत के खर्चे के पूरा करने के लिए लोगों से सदस्यता (subscription) आमंत्रित किया गया। मुंशी हाफिज अब्दुल करीम को कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
पैसे की वसूली कर पैसे उसके पास ही जमा की जानी थी। स्वयं मुंशी हाफ़िज़ अब्दुल करीम 500 रु देने का वादा किया था। जान मुहम्मद नामक एक व्यक्ति ने भी 500 रु देने का वादा किया। जान मुहम्मद ने इस राशि का एक चेक कोषाध्यक्ष के नाम से भेजा।
कोषाध्यक्ष ने सितंबर, 1907 में इस चेक को बैंक को भेजा। लेकिन बैंक ने इसे वापस कर दिया क्योंकि यह ठीक से समर्थित (endorsed) नहीं था। जनवरी, 1909, में लगभग डेढ़ साल बाद इसे फिर से बैंक में प्रस्तुत किया गया, लेकिन निर्धारित समय से ज्यादा का होने (out dated) होने के कारण इसे फिर वापस कर दिया गया।
20 अप्रैल, 1909 को कोषाध्यक्ष हाफिज अब्दुल करीम का निधन हो गया। उसके उत्तराधिकारियों के विरुद्ध 1000 रु के वसूली के लिए वाद लाया गया। इसमे 500 वह राशि थी जिसे देने के लिए कोषाध्यक्ष व्यक्तिगत रूप से वचन दिया था और 500 रु वह राशि थी जिसके लिए जान मुहम्मद ने उसे चेक दिया था पर कोषाध्यक्ष ने उसे समय पर भुनाया नहीं था।
ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया और कोषाध्यक्ष के उत्तराधिकारी को 1000 रुपये देने के लिए उत्तरदायी माना। प्रतिवादी (कोषाध्यक्ष के उत्तराधिकारी) ने प्रथम अपील डिस्ट्रिक्ट जज के कोर्ट में और वहाँ से राहत नहीं मिलने पर द्वितीय अपील हाई कोर्ट में किया ।
इस मामले में अपीलीय न्यायालय के समक्ष निर्णय करने के लिए दो मूल विधिक मुद्दे थे:
- क्या बिना प्रतिफल का यह संविदा वैध और इसलिए कानून द्वारा प्रवर्तनीय है? और
- क्या कोषाध्यक्ष के विधिक उत्तराधिकारी को कोषाध्यक्ष द्वारा की गई लापरवाही (समय सीमा के अंदर चेक बैंक में जमा नहीं करना) के लिए दोषी ठहराया जा सकता है और उससे उस राशि की वसूली की जा सकती है?
पहले प्रश्न पर अपीलार्थी का मानना था कि कोषाध्यक्ष द्वारा पैसे देने के लिए तैयार होना वचन (promise) के चरण तक नहीं पहुंचा था और केवल प्रतिस्थापन था। इसलिए इस से किसी विधिक दायित्व की उत्पति नहीं हुई थी।
उनकी यह भी दलील थी कि जैसा कि केदार नाथ वर्सेस गोरी मोहम्मद केस में कोर्ट का प्रेक्षण था कि अगर किसी वचन पर विश्वास कर के कोई पक्ष संविदा को अग्रसारित करने में वास्तव में कोई कार्य करता है तो वह वचन उस कार्य के लिए प्रतिफल हो जाता है।
लेकिन प्रस्तुत मामले में मस्जिद के मरम्मत का कार्य शुरू नहीं हुआ था, इसलिए कोई प्रतिफल नहीं था और प्रतिफल के अभाव में किसी वैध संविदा का अस्तित्व दोनों पक्षों के बीच नहीं था।
इसके जवाब में प्रतिवादियों की दलील थी कि कोषाध्यक्ष ने स्वयं यह वचन दिया था कि पैसे उसके अकाउंट में जाना चाहिए और उसके कब्जे में रहना चाहिए। कोषाध्यक्ष का इरादा पैसे देने का था और उसने इसीलिए अपना नाम उस लिस्ट में लिखवाया था जो उन सदस्यों की थी जो पैसे देने के लिए तैयार थे।
दूसरे प्रश्न कि क्या किसी व्यक्ति के लापरवाही से हुए किसी अन्य व्यक्ति को हुए हानि के लिए उसके विधिक उतराधिकारियों को दोषी ठहराया जा सकता है, के लिए अपिलार्थी का तर्क था कि वे उसी स्थिति मे दोषी हो सकते है जब इस लापरवाही का उन्होने कोई लाभ लिया हो।
अर्थात प्रस्तुत केस में अगर उन्होने चेक की राशि का उपयोग किया होता तभी उन्हे उत्तरदायी ठहराया जा सकता था, जैसा कि इस इस केस में नहीं हुआ था। इसलिए कोषाध्यक्ष के लापरवाही से हुए दूसरे पक्ष की हानि के लिए उसक विधिक उत्तराधिकारियों को दोषी नहीं माना जा सकता है।
मैक्सिम action personalis moritur cum persona (a personal right of action dies with the person) के आधार पर भी अपने को इसके लिए उत्तरदायी नहीं माना। लेकिन प्रतिवादी पक्ष की तरफ से दलील यह थी कि इस लापरवाही के कारण जिस पक्ष को हानि हुआ था वह अभी जीवित है, इसलिए उसे मूल रूप से लापरवाही के दोषी व्यक्ति के विधिक उत्तराधिकारियों से यह धन वसूलने आ अधिकार है क्योंकि उसके विधिक उत्तराधिकारी के रूप में उसे यह अधिकार है कि वह उस चेक को भुना कर उसका उपयोग कर सके।
पहले प्रश्न के उत्तर में कोर्ट ने माना कि चूँकि मरम्मत का कार्य शुरू नहीं किया गया था, अर्थात जिस व्यक्ति ने इस कार्य के लिए पैसे देने का वचन दिया था, उसे वास्तव में कुछ नहीं मिला। इसलिए उसे वचन (promise) के बदले वास्तव में कोई प्रतिफल नहीं मिला।
जैसा कि सर फ़्रेडरिक पोलक (Sir Frederick Pollock) का कहना है “consideration is the price for which the promise of the other is bought and the promise is thus given for value is enforceable.”
अर्थात अगर संविदा का कोई पक्ष कुछ करने के लिए वचन देता है तो बदले में उसे भी कुछ मिलना चाहिए। इसलिए प्रतिफल के अभाव में यह संविदा वैध नहीं था और अपीलार्थी संविदा के तहत उसके पिता कोषाध्यक्ष द्वारा दिया गए 500 के वचन को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
दूसरे प्रश्न के उत्तर में कोर्ट ने माना कि कोषाध्यक्ष कमिटी का प्रतिनिधि/अभिकरण (agent) नहीं था। इसलिए उसका लापरवाही के लिए दोषी होना संदिग्ध है। उसके द्वारा कोषाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी लेना स्वैच्छिक रूप से दूसरों की भलाई के लिए किया गया कार्य था।
पहली बार चेक को समर्थित (endorsed) करने में और दूसरी बार पुनः प्रस्तुत करने में देरी या मूल दाता से नया चेक लेने में देरी के कारण के लिए कई संभव कारण या व्याख्या हो सकता है जो कि स्वाभाविक है। इसलिए हो सकता है कि कोषाध्यक्ष के खिलाफ उसके जीवन काल में लाया गया वाद सफल नहीं होता। इस स्थिति में उसके विधिक उतराधिकारियों के विरुद्ध भी वाद नहीं लाया जा सकता है।
उपर्युक्त प्रेक्षण के आधार पर कोर्ट ने अपील स्वीकार कर लिया।