विबन्धन और प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट : केस लॉ-भाग 9
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट अथवा संविदा का संबंध
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का अर्थ है जो संविदा के पक्षकार नहीं हैं वह उसे लागू कराने के लिए न्यायालय में वाद नहीं ला सकता है। लेकिन भारतीय संविदा अधिनियम s. 2 (b) इसका अपवाद देता है।
वचन विबंधन (estoppel)
वचन विबंधन का अर्थ होता है अपने वचन से बंध जाना। अगर संविदा का कोई एक पक्षकार कोई वचन या आश्वासन देता है। दूसरा पक्ष उस वचन या आश्वासन पर अविश्वास कर कोई ऐसा कार्य करता है जो उसके हितों के प्रतिकूल हो। ऐसी स्थिति में वचन देने वाला पक्ष अपने वचन से बंध जाता है।
अर्थात वह अपना वचन पूरा करने के लिए उसी तरह बाध्य होता है, जैसे संविदा से उत्पन्न दायित्व को। लेकिन यह दायित्व संविदा से नहीं बल्कि उसके वचन से उत्पन्न होता है।
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट और वचन विबंधन (estoppel) के संबंध में विधिक प्रावधानों को हम पिछले आलेख में देख चुके हैं। अब हम इस संबंध कुछ leading cases देखते हैं:
वेंकटा चिन्नाया राववर्सेस वेंकटरमाया गरु
(Venkata Chinnaya Rau V. Venkataramaya Garu [(1881) 1 I.J. 137 (Mad.)
तथ्य: एक महिला ने एक अपनी पुत्री को जमीन का एक निश्चित दुकड़ा दिया। मालिकाना हक के हस्तांतरण (transfer) के लिए उसने जो दस्तावेज़ बनवाया था, वह गिफ्ट के रुप में था। यह gift deed रजिस्टर्ड था।
लेकिन यह हस्तांतरण सशर्त था। इन दस्तावेजों के एक शर्त के अनुसार पुत्री को प्रति वर्ष 653 रु उस महिला की बहन को देना था। महिला की पुत्री (अर्थात जिसके पक्ष में गिफ्ट किया गया था) महिला की बहन के साथ एक इकरारनामा (agreement) किया था जिसके अनुसार उसने इस शर्त को मानने के लिए तैयार थी।
लेकिन बाद में उसने शर्त को मानने से मना कर दिया अर्थात बहन को वह धनराशि देना बंद कर दिया। उस महिला की बहन (वादी या plaintiff) ने इस राशि की वसूली के लिए उसकी पुत्री (प्रतिवादी या defendant) पर न्यायालय में सिविल वाद दायर किया।
इस मामले में विधिक प्रश्न (legal issue) यह था कि क्या महिला की बहन (वादी) उसकी पुत्री (प्रतिवादी) के खिलाफ वाद ला सकती है क्योंकि वह उस संविदा में पक्षकार नहीं थी और उनसे कोई प्रतिफल नहीं दिया था। संविदा का प्रतिफल प्रतिवादी की माँ (वादी की बहन) द्वारा दिया गया था।
इस केस में वादी की तरफ से दलील दिया गया कि गिफ्ट के दस्तावेज़ (संविदा) में प्रतिवादी ने मालिकाना हक (ownership) के बदले वादी को प्रतिवर्ष जो रकम देने का वचन दिया था, वह इस संविदा के लिए प्रतिफल था और इसलिए यह एक वैध संविदा था।
चूँकि प्रतिफल के रूप में प्रतिवादी द्वारा जो वचन दिया गया था वह वादी के हित में था इसलिए वादी इस रकम को पाने के लिए कानूनी रूप से हकदार थी। दूसरी ओर प्रतिवादी की ओर से यह दलील दिया गया कि इस संविदा में स्वयं वादी ने कोई प्रतिफल नहीं दिया था, इसलिए वह इस राशि के लिए (अर्थात संविदा को कानून द्वारा लागू कराने के लिए) हकदार नहीं थी और उसका वाद पोषणीय नहीं है।
न्यायालय ने सविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) पर विचार किया।
[2(घ) जबकि वचनदाता की वांछा पर वचनग्रहिता या कोई अन्य व्यक्ति कुछ कर चुका है या करने से विरत रहा है, या करता है या करता है या करने से प्रविरत रहता है, या करने का या करने से प्रविरत रहने का वचन देता है, तब ऐसा कार्य या प्रविरती या वचन उस वचन के लिए प्रतिफल कहलाता है]
इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि एक वैध संविदा के लिए यह आवश्यक नहीं कि प्रतिफल केवल वचनग्रहीता (promisee) के प्रति हो बल्कि यह किसी अन्य व्यक्ति के लिए भी हो सकता है भले ही वह अन्य व्यक्ति उस संविदा का पक्षकार नही हो। इसलिए प्रस्तुत केस में वादी का पक्ष सही माना गया।
इस केस में शामिल प्रश्न लगभग वैसे ही थे जैसे कि इंग्लिश केस Dutton v. Poole [(1677) 2 Lev. 210]. जस्टिस Innes ने इस केस पर विचार किया। इस केस में एक व्यक्ति की पुत्री विवाहयोग्य उम्र की थी। वह उसके विवाह के लिए अपने हिस्से का लकड़ी बेचना चाहता था।
उसके पुत्र ने उसे वादा किया कि वह उसकी पुत्री (अपनी बहन) के विवाह के समय 1000 पाउंड देगा अगर उसका पिता वह लकड़ी का हिस्सा उसे दे दे। पिता ने वह हिस्सा छोड़ दिया लेकिन पुत्र ने अपना वचन नहीं निभाया। अतः उसकी बहन और उसके पति (वादी) ने इस रकम की वसूली के लिए अपने भाई(प्रतिवादी) वाद दायर किया।
यद्यपि संविदा प्रतिवादी का अपने पिता के साथ हुआ था और उसने पिता को यह वचन दिया था। वादी उसमे पक्षकार नहीं थी। लेकिन वह इस संविदा की हितभोगी थी। इसलिए कोर्ट ने इसे अनुचित माना था कि वादी को उसके लाभ से वंचित कर दिया जाय और इसलिए उसे रकम पाने का हकदार माना।
प्रस्तुत केस में यह पाया गया कि वादी अपनी बहन की संपत्ति से संविदा से पहले भी धनराशि पाती रही थी। जब यह संपत्ति प्रतिवादी को हस्तांतरित हुआ तब भी संविदा के अनुसार यह व्यवस्था बनी रही। चूँकि जब वह संपत्ति प्रतिवादी हस्तांतरित हुआ उससे वादी को मिलने वाले धनराशि (annuity) की हानि हुई। यह हानि उसका वचन के लिए प्रतिफल माना जा सकता है। इसलिए यह माना जा सकता है कि वादी ने प्रतिफल दिया था।
जस्टिस Kindersley अलग तर्क के ऐसे ही निर्णय पर पहुँचे। उनके अनुसार गिफ्ट के दस्तावेज़ (gift deed) और प्रतिवादी द्वारा वादी को निश्चित रकम देने का संविदा दोनों एक ही साथ निष्पादित (executed) हुआ। इसलिए इन दोनों को एक ही प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है।
प्रतिवादी द्वारा वादी को निश्चित धनराशि देने का वचन देना उसकी माँ द्वारा उसे संपत्ति हस्तांतरित करने के लिए प्रतिफल माना जा सकता है। इसलिए प्रतिवादी द्वारा इस राशि का भुगतान नहीं करना संविदा का भंग (breach of contract) माना जा सकता है और इसलिए वादी इस रकम को उससे पाने के लिए हकदार है।
(यह केस “doctrine of privity of consideration” के संबंध में भारत में कानून की स्थिति को स्पष्ट करता है। इस केस से यह स्पष्ट हो गया कि इंग्लिश कानून का यह सिद्धान्त भारत में लागू नहीं होता है।]
नवाब ख्वाजा मोहम्मद वर्सेस नवाब हुसैनी बेगम
Nawab Khwaja Muhammad Khan v Nawab Husaaini Begam
[(1910) 37 I.A. 152]
हुसैनी बेगम का विवाह ख्वाजा मोहम्मद खान के पुत्र रुस्तम अली खान से मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार हुआ। विवाह (निकाह) के समय चूँकि दोनों अवयस्क थे इसलिए उनकी ओर से उनके अभिभावकों ने समझौता किया (25 अक्तूबर, 1877)।
समझौता के अनुसार ख्वाजा मोहम्मद खान (पति का पिता) ने हुसैनी बेगम को खर्चा-ए-पानदान के रूप में 500 रु प्रति माह देने का वचन दिया था। यह राशि एक निश्चित संपत्ति की आय से देना था। यह तब से मिलना था जब से वह अपने ससुराल आती।
यह समझौता निकाह से पहले निकाह के लिए हुआ था। निकाह के समय चूँकि दोनों (वर-वधू) बच्चे थे, इसलिए 6 साल के बाद वह अपने ससुराल गई। लेकिन वहाँ गृह कलह के कारण 13 साल के बाद उसने अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया और अलग रहने लगी।
अब हुसैनी बेगम ने अपने ससुर नवाब ख्वाजा मोहम्म्द खान के खिलाफ खर्चा–ए-पानदान की राशि (500 रु) के वसूली के लिए वाद दायर किया। लेकिन सिविल कोर्ट ने उसके विपक्ष में फैसला दिया।
ससुर की तरफ से यह दलील दिया गया कि 25 अक्तूबर, 1877 को हुए समझौते में वह पक्षकार नहीं थी इसलिए उसे इस समझौते को लागू कराने का अधिकार नहीं है और इसलिए यह वाद पोषणीय (maintainable) नहीं है। सिविल कोर्ट ने यह माना था कि चूँकि वह अब अपने पति के साथ नहीं रह रही है, इसलिए वह इस राशि के लिए हकदार नहीं है।
अपील में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सिविल कोर्ट के फैसले को पलट दिया। कोर्ट का तर्क था कि समझौते में खर्चा-ए-पानदान देने के लिए इस तरह का कोई शर्त नहीं था कि उसे वह राशि तभी दी जाएगी जब वह पति के साथ या ससुराल में रहेगी या पति के प्रति वफादार रहेगी।
यह शर्त भी नहीं थी कि किसी परिस्थिति में या समय अवधि में उसका यह अधिकार समाप्त हो जाएगा। बल्कि यह पूर्णतः बेशर्त था और जमीन के एक निश्चित टुकड़े पर भारित था। इसलिए पत्नी का पति के साथ रहना या नहीं रहना समझौते के तहत उसे मिलने वाले लाभ पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। इसलिए कोर्ट ने वादी को 15000 रु का कुल भुगतान के लिए डिक्री पास किया। साथ ही उसे फैसले की तारीख (10 नवंबर, 1903) से राशि मिलते तक प्रति वर्ष 6% के दर से ब्याज मिलता।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के विरुद्ध प्रतिवादी (ससुर) ने किंग्स काउंसिल में अपील किया। अपने पक्ष में उसने मुख्यतः दो तर्क दिये:
पहला, Tweddle v. Atkinson [1 B, & S 393] केस के अनुसार जो कांट्रैक्ट के पक्ष नहीं होते वे उसे लागू कराने के लिए वाद नहीं कर सकते (privity of contract) कोर्ट ने यह प्रेक्षण किया कि भारत में सामाजिक स्थिति इंग्लैंड से अलग है। यहाँ समान्यतः बच्चों की शादियाँ उनके अभिभावक तय करते हैं। ऐसे में अगर उन बच्चों को बड़ा होने पर इसके तहत दिया गया अधिकार नहीं मिले तो यह अनुचित होगा। प्रस्तुत केस में खर्चा-ए-पानदान की राशि एक निश्चित (अचल) संपत्ति पर भारित की गई थी।
अपीलर्थी का दूसरा तर्क यह था कि खर्चा-ए-पानदान इंग्लैंड में प्रचलित pin-money की तरह था। यह पत्नी को पति के पास रहने के लिए दिया जाता है। जब पत्नी ने स्वेच्छा से पति का घर छोड़ दिया और अन्यत्र रहने लगी तो उसका यह अधिकार समाप्त हो गया। इसलिए अब वह इस राशि की वसूली नहीं कर सकती। लेकिन कोर्ट ने इस मत को भी नहीं माना ।
कोर्ट का ऑब्जेर्वेशन था कि भारत और इंग्लैंड के सामाजिक संस्थाओं में मूलभूत भिन्नता है। खर्चा-ए-पानदान और पिन-मनी की अवधारणा में मौलिक अंतर है। खर्चा-ए-पानदान एक व्यक्तिगत भत्ता है, जो कि निकाह से पहले या बाद में निर्धारित किया जा सकता है। इससे किसी तरह का कर्तव्य या दायित्व (obligation) जुड़ा नहीं होता है। पति इसे कैसे खर्च करे इस पर पति का कोई नियंत्रण नहीं होता है।
इसके अतिरिक्त कोर्ट ने इस पर भी विचार किया कि प्रतिवादी ने अपने साक्ष्य में बताया कि घर छोड़ने के बाद वह कई बार पति के घर गई थी, और इसका खंडन पति ने भी नहीं किया। साथ ही पति को कानूनी उपचार प्राप्त था कि वह पत्नी के विरुद्ध वैवाहिक संबंधो की पुनर्स्थापन (restitution of conjugal right) के लिए वाद ला सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। ऐसा कोई प्रमाण नहीं था कि पति ने पत्नी को वापस लाने के लिए प्रयास किया हो।
इन तर्कों के आधार पर कौंसिल ने इस अपील को खारिज करने की सिफ़ारिश किया। [अर्थात इस केस में privity of contract का अपवाद बनाया गया है।]
कुछ अन्य महत्वपूर्ण केस लॉ
टवडील वर्सेस एटकिनसन (1861) 1, B&S 393] –
यह निर्धारित हुआ कि केवल पक्षकार ही वाद ला सकते हैं। (पिता ने विवाह करने पर दोनों को निश्चित धनराशि देने का वचन दिया था, पिता की मृत्यु होने पर पुत्र वाद नहीं ला सकता था क्योंकि वह संविदा का पक्षकार नहीं था।)
डनलप न्यूमैटिकटायर कंपनी लिमिटेड वर्सेस सेलफ्रीज एंड कंपनी लिमिटेड, (1915)-
में इसी सिधान्त को माना गया। भारत में इस सिधान्त के प्रयोग के लिए प्रीवि कौंसिल का जामदास वर्सेस राम अवतार (1911) में लिया गया निर्णय प्राधिकार माना जाता है।
नारायणी देवी वर्सेस टैगोर कमर्शियल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (1973)-
आचरण, अभस्वीकृति या स्वीकृति – कभी-कभी दो पक्षकारों के बीच संविदा का संबंध नहीं होता है लेकिन अगर उनमें से कोई एक अपने आचरण या अभिस्वीकृति द्वारा दूसरे पक्षकार के उसके ऊपर वाद लाने के अधिकारकों को मानता है तो वह विबन्धन की विधि के आधार पर उत्तरदायी हो जाता है।
ख्वाजा मोहम्मद खान वर्सेस हुसैनी बेगम (1910), वीरम्मा वर्सेस अपप्या (1957)-
पारिवारिक प्रबंधों मे विवाह खर्च या अनुरक्षण का विधान आदि में हितभोगी व्यक्ति संविदा का पक्षकार नहीं होने पर भी वाद ला सकते है। इस तरह परिवारिक समझौते प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का अपवाद बनाते हैं।