विवाह-विच्छेद (Dissolution of marriage or divorce)- केस लॉ

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महत्त्वपूर्ण मुकदमें (Case Laws)

डॉ एन जी दास्ताने वर्सेस श्रीमती एस दास्ताने (AIR 1975 SC 1534)

इस केस में मानसिक क्रूरता और ऐसे क्रूरता को साबित करने के लिए सबूतों पर विस्तार से विचार किया गया था। इसमें पत्नी पति और उसके रिश्तेदारों पर झूठे लांछन लगाती, दोष मढ़ती और भला-बुरा कहती रहती थी। वह पति से कहती थी कि वह दास्ताने परिवार का विनाश चाहती हैं। वह पति को मानसिक पीड़ा पहुँचाने में प्रसन्नता अनुभव करती थी। एक बार उसने कहा था कि उसके पिता की वकालत की सनत झूठी और जाली थी और उसे जब्त कर लिया गया है। वह पति से यह भी कहती थी कि “तुम्हारे पिता ने जो पुस्तक लिखी है उसे जला दो और उसकी राख मस्तक पर लगा लो”। वह पति से कहती कि “तुम मनुष्य की योनि में दानव हो। भगवान करे तुम्हारी नौकरी चली जाय।” दो बार उसने अपना मंगलसूत्र तोड़ लिया। पति के दफ्तर से लौटने का समय होता तो वह घर में ताला लगा कर कहीं बाहर चली जाती थी। पति को मानसिक प्रताड़ना देने के लिए वह पति के सामने अपनी पुत्रियों को बुरी तरह मारती-पीटती और उनके जिह्वा पर लाल मिर्च का चूर्ण मल देती। रात को तेज रोशनी जलाकर पति के सिरहाने बैठकर उसे उलाहने­ताने (nagging) देती। ऐसी मानसिक प्रताड़ना से पति का जीवन दूभर हो गया था।

प्रस्तुत मामले में न्यायालय के समक्ष क्रूरता को साबित करने के लिए उचित सबूतों का भी प्रश्न था। न्यायालय ने कुछ अंग्रजी मामलों में अपनाए गए दृष्टिकोण कि क्रूरता को साबित करने का भार याचिकाकर्ता पर हैए पर भी विचार किया और यह दृष्टिकोण रखा कि हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 23 में “संतुष्ट” शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ “युक्तियुक्त संदेह से परे” नहीं बल्कि संभावनओं के आधार पर न्यायालय की संतुष्टि से है। न्यायालय ने यह भी माना कि मानवीय संबंधों में इतनी विविधता होती है कि ऐसा कोई वर्गीकरण संभव नहीं है जिससे यह निश्चित रूप से कहा जाए कि अमुक-अमुक कार्य क्रूरता की संज्ञा में आते हैं। क्रूरता का आकलन किसी एक कार्य द्वारा नहीं बल्कि विभिन्न कार्यों के सम्मिलित प्रभाव द्वारा किया जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय (ज. चन्द्रचूड़) ने माना कि प्रस्तुत मामले में पत्नी के व्यवहार को वैवाहिक जीवन के सामान्य खट्टे-मीठे अनुभवों की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है बल्कि इससे पति अनवरत मानसिक संताप का अनुभव करता था इसलिए पत्नी पति के प्रति क्रूरता की दोषी थी।

समर घोष वर्सेस जया घोष (2007 (3) SCJ 253)

दोनों पक्षकारों का विवाह 1984 में हुआ था। दोनों उच्च प्रशासनिक पदों पर थे। विवाह के कुछ ही दिनों बाद दोनों में समस्याएँ उत्पन्न होने लगी और 27.08.1990 से दोनों अलग रहने लगे। तलाक के लिए याचिका डालने के समय दोनों लगभग साढ़े सोलह वर्षों से अलग रह रहे थे। इन साढ़े सोलह वर्षों में दोनों कभी साथ नहीं रहे। यहाँ तक कि पति के बीमार होने और बाईपास सर्जरी होने पर भी पत्नी ने फोन से भी हालचाल नहीं पूछा। पति ने 2007 में क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर किया।

विचारण न्यायालय ने पत्नी के इन कार्यों को क्रूरता माना- पति के साथ रहने से इंकार करनाए बच्चे नहीं होने देने का एकतरफा निर्णय, केवल अपने लिए खाना बनाना और पति को कहना कि वह वह अपने लिए खुद बना ले या बाहर से ले आए और पति की बीमारी की लंबी अवधि में भी उससे मिलने नहीं जाना यहाँ तक कि फोन पर भी हालचाल नहीं पूछना। लेकिन उच्च न्यायालय ने माना कि पति मानसिक क्रूरता साबित करने में असफल रहा। अतरू पति ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए दो मुख्य मु़द्दे थे:-

1. वैवाहिक संबंधों में मानसिक क्रूरता क्या है? और

2. क्या यह संभव है कि ऐसा कोई सीमांकन कर दिया जाय जिससे यह पता चले कि वैवाहिक जीवन की सामान्य कठिनाईयाँ इस सीमा से आगे मानसिक क्रूरता बन जाती है?

उच्चतम न्यायालय (न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी) ने विभिन्न प्रमाणिक ग्रन्थों एवं न्यायिक निर्णयों के प्रकाश में इन प्रश्नों का विस्तृत विवेचन किया। न्यायालय ने माना कि वैवाहिक संबंधों में होने वाले मानसिक क्रूरता मे आशय की उपस्थिति अनिवार्य तत्व नहीं है। अपितु इसमें किसी एक पक्ष के कार्य और उसके परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष पर पड़ने वाला प्रभाव ही निर्णायक तत्व है। न्यायालय ने शोभारानी वर्सेस मधुकर रेड्डी (1988 1SSC 105) केस में प्रतिपादित क्रूरता के सिद्धांत को भी दृष्टिगत रखा। इस केस में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित विचार (observation) दिया था:

1. हिन्दू विवाह अधिनियम में क्रूरता को परिभाषित नहीं किया गया है। अधिनियम की धारा 13 (1) (i a) में प्रयुक्त “क्रूरता” शब्द को वैवाहिक दायित्वों एवं कर्तव्यों के परिप्रेक्ष्य में और मानवीय व्यवहार के संदर्भ में ऐसे व्यवहार के रूप में समझा जा सकता है जिससे दूसरे पक्ष पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

2. क्रूरता मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय के हो सकता है। शारीरिक हिंसा में हिंसा के स्तर और तथ्य को निर्धारित किया जा सकता है लेकिन मानसिक हिंसा को क्रूर व्यवहार की प्रकृति तथा दूसरे पक्ष पर उसके प्रभाव के संदर्भ में समझा जा सकता है। पर अगर कार्य अपनेआप में बुरा या अवैध हो तो उसे क्रूरता माना जाएगा और ऐसी स्थिति में दूसरे पक्ष पर इसका प्रभाव देखने की आवश्यकता नहीं है।

3. क्रूरता के कार्य में आशय का होना आवश्यक नहीं है

4. चूँकि मानव व्यवहार का कोई निश्चित या समान मानक नहीं होता है इसलिए प्रत्येक मामले में उसके पृथक् तथ्यों के आधार पर समझा और निर्णीत किया जाना चाहिए।

न्यायलय ने ए जयचंद्र वर्सेस अनील कौर (2005 2 SCC 22) में प्रतिपादित इस सिद्धांत को भी माना कि आपराधिक विधि के साक्ष्य का नियम कि अपराध “शंका से परे साबित होना चाहिए” वैवाहिक मामले में लागू नहीं होता। ऐसे मामले में केवल क्रूरतापूर्ण कार्य ही नहीं बल्कि दूसरे पक्ष पर उसका प्रभाव भी महत्त्वपूर्ण होता है।

विनिता सक्सेना वर्सेस पंकज पंडित (2006 3 SCC 188) में न्यायालय ने माना था कि क्रूरता गठित करने के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है ऐसा कार्य एक बार किया गया था या अनेक बार, अपितु कार्य की गंभीरता, तीक्ष्णता और प्रभाव महत्त्वपूर्ण है।

टी एन भागवत वर्सेस भागवत मामले में भी न्यायालय ने माना कि अगर कार्य क्रूरतापूर्ण हो तो कार्य के पीछे का आशय महत्वपूर्ण नहीं होता है।

अब दूसरे प्रश्न की कौन-कौन से कार्य मानसिक क्रूरता के अंतगर्त माने जाने चाहिए के संबंध में न्यायालय का तर्क था कि मानव व्यवहार जटिल एवं अनिश्चित प्रकृति का होता है। कोई व्यवहार एक परिस्थिति में क्रूरता कहला सकता है पर दूसरे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। यह समय, परिस्थिति, व्यक्तिविशेष के संस्कार, संवेदनशीलता, सामाजिक और आर्थिक हैसियत, पारिवारिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, शैक्षणिक स्तर, धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज एवं परम्पराए मानवीय मूल्य जैसे अनेक तत्वों पर निर्भर करता है। इसलिए मानसिक क्रूरता के संबंध में कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता है कि अमुक कार्य मानसिक क्रूरता के अन्तर्गत आएगा।

न्यायालय ने माना कि मानसिक क्रूरता गठित करने के लिए कोई सामान्य मानक या दिशा-निर्देश निर्धारित नहीं किया जा सकता है फिर भी उसने निम्नलिखित कुछ दृष्टांत दिए जिन्हें क्रूरता माना जाना चाहिए। साथ ही न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह कोई अंतिम सूची नहीं बल्कि केवल कुछ दृष्टांत हैं:

  1. संपूर्ण वैवाहिक जीवन के ऐसे मानसिक क्लेश एवं प्रताड़ना जिससे दोनों का साथ रहना संभव नहीं रह जाए।
  2. संपूर्ण वैवाहिक जीवन को दृष्टिगत रखते हुए ऐसी परिस्थिति हो जाए जिसमें युक्तियुक्त रूप से यह नहीं माना जा सके कि दूसरे पक्ष को दोषी पक्ष के साथ रहना चााहिए।
  3. आपसी संबंधों में शीथिलता एवं स्नेह की कमी को क्रूरता नहीं माना जा सकता है लेकिन लगातार एक पक्ष द्वारा रूखी भाषा का प्रयोग, अशिष्टता, उदासीनता तथा अवहेलना होती हो जिससे दूसरे पक्ष के लिए वैवाहिक जीवन असह्य हो जाए तो यह क्रूरता मााना जा सकता है।
  4. क्रूरता एक मानसिक अवस्था है। दोषी पक्ष के ऐसे कार्य जिनसे दूसरा पक्ष एक लंबे समय तक मानसिक वेदना, निराशा एवं अवसाद की स्थिति में रहे, को मानसिक क्रूरता कहा जा सकता है।
  5. दोषी पक्ष द्वारा लगातार अपमान और गाली-गलौज का व्यवहार जिससे दूसरे पक्ष का जीवन दयनीय बन जाए, मानसिक क्रूरता माना जा सकता है।
  6. दोषी पक्ष द्वारा लगातार ऐसा अनुचित व्यवहार करना जिससे दूसरे पक्ष के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को वास्तविक खतरा हो या खतरे की आशंका हो, मानसिक क्रूरता है। यह खतरा गंभीर और लगातार होना चाहिए।
  7. सामान्य वैवाहिक रिश्तों की संवेदनाओं का बिल्कुल ही समाप्त हो जाना, लगातार निंदनीय व्यवहार करना, जानबूझकर उपेक्षा एवं उदासीनता का रूख रखना जिससे दूसरे पक्ष के मानसिक स्वास्थ्य को हानि पहुँचे, भी मानसिक क्रूरता है।
  8. वैवाहिक जीवन के छोटे-मोटे झगड़े को मानसिक क्रूरता मानते हुए तलाक का आधार नहीं माना जाना चाहिए।
  9. मानसिक क्रूरता निर्णित करने के लिए संपूर्ण वैवाहिक जीवन को दृष्टिगत रखना चाहिए न कि कुछ गिने-चुने घटनाओं को इसका आधार बनाना चाहिए। क्रूर व्यवहार युक्तियुक्त लंबे समय तक जारी रहना चाहिए जिससे दूसरे पक्ष का जीवन कठिन हो जाए।
  10. अगर पति या पत्नी में से कोई भी एक पक्ष बिना किसी चिकित्सीय आवश्यकता के और बिना दूसरे पक्ष को सूचना दिए या उसकी सहमति लिए संतानोत्पत्ति रोकने के लिए ऑपरेशन कराता है या पत्नी गर्भपात कराती है तो यह मानसिक क्रूरता की परिभाषा में आएगा।
  11. बिना किसी चिकित्सीय या युक्तियुक्त कारण के एक लंबे समय तक शारीरिक संबंध बनाने से इंकार करना मानसिक क्रूरता है।
  12. एक लंबी अवधि तक पति और पत्नी लगातार अलग रहते हो जिससे यह निष्कर्ष निकलता हो कि उनके वैवाहिक भावनाएँ समाप्त हो गई है जिसे पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता है और इससे दूसरे पक्ष की भावनाओं एवं संवेदनाओं के प्रति असम्मान दिखता हो तो यह मानसिक क्रूरता में परिगणित हो सकता है।

उपर्युक्त तर्कों एवं सिद्धांतों पर न्यायालय ने माना कि प्रस्तुत मामले में दोनों पक्ष लगभग 16 वर्षों से अलग रह रहे थे। पति के गंभीर बीमारी की हालत में भी पत्नी द्वारा उसे न तो देखने जाना और न ही किसी तरह से, यहाँ तक कि फोन से भी, उसका हालचाल पूछना यह साबित करता है कि दोनों पक्षों में एक-दूसरे के प्रति किसी तरह का भावनात्मा लगाव नहीं है। स्पष्टतः विवाह “असमाधेय रूप से भंग (irretrievable breakdown) हो चुका है। इसलिए विचारण न्यायालय का निर्णय सही था। पति का अपील स्वीकार कर लिया गया।

बिपिनचन्द्र जयसिंहभाई शाह वर्सेस प्रभावती (AIR 1957 SC 176)

दोनों का विवाह 1942 में हुआ और पति एवं उसके परिवार के साथ पत्नी बंबई (वर्तमान मुंबई) में रहने लगी। दोनों का वैवाहिक जीवन 1947 तक सामान्य रूप से चलता रहा। इसी बीच पति का एक पारिवारिक मित्र उनके साथ रहने आया। जनवरी, 1947 में पति व्यवसायिक कार्य के लिए इंग्लैण्ड गया। पति की अनुपस्थिति में पत्नी की घनिष्ठता उस मित्र से हो गई। मई, 1947 में जब पति वापस आया तो उसके पिता ने उसकी पत्नी के हाथ से लिखा एक पत्र दिया जिसमें उसकी पत्नी ने उस मित्र के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया था। पति ने इस पत्र के विषय में पत्नी से पूछताछ की। इस घटना के तुरंत बाद एक विवाह में शामिल होने के लिए पत्नी अपने पिता के घर चली गई।

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जुलाई, 1947 में पति ने अपने अटॉर्नी के जरिए पत्नी को एक पत्र भेजा जिसमें उस पारिवारिक मित्र के साथ पत्नी की अनुचित घनिष्ठता का आरोप लगाते हुए उससे अपने बेटे को पति के पास भेजने के लिए कहा गया था। जबाव मे पति को बताया गया कि पत्नी भी कुछ दिनों में बंबई आ सकती थी। इस पर पति ने पत्नी के पिता को टेलीग्राम भेजा कि “प्रभा को मत भेजो”। पति के पिता ने भी पत्नी के पिता को इसी आशय का पत्र लिखा कि बेटे की सहमति के बाद ही पत्नी को बंबई भेजा जाए।

जुलाई, 1951 में पति ने अभित्यजन (desertion) के आधार पर तलाक के लिए न्यायालय में याचिका दायर किया। पत्नी के पक्ष में यह दलील दिया गया कि वह तो पति के घर जाने के लिए हमेशा इच्छुक थी लेकिन उसके बारम्बार प्रयासों के बावजूद पति ने उसे वापस लेने से मना कर दिया। पत्नी के चाचा अपने बेटे के साथ पति को मनाने बंबई भी गए थे। यहाँ तक कि इस मुद्दे पर पति और पत्नी की माताओं में भी बातें हुई। पत्नी ने पति की इच्छानुसार बेटे को पति के पास भेज दिया। लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद पति और उसके परिवारवाले पत्नी को वापस लेने के लिए तैयार नहीं हुए। पत्नी का यह भी दलील था कि उपर्युक्त टेलीग्राम मिलने के बाद वह पति पक्ष की सहमति के बिना सीधे उसके घर नहीं जा सकती थी। इस तरह पत्नी का तर्क था कि पति ने जानबूझ कर उसे आने से रोका था। अत: वह अभित्यजन की दोषी नहीं थी।

विचारण न्यायालय ने पति के पक्ष में तलाक की डिक्री पास कर दिया। लेकिन अपील में बंबई उच्च न्यायालय ने पत्नी को अभित्यजन को दोषी नहीं माना क्योंकि जुलाईए 1947 के पत्र और टेलीग्राम से स्पष्ट था कि पति ने स्वयं उसे छोड़ा था न कि पत्नी ने उसे। पत्नी की तरफ से तो वापस आने के लिए प्रयास हुए थे। अतरू वास्तव में पति ही अभित्यजन का दोषी था। इस निर्णय के विरूद्ध पति ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष निर्णय करने के लिए मुख्य मुद्दा यह था कि अभित्यजन (desertion) क्या है? क्या यह आवश्यक है कि पति के घर का अभित्यजन करते समय पत्नी का आशय स्थायी अभित्यजन करना हो।

उच्चतम न्यायालय (न्यायमूर्ति बी पी सिन्हा) ने प्रमाणिक ग्रन्थों और निर्णित मुकदमों को दृष्टिगत रखते हुए अभित्यजन के मूल तत्वों का विस्तार से विवेचन किया। न्यायालय ने “रेडन ऑन डिवोर्स” को उदृत किया जिसके अनुसार अभित्यजन का अर्थ है विवाह के एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष की सहमति के बिना और किसी युक्तियुक्त कारण के बिना दूसरे पक्ष से साहचर्य को स्थायी रूप से समाप्त करने के आशय से अलग होना। “हाल्सबेरीज लॉ ऑफ इंग्लैंड” अभित्यजन का तात्पर्य है वैवाहिक दायित्वों का संपूर्ण रूप से अस्वीकरण से लेता है। अभित्यजन केवल किसी स्थान से अपने को हटानामात्र नहीं अपितु विधि द्वारा मान्यता प्राप्त वैवाहिक दायित्वों से अपने को हटाना है। न्यायालय के अनुसार अभित्यजन गठित करने के लिए चार तत्व अनिवार्य हैं-

  1. अलग होने का तथ्य, और
  2. वैवाहिक साहचर्य को हमेशा के लिए समाप्त कर देने का आशय। इन दोनों तत्वों की उपस्थिति अनिवार्य है पर इनकी उपस्थिति एक ही साथ होना अनिवार्य नहीं है।

अभित्यजित होने वाले पक्ष के लिए ये दो तत्व अनिवार्य है:

  1. अभित्यजन की सहमति नहीं देना अर्थात् वह वैवाहिक संबंधों को बनाए रखने के लिए इच्छुक हो, और
  2. अभित्यजन के लिए दूसरे पक्ष को युक्तियुक्त कारण नहीं देना। अगर एक पक्ष दूसरे पक्ष को शब्दों या व्यवहार द्वारा अभित्यजन के लिए बाध्य करता है तो भले ही प्रकट रूप से दूसरे पक्ष ने अभित्यजन किया हो पर दोषी पहला ही माना जाएगा।

न्यायालय ने यह भी कहा कि अभित्यजन के आधार पर अनुतोष के लिए याचिका दायर करने वाले पक्ष पर अपने पक्ष में उपयुक्त तत्वों को साबित करने का भार है।

अभित्यजन के उपर्युक्त आयामों का विस्तार से चर्चा करने के बाद न्यायालय ने प्रस्तुत मामले पर विचार किया। मई, 1947 में पत्नी द्वारा पति का घर छोड़ने का कार्य किसी अन्य पुरूष के प्रति उसकी घनिष्ठता प्रकट करने वाले पत्र के उसके पति एवं उसके परिवार वालों के हाथ में पड़ने एवं इस संबंध में पूछताछ करने की पृष्ठभूमि में हुआ था। इसे शमिन्दगी से पति एवं उसके परिवार का सामना कर पाने की हिम्मत न होने और मायके में विवाह के बहाने वहाँ से कुछ समय के लिए हटने के रूप में देखा जा सकता है। उसने सोचा होगा कि कुछ समय बाद वह शायद इस भावनात्मक असंतुलन से उबर कर पति और उसके परिवार का सामना कर सके यद्यपि उसने भौतिक रूप से पति का घर छोड़ दिया पर इससे यह पता नहीं चलता कि उसका आशय स्थायी रूप से वैवाहिक घर एवं संबंधों को छोड़ने का था। विशेष रूप से इसलिए कि बाद में उसने समस्या सुलझाने एवं वैवाहिक घर में लौटने के लिए कई प्रयास भी किए, यहाँ तक कि एक अवसर पर वह पति की माता के साथ गाँव में भी एक सप्ताह तक रही थी। उसने अपने बेटे को भी पति के पास बंबई भेज दिया था। स्पष्टत: उसके पक्ष में अभित्यजन का तथ्य तो था लेकिन इसका आशय नहीं था।

दूसरी तरफ पति ने यद्यपि घर छोड़ते समय सहमति नहीं दिया था पर बाद में उसके वापस न आने के लिए युक्तियुक्त कारण दे दिया। मायके में विवाह समारोह सम्पन्न हो जाने के बाद जब वह आना चाहती थी तो पति ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने पत्नी को अभित्यजन का दोषी नहीं माना और पति के अपील को खारिज कर दिया।

सावित्री पाण्डे वर्सेस प्रेमचन्द्र पाण्डे (2000 2 SCC 73, AIR 2002 SC 591)

विवाह के बाद पत्नी कुछ ही समय तक पति के साथ रही। पर इस दौरान विवाहोत्तर संभोग द्वारा विवाह की संसिद्धि नहीं किया जा सका। पत्नी का आरोप था कि विवाह के कुछ ही समय बाद पति और उसके परिवारवालों ने दहेज के लिए उसका उत्पीड़न करना शुरू कर दिया। पत्नी का यह भी आरोप था कि पति के किसी अन्य महिला से अनुचित संबंध थे और तथाकथित रूप से दोनों ने विवाह भी कर लिया था। पति ने इन आरोपों को अस्वीकार करते हुए कहा कि विवाह संसिद्धि नहीं होने के लिए पत्नी स्वयं दोषी थी। पति का आरोप था कि पत्नी अभित्यजन की दोषी है और वह अपने दोष का लाभ लेना चाह रही थी। इस तरह पति और पत्नी दोनों एक-दूसरे पर अभित्यजन का दोष लगा रहे थे।

इस मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष निर्णय करने के लिए दो मुख्य मुद्दे थे-

पहला, वैवाहिक विधि में “क्रूरता” और “अभित्यजन” का क्या तात्पर्य है? और

दूसरा, अगर विवाहोत्तर संभोग द्वारा विवाह संसिद्ध नहीं हुआ हो तो वैसी स्थिति में क्या हो अगर अभित्यजनकर्त्ता स्वयं अभित्यजन के आधार पर अनुतोष माँग रही हो।

न्यायालय के अनुसार धारा 13(1) (ia) के अनुसार “क्रूरता” तलाक का आधार है लेकिन क्रूरता शब्द को अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन वैवाहिक मामलों में क्रूरता का आशय विवाह के लिए किसी पक्ष द्वारा ऐसे व्यवहार से है जिससे दूसरे पक्ष के साथ रहना उसके लिए खतरनाक हो जाए या दूसरे पक्ष के मन में यह युक्तियुक्त भय हो जाए कि साथ रहना उसके लिए खतरनाक है। यह आशंका पीड़ित पक्ष की संवेदनशीलता के स्तर पर निर्भर नहीं करता अपितु यह ऐसा होना चाहिए जिससे एक सामान्य व्यक्ति को युक्तियुक्त रूप से वैसी ही आशंका वास्तव में हो। यह सामान्य वैवाहिक जीवन के छोटे-मोटे मतभेदों, तनावों एवं क्लेशों से अधिक गंभीर होना चाहिए। प्रस्तुत मामले में विचारण न्यायालय एवं उच्च न्यायालय दोनों इस बात पर एकमत थे कि पत्नी पति पर क्रूरता के आरोप साबित करने में नाकाम रही। उसने पति पर जो आरोप लगाए थे उससे ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि वैवाहिक जीवन के सामान्य मतभेदों एवं तनावों के प्रति वह सामान्य से अधिक संवेदनशील थी लेकिन युक्तियुक्त रूप से उसे न तो कोई खतरा था और न ही इसकी आशंका थी।

अधिनियम के तहत “अभित्यजन” का तात्पर्य किसी एक पक्ष द्वारा एकतरफा रूप से और बिना किसी युक्तियुक्त कारण के वैवाहिक दायित्वों एवं साहचर्य से अपने को स्थायी रूप से अलग कर लेना है। यह एक घटना या कार्य नहीं है जिसे पूर्ण होते ही अभित्यजन को कार्य पूर्ण होना माना जाय बल्कि यह प्रत्येक मामले के विशेष परिस्थितियों एव तथ्यों पर निर्भर करता है। पत्नी द्वारा प्रस्तुत वाद एवं साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि उसने स्वयं पति को विवाहोत्तर संभोग द्वारा विवाह को संसिद्ध करने से रोका।

श्रीमती रीता निझावन वर्सेस श्री निझावन (AIR 1973 Del 200) मामले में न्यायालय ने माना था कि सामान्य रूप से शारीरिक संबंधों की अनुपस्थिति क्रूरता है।

विवाह संसिद्धि के बिना अभित्यजन का अपराध गठित नहीं हो सकता है। यह वैवाहिक विधि की एक सुस्थापित स्थिति है कि अगर कोई पक्ष सक्रिय रूप से और जानबूझकर वैवाहिक संभोग को समाप्त नहीं करता है तो वह “अभित्यजन” नहीं करता है अर्थात् अभित्यजन के लिए वैवाहिक संभोग को एकतरफा रूप से समाप्त करना या रोकना आवश्यक है। प्रस्तुत मामले में पत्नी ऐसा कोई साक्ष्य नहीं दे पाई है जिससे पता चले कि पति ने अस्वीकार किया हो, इसके विपरीत यह साक्ष्य है कि पत्नी ने स्वयं अनुमति नहीं दी थी। इसलिए अभित्यजन की दोषी पत्नी है, न कि पति। ऐसी स्थिति में पत्नी को अनुतोष देना उसे अपने दोष का लाभ देना होगा।

न्यायालय ने यह भी माना कि किसी एक पक्ष के यह कहने से कि विवाह वास्तव में भंग हो चुका है और उसे बनाए रखना व्यर्थ है, विवाह विच्छेद नहीं किया जा सकता है। विवाह को किसी एक दोषी पक्ष की सनक पर नहीं छोड़ा जा सकता है। प्रस्तुत मामले में अपीलकर्त्ता पत्नी ने अपने दोषों का लाभ लेने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए अपील किया था। न्यायालय ने अपील खारीज कर दिया।

धरमेन्द्र कुमार वर्सेस उषा कुमार (AIR 1977 SC 2213)

पत्नी ने धारा 9 के तहत वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापन के लिए याचिका दायर किया था। अगस्त, 1973 में न्यायालय ने उसके पक्ष में डिक्री पारित कर दिया। लेकिन नहीं डिक्री तामिल नहीं किया गया। दो वर्ष बाद पत्नी ने विधि द्वारा निर्धारित अवधि तक तामिल नहीं होने के आधार पर धारा 13 (1A) (i) के तहत तलाक के लिए याचिका दायर किया। पति ने अपने लिखित जवाब (written statement) में यह कहा कि उसने डिक्री के तामिल के लिए प्रयास किया था। उसने इसके लिए कई पत्र भी पत्नी को लिखे थे जो कि रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेजे गए थे। लेकिन पत्नी ने कुछ पत्रों को तो लेने से ही मना कर दिया और जिन पत्रों को लिया उसका भी जवाब नहीं दिया। उसने अन्य माध्यमों से भी पत्नी को आकर साथ रहने के लिए आमंत्रण दिया। इसलिए वैवाहिक अधिकारों की पुनसर््थापन की डिक्री के तामिल नहीं होने के लिए पत्नी जिम्मेदार है और इस आधार पर तलाक की याचिका देकर वह अपने स्वयं के दोष का लाभ लेना चाह रही है। इसलिए उसे धारा 23 (1) (a) तहत उसे तलाक की डिक्री नहीं मिलनी चाहिए।

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निचली अदालतों ने पति के तर्कों को नहीं माना और तलाक की डिक्री पारित कर दिया। पति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील किया।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचारण के लिए दो मुख्य मुद्दे (issues) थे: 

  1. धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापन की डिक्री मिलने के वाबजूद अगर डिक्रीधारी (decree-holder) स्वयं धारा 23 (1) (a) के तहत गलती करे अर्थात् डिक्री की तामिल नहीं करे तो क्या वह धारा 13 (1A) (ii) के तहत अनुतोष पाने का हकदार है?
  2. पति द्वारा साथ रहने के आमंत्रण का कोई जबाव नहीं देना क्या पत्नी का धारा 23 (1) (a) के तहत दोष है, जबकि ऐसी डिक्री के लिए उसने स्वयं याचिका दायर किया था।

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार धारा 13 में उपधारा (1A) 1964 के संशोधन द्वारा शामिल किया गया था। 1964 से पहले स्थिति यह थी कि जिसके पक्ष में डिक्री हुआ हो (decree-holder) डिक्री तामिल नहीं होने के आधार पर तलाक की डिक्री की माँग सकता था जिसके विरूद्ध यह डिक्री पारित हुई थी उसे ऐसा अधिकार नहीं था। 1964 के संशोधन के बाद दोनों ही पक्ष को यह अधिकार मिल गया कि डिक्री के तामिल नहीं होने के आधार पर तलाक की डिक्री की माँग कर सके। लेकिन धारा 9 के तहत पारित डिक्री के तामिल नहीं होने मात्र से 23 (1)(a) के तहत दोष होना नहीं माना जाएगा। अधिनियम में धारा 23 1964 में 13 (1A) के शामिल से पहले से ही मौजूद था। धारा 23 (1) (a) के होते हुए भी विधायिका ने धारा 13 (1A) पारित कर दोनों पक्षों अर्थात् जिसके पक्ष में डिक्री हुआ हो और जिसके विरूद्ध यह डिक्री पारित हुआ होए को यह अधिकार दिया है। धारा 23 (1) (a) धारा 13 (1A) द्वारा दोनों पक्षों को मिले अधिकार को निष्प्रभावी नहीं कर सकता। ऐसा भी हो सकता है कि दोनों पक्ष यद्यपि अपने दोषों का लाभ नहीं ले रहे हो लेकिन डिक्री की तामिल करने में असफल रहे हों।

उपर्युक्त तर्कों के आधार पर यह विवेकपूर्ण होगा कि जिसके पक्ष में डिक्री पारित हुआ हो, डिक्री तामिल करने के उसके इच्छुक नहीं होने पर जिसके विरूद्ध डिक्री पारित हुआ हो उसके अनुतोष को अस्वीकार किया जाए। धारा 23 (1) (a) में प्रयुक्त “दोष” (wrong) शब्द का आशय पुन: साहचर्य के आमंत्रण के प्रति उदासीनता मात्र नहीं है, अपितु यह उदासीनता मात्र से कुछ अधिक और गंभीर होना चाहिए। प्रस्तुत मामले में पति का यह तर्क था कि उसके द्वारा भेजे गए पत्रों को पत्नी ने या तो लेने से मना कर दिया या लिया भी तो उसका जवाब नहीं दिया। पति द्वारा साथ रहने के अन्य आमंत्रण के प्रति भी उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं किया। पति के इस दावे को अगर स्वीकार भी कर लिया जाए तो पत्नी की उदासीनता इतनी गंभीर नहीं है कि धारा 23 (1) (a) के तहत “दोष” माना जाए और इस आधार पर उसके द्वारा माँगे गए अनुतोष देने से अस्वीकार कर दिया जाए।

उपर्युक्त आधार पर कोर्ट ने पत्नी को तलाक की डिक्री पाने का अधिकारी माना और पति द्वरा दायर अपील खारीज कर दिया।              

टी श्रीनिवासन वर्सेस वरलक्ष्मी (1991) (DMC 20 (Mad)

जनवरी, 1975 में दोनों का विवाह हुआ। पति ने कम दहेज के लिए ताने देना शुरू किया। 03.02.1975 को पति ने अधिक दहेज और उपहार लेकर वापस आने के लिए कह कर उसे घर से बाहर कर दिया। पत्नी की पिता पति की माँग पूरी करने में सक्षम नहीं था। इसी बीच 28.07.1975 को पति ने यह कहते हुए कि उसने स्वयं अपनी मर्जी से घर छोड़ा था, उसे नोटिस भेजा। पत्नी ने इसका जबाव दिया जिसमें इन आरोपों को अस्वीकार करते हुए यह कहा गया था कि उसने नहीं बल्कि पति ने “अभित्यजन” किया है और वह पति के साथ रहने के लिए तैयार है। इसके बाद पति ने धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकरों की पुनर्स्थापना के लिए याचिका दायर किया। 21.12.1977 को न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार कर पत्नी द्वारा साथ रहने की इच्छा व्यक्त करने के आधार पर डिक्री पारित कर दिया। इसके बाद पत्नी ने पति के घर जाने और उसके साथ रहने के लिए कई प्रयास किए। यहाँ तक कि मई, 1977 में वह पति के घर भी गई लेकिन पति एवं उसके माँ ने उसे घर में प्रवेश नहीं करने दिया। डिक्री पारित होने के एक साल बाद पति ने धारा 13 (1A) (ii) के तहत के लिए याचिका दायर कर दिया।

पति का तर्क था कि डिक्री के पारित होने के बाद एक साल बीतने पर भी वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापना नहीं हो पाई इसलिए वह तलाक की डिक्री पाने का हकदार है। दूसरी तरफ पत्नी का तर्क था कि पति ने बिना किसी युक्तियुक्त आधार के उसका अभित्यजन किया है। डिक्री पारित होने के बाद पति के साथ रहने का उसने अपनी तरफ से बहुत प्रयास किया लेकिन पति ने उसे आने नहीं दिया। इस तरह, डिक्री तामिल नहीं होने देने के लिए पति स्वयं जिम्मेवार है और उसे इस आधार पर तलाक की डिक्री नहीं मिलनी चाहिए।

विचारण न्यायालय के अनुसार पति ने अभित्यजन किया है। उसने स्वयं धारा 9 के तहत वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापना के लिए डिक्री लिया पर पत्नी को आने से रोका। एक साल बाद संबंध पुनर्स्थापना नहीं होने के आधार पर तलाक की डिक्री के लिए याचिका दायर कर दिया। इस तरह धारा 23 (1) (a) के तहत उसने अपने दोषों का लाभ लेने का प्रयास किया। अत: वह 13 (1A) के तहत तलाक का हकदार नहीं है।

पति ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील किया। उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय मुद्दा यह था कि धारा 23 (1) (a) के अनुसार 13 (1A) की डिक्री नहीं देने का विचारण न्यायालय का निर्णय क्या सही है?

उच्च न्यायालय (न्यायमूर्ति के एम नटराजन्) ने धारा 23 (1) (a) के विषय में विस्तार से विवेचन किया। पति का तर्क था कि यद्यपि धारा 13 (1A) (ii) धारा 23 (1) (a) से प्रशासित है लेकिन पति द्वारा पत्नी को वापस लेने से इंकार करना मात्र धारा 23 (1) (a) के अन्तर्गत “दोष” में परिगणित नहीं होता है जिससे उसे धारा 13 (1A) (ii) के तहत डिक्री नहीं मिले।

न्यायालय के अनुसार धारा 13 (1A) के तहत अनुतोष देते समय न्यायालय को धारा 23 (1) (a) और न्यायिक पृथक्करण (धारा 10) या वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना (धारा 9) के डिक्री पारित होने के बाद डिक्रीधारी के व्यवहार को ध्यान रखना चाहिए और अपने दोषों का लाभ लेकर अनुतोष (relief) माँगने वाले पक्ष को अनुतोष नहीं देना चाहिए। 1964 और 1976 के संशोधनों का आशय दोषी पक्ष को राहत देना नहीं था बल्कि अनुतोष माँगने वाले पक्ष को न्यायालय को यह संतुष्ट करना होगा कि वह अपने दोषों का लाभ नहीं ले रहा है और इसलिए धारा 23 (1) (a) उसपर लागू नहीं होगा। अर्थात् जब धारा 23 (1) (a) लागू नहीं होगा तभी धारा 13 (1A) के तहत अनुतोष मिल पाएगा।

प्रस्तुत मामले में यह स्पष्ट है कि पति ने धारा 9 के तहत अनुतोष इसलिए प्राप्त किया था कि बाद में वह धारा 13 (1A) के तहत तलाक की डिक्री ले सके। उसने जानबूझकर डिक्री की तामिल नहीं किया। उसने बिना किसी युक्तियुक्त कारण के पत्नी का अभित्यजन किया और उसे घर से बाहर निकाला दिया। इसलिए यह केवल डिक्री को तामिल करने का मामला नहीं है बल्कि उसने सक्रिय रूप से दुर्व्यवहार किया है। इसलिए वह धारा 23 (1) (a) के तहत “दोषी” है और विचारण न्यायालय द्वारा 13 (1A) की याचिका खारिज करना सही था।

उपर्युक्त आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने पति की अपील खारिज कर दिया। अब पति ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर किया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में कोई विस्तृत निर्णय नहीं दिया बल्कि मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय का अनुमोदन कर दिया।

हीराचन्द श्रीनिवास मानागाँवकर वर्सेस सुनंदा (AIR 2001 SC 1285; SCC 125)

पत्नी ने पति द्वारा व्यभिचार के आधार पर धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर किया। न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार करते हुए पत्नी के पक्ष जनवरी, 1981 में डिक्री पारित कर दिया। न्यायालय ने पति को 100 रू प्रति माह पत्नी के और 75 रू प्रति माह पुत्री के भरण-पोषण के लिए देने का आदेश दिया। लेकिन पति ने इस आदेश का पालन नहीं किया और दोनों को भरण-पोषण के लिए कुछ नहीं दिया। सितम्बर, 1883 में पति ने डिक्री के एक वर्ष से ज्यादा अवधि तक साहचर्य स्थापित नहीं हो पाने के आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर किया।

पति का तर्क था कि धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण के डिक्री के एक साल बाद तक साहचर्य नहीं स्थापित होने के कारण धारा 13 (1A) के तहत वह तलाक की डिक्री पाने का हकदार है। जबकि पत्नी का कहना था कि पति ने डिक्री के बाद भी उस स्त्री से व्यभिचारपूर्ण संबंध बनाए रखा। उसने न्यायालय के आदेशानुसार भरण-पोषण के लिए पैसे भी नहीं दिया। उसे तलाक की डिक्री देना उसके द्वारा किए गए “दोषपूर्ण” कार्यों का उसे लाभ देना है।

इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए ये मुख्य प्रश्न थे-

  1. धारा 13 (1A) के अन्तर्गत तलाक के लिए दायर याचिका को क्या धारा 23 के आधार पर न्यायालय अस्वीकार कर सकती है?
  2. पत्नी और पुत्री के लिए भरण-पोषण का खर्च देने के न्यायालय के आदेश का तामिल नहीं करने का कार्य धारा 23 के तहत “दोष” है?
  3. धारा 10 के तहत डिक्री पारित होने के बाद भी पति द्वारा किसी अन्य स्त्री के साथ संबंध बनाए रखना क्या धारा 23 के तहत “दोष” है?

पहले मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय का मत था कि यद्यपि धारा 13 (1A) अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र है तथा धारा 23 के अधीन नहीं है। पर यह मानना भी गलत है कि 13 (1A) को धारा 23 (1) के अधीन करने से संशोधन द्वारा शामिल धारा 13 (1A) अर्थहीन हो जाएगा। वास्तव में धारा 13 (1A) का सीमित उद्देश्य है और इसके अनुसार धारा 9 या धारा 10 के डिक्री पारित होने के बाद निर्धारित अवधि तक वैवाहिक साहचर्य पुनर्स्थापना नहीं होने की स्थिति में तलाक के लिए याचिका दायर करने का अधिकार जिसके पक्ष में डिक्री पारित हुआ है और जिसके विरूद्ध डिक्री पारित हुआ है, दोनों को मिला है। धारा 13 (1A) का आशय धारा 23 को सीमित करना नहीं है। धारा 13 की उपधारा (1A) याचिका दायर करने के अधिकार को विस्तृत करता है न कि न्यायालय को बाध्य करता है कि एक निश्चित अवधि तक वैवाहिक साहचर्य स्थापित नहीं होने की स्थिति में तलाक की डिक्री पारित करे। धारा 23 की भाषा से स्पष्ट है कि यह अधिनियम के अन्य उपबंधों के अधीन है। इसलिए धारा 13 (1A) के तहत डिक्री पारित करने के लिए भी धारा 23 (1) प्रासंगिक है।

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दूसरे मुद्दे के संबंध में उच्चतम न्यायालय का मत था कि कौन-से कार्य धारा 23 के अन्तर्गत “दोष” में परिगणित होंगे, इसके लिए कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता अपितु यह प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। न्यायिक पृथक्करण के बाद भी दोनों पक्षों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे वैवाहिक साहचर्य को स्थापित करने के लिए गंभीर प्रयास करे तथा एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहे। लेकिन प्रस्तुत मामले में पति ऐसा करने में असफल रहा। उसने न्यायालय के आदेश के बावजूद पत्नी और पुत्री को भरण-पोषण के लिए खर्च देने के कर्तव्य की अवहेलना की। उसने साहचर्य पुनर्स्थापित करने का कोई प्रयास भी नहीं किया। निर्धारित अवधि समाप्त होने के बाद उसने तलाक के लिए याचिका दायर कर अपने “दोष” का लाभ लेने का प्रयास किया।

तीसरे मुद्दे के संबंध में न्यायालय का कहना था कि अनैतिक एवं अवैध कार्य वैवाहिक अनुतोष पाने में सहायक नहीं हो सकता। न्यायालय ने व्यभिचार के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित किया था लेकिन डिक्री के बाद भी वह अनैतिक संबंध बनाए रखा। व्यभिचारपूर्ण संबंध में रहकर पति ने वैवाहिक अपराध किया था। न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित होने मात्र से यह अपराध समाप्त नहीं हो गया। न्यायिक पृथक्करण में कुछ वैवाहिक दायित्व निलम्बित रहते है लेकिन वैवाहिक संबंध बने रहते है। अत: पति कार्य “दोषपूर्ण” था और धारा 23 (1) (a) उसे वैवाहिक अनुतोष प्राप्त करने से रोकता है।

उपर्युक्त आधार पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पति के तलाक याचिका को अस्वीकार कर सही किया। उच्चतम न्यायालय ने पति की अपील खारिज कर दिया।  

सुरेष्टा देवी वर्सेस ओमप्रकाश 1 (1991) DMC 313 (SC)

दोनों का विवाह 21.11.1908 को हुआ। 08.01.1985 को दोनों ने एक संक्षिप्त बैठकए जिसमें पत्नी अपने वकील के साथ मौजूद थी, के बाद दोनों आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए तैयार हो गए। दोनों ने जिला न्यायालय में इसके लिए 13 (B) याचिका दायर की। 09.01.1985 को न्यायालय ने दोनों के बयान (statement) दर्ज किया। 15.01.1985 को पत्नी ने एक आवेदन देकर न्यायालय को बताया कि उसने इस याचिका के लिए सहमति दबाव एवं धमकी के कारण दिया था। पति ने याचिका दायर करने से पहले उसे अपने संबंधियों से मिलने और उनकी राय लेने की अनुमति भी नहीं दी थी। यहाँ तक कि उसके संबंधियों को न्यायालय में भी उसके साथ नहीं आने दिया।

उपर्युक्त आधार पर पत्नी ने याचिका खारिज करने की प्रार्थना की। पत्नी की सहमति नहीं होने के आधार पर जिला न्यायालय ने याचिका खारिज कर दिया। पति ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय के अनुसार सहमति देने वाला पक्ष एकतरफा रूप से अपनी सहमति वापस नहीं ले सकता है। न्यायालय ने पाया कि पत्नी ने अपनी सहमति बिना किसी बल, छल या अनुचित प्रभाव के दिया था। अत: अब वह उसे मानने के लिए बाध्य है। पत्नी ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि 13 (B) के तहत तलाक के लिए याचिका दायर करते समय सहमति देने वाला पक्ष क्या डिक्री पारित होने से पहले किसी भी समय अपनी सहमति वापस ले सकता है?

उच्चतम न्यायालय (न्यायमूर्ति जगन्नाथ शेट्टी) ने विभिन्न मत व्यक्त किया है। बंबई, दिल्ली और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों के अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 नियम 1 के अनुसार एक साथ सहमति से याचिका दायर करने वाले पक्षकार अपनी सहमति बाद में वापस नहीं ले सकते हैं। जबकि केरल, हरियाणा और राजस्थान उच्च न्यायालय के अनुसार कोई भी पक्ष डिक्री पारित होने से पहले अपनी सहमति वापस ले सकता है और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 नियम 1 के लागू होने की परिस्थितियाँ धारा 13 (B) से अलग है। इस विभिन्नता को समाप्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने सहमति के लिए महत्वपूर्ण समय के प्रश्न का विस्तार से विवेचन किया।

उच्चतम न्यायालय के अनुसार धारा 13 (B) को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि केवल याचिका दायर करने से न्यायालय डिक्री पारित करने के लिए अधिकृत नहीं हो जाता है। धारा में प्रतीक्षा के लिए 6 से 18 महिने की अवधि का प्रावधान है। यह समय दोनों पक्षकारों को विचार करने और अपने संबंधियों एवं मित्रों से राय लेने के लिए दिया गया है। इस संक्रमणकाल में कोई एक पक्ष अपने विचार बदल सकता है और धारा 13 (B) (2) के तहत याचिका दायर करने में वह शामिल नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में दूसरे पक्ष द्वारा अकेले ही याचिका दायर करने का कोई प्रावधान नहीं है। धारा 13 (B) के शब्द “यदि याचिका इस बीच वापस नहीं ले ली गई हो तो न्यायालय तलाक के लिए डिक्री पारित करेगा” से यह स्पष्ट है। इस धारा में यह भी उपबंध है कि न्यायालय इस बात से संतुष्ट होगा कि दोनों पक्षों के द्वारा सहमति स्वेच्छा से दी गई है। इसका अर्थ है कि पक्षकार अपनी सहमति वापस भी ले सकते हैं। अत: धारा 13 (B) के तहत तलाक की डिक्री पारित करते समय दी गई सहमति डिक्री पारित होते समय तक बनी रहनी चाहिए और उससे पहले अगर कोई पक्ष चाहे तो अपनी सहमति वापस ले सकता है।

उपर्युक्त आधार पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करते हुए पत्नी की अपील स्वीकार कर लिया।     

अभ्यास प्रश्न

प्रश्न- एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी की पुत्री रश्मि का विवाह सॉफ्टवेयर इंजीनियर विकास के साथ हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। रश्मि, जो कि पालतु पशुओं की शौकिन थी घर में पालतू कुत्ता रखना चाहती थी जबकि विकास से इसके विरूद्ध था और विवाह से पहले ही उसे यह बता चुका था। लेकिन विवाह के बाद रश्मि दो अल्सिसयन कुत्ते लाई और उसे घर में पालना चाहती थी। इससे चिढ़े विकास और रश्मि में तर्क-वितर्क होने लगा जिसमें रश्मि ने व्यंग करते हुए कहा कि मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण ही वह अस्वीकार कर रहा है। विकास सामान्यत: शांत रहता था गुस्से में आपे से बाहर हो गया और उसे पूरे जोर से थप्पड़ मार दिया। रश्मि का सिर दीवार से टकरा गया जिससे उसक ललाट में चोट आई। उससे माफी माँगने और उसकी मदद करने के बदले विकास घर से निकल गया और रात किसी मित्र के घर रूक गया। रश्मि आपके पास कानूनी सहायता के लिए आई क्योंकि विकास के साथ रहना अब वह सुरक्षित नहीं महसूस कर रही थी। उसे सलाह दीजिए और अगर आवश्यक है तो उसके लिए केस बनाइए। (LLB- 2009)

प्रश्न- रूपाली की शादी विवेक से हुई। विवेक मांसाहार और शराब पीने का शौकीन था जबकि रूपाली जिस घर से आई थी वहाँ शराब और मांसाहार नहीं किया जाता था तथा उसका विरोध किया जाता था। रूपाली विवेक के शराब पीने और घर में मांस लाने का हमेशा विरोध करती थी। वह अक्सर देर रात को नशे में धुत् होकर घर आने लगा और रूपाली को पीटने लगा था। लेकिन वह पत्नी को प्यार करता था और जब उसका नशा उतरता था तो वह उससे माफी भी माँगता था। रूपाली ने विवेक पर धार 498क के तहत वैवाहिक क्रूरता का मामला दर्ज करवाया। उसने विवेक के परिवारवालों पर दहेज के लिए उत्पीड़न करने का भी आरोप लगाया जो कि सत्य नही था। विवेक ने क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर किया। क्या वह सफल होगा? कानूनी प्रावधानों एवं न्यायिक निर्णयों के प्रकाश में निर्णय किजिए। (LLB- 2008)

प्रश्न- एक हिन्दू पुरूष क ने हिन्दू स्त्री ख से हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया। विवाह के बाद ख से दिनभर काम कराया जाता था और उसे कम दहेज लाने के लिए अपशब्द कहे जाते थे। और अधिक उत्पीड़न सहन न कर सकने के कारण ख ने वैवाहिक घर छोड़ दिया जबकि वह गर्भवती थी। क्या वह हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत तलाक माँग सकती है? (LLB-2007)

प्रश्न- सुमित्रा के पक्ष में धारा 9 के तहत दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए डिक्री हुआ था। लेकिन उसके पति ताराचन्द द्वारा साहचर्य का प्रयास विफल रहा क्योंकि सुमित्रा ने उसके साथ रहने से इंकार कर दिया। एक वर्ष के बाद सुमित्रा ने धारा 13 1क के तहत तलाक के लिए याचिका दायर किया। क्या वह सफल होगी? निर्णय कीजिए। (LLB- 2007, 2011)

प्रश्न- मनोज और सरिता का विवाह 2005 में हुआ। विवाह के दो वर्ष बाद मनोज का अनुचित संबंध सुधा से हो गया और वह उसके साथ रहने लगा। सरिता ने न्यायिक पृथक्करण के लिए आवेदन किया जो कि न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। एक साल बाद मनोज ने इस आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर किया कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के एक वर्ष बाद भी दोनों में साहचर्य स्थापित नहीं हो पाया था। उसने यह भी तर्क दिया कि वह सुधा के साथ रहता है इसलिए सरिता के साथ उसका विवाह मृतप्राय हो चुका है अर्थात् उसका सरिता के साथ विवाह असमाधेय रूप से भंग हो चुका है अत: ऐसे विवाह को बचाना व्यर्थ है और इसलिए भी तलाक की डिक्री पारित किया जाए। निर्णय कीजिए। (LLB- 2013)

प्रश्न- हिन्दू पत्नी को धारा 13 (2) के तहत मिले अधिकारों को बताइए। (LLB- 2007)

प्रश्न- उन विशेष आधारों को बताइए जो हिन्दू विवाह अधिनियम में केवल पत्नियों को प्राप्त हैं।

प्रश्न- हिन्दू विधि और मुस्लिम विधि के अन्तर्गत व्यस्कता का विकल्प (option of puberty) से संबंधित समानताओं एवं विषमताओं की तुलना कीजिए। (LLB-2009)

प्रश्न- चमेली का विवाह 5 वर्ष की आयु में गुलशन से करा दिया गया था। उस समय गुलशन की आयु 10 वर्ष थी। निम्नलिखित परिस्थितियों की कल्पना करते हुए चमेली और गुलशन को हिन्दू विधि के अन्तर्गत प्राप्त वैवाहिक अनुतोष का परीक्षण कीजिए:

(क) कि विवाह संसिद्ध नहीं हुआ;

(ख) कि विवाह संसिद्धि के समय चमेली की उम्र 14 वर्ष थी;

(ग) कि जब विवाह संसिद्ध हुआ उस समय चमेली 16 वर्ष की आयु पूरी कर चुकी थी। ((LLB- 2008)

प्रश्न- स्वभाव में भिन्नता के कारण रमेश और किरण लगभग 6 वर्षों से अलग रह रहे थे। सुरेश की सलाह पर किरण आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए राजी हो गई। दोनों ने हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 ख के अन्तर्गत तलाक के लिए याचिका दायर किया। लेकिन छह महिने बाद किरण ने रमेश के साथ कोर्ट जाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि उसने अपना निर्णय बदल दिया है और अब वह तलाक के लिए तैयार नहीं है। रमेश ने कोर्ट से प्रार्थना की कि पहले याचिका के आधार पर तलाक की डिक्री पारित की जाय। निर्णय कीजिए। (LLB-2007, 2010)

प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी: धारा 13 ख हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (LLB- 20120                               

प्रश्न- आपसी सहमति से तलाक के लिए अनिवार्य तत्व क्या हैं? (LLB- 2009)

प्रश्न- मीना और उसका पति रवि दो वर्षों से ज्यादा समय से अलग रह रहे थे। दोनो आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए सहमत हो गए और तदनुकूल दोनों ने 13.01.2001 को तलाक के लिए याचिका दायर किया। अगस्त, 2001 में जब कि मीना 13 (B) (2) (Second Motion) का आवेदन लगाना चाहती थी, रवि ने यह कहते हुए सहमति देने से इंकार कर दिया कि पहले उसने जब सहमति दी थी तब वह मानसिक रूप से बहुत परेशान था। परीक्षण कीजिए कि क्या मीना तलाक की डिक्री पाने के लिए हकदार है? (LLB- 2008)

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