अभिकरण और प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट तथा अभिकरण की समाप्ति (अध्याय 10, सेक्शन 182- 238)- part 26

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क्या प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट अभिकरण की संविदा पर लागू होता है?

प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट की अवधारण के अनुसार संविदा के पक्षकारों के बीच ऐसा संविदात्मक संबंध होता है कि वे एक-दूसरे के विरूद्ध वाद ला सकते है लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति जो संविदा का पक्ष नहीं हो उस संविदा के पालन के उसके भंग से हुए हानि की प्रतिपूर्ति के लिए न्यायालय में वाद नहीं ला सकता है।

लेकिन अभिकरण के संविदा में मालिक अपने अभिकर्ता के कार्य के लिए और उसके द्वारा की गई संविदाओं के लिए उसी तरह जिम्मेदार होता है जैसे कि यह उसके स्वयं के द्वारा किया गया हो। इसलिए प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट (privity of contract) के सामान्य नियम का यह अपवाद है।

वास्तव में अभिकरण संविदा का एक विशेष प्रकार होता है जिसमें मालिक अभिकर्ता के द्वारा संविदा करता है। नीलामीकर्ता (Auctioneers), आढ़तिया (Factor), दलाल (Brokers), प्रत्यापक अभिकर्ता (Del Creder Agents) इत्यादि अभिकर्ता के उदाहरण है।

(प्रत्यापक अभिकर्ता (Del Creder Agents) (यह एक वाणिज्यिक अभिकर्ता होता है जो कुछ अतिरिक्त कमीशन, जिसे प्रत्यापक कमीशन कहते हैं, के संदाय पर पर-व्यक्ति द्वारा संवदा पालन की प्रत्याभूति देता है।)

अभिकरण का प्रभाव संविदा के पर-व्यक्ति पर क्या पड़ता है (effect of agency on contracts with third party)?

धारा 226-238 में अभिकरण का पर-व्यक्ति (थर्ड पार्टी) पर प्रभाव के विषय में बताया गया है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति से संविदा करता है जो स्वयं सविदा का पक्षकार नहीं है, बल्कि किसी अन्य के प्रतिनिधि के रूप में उसकी तरफ से संविदा करता है, तो उस स्थिति में संविदा के तहत उसके अधिकार क्या हैं इसके विषय में बताया गया है।

वास्तव में अभिकरण का संविदा (contract of agency) का मूल यह है कि किसी व्यक्ति (third party या पर-व्यक्ति) से संविदा अभिकर्ता (agent) करता है लेकिन संविदा मालिक और पर-व्यक्ति के लिए बाध्यकारी होता है।  

अभिकर्ता दो तरह से संविदा करता है– एक मालिक के साथ, जिसके लिए वह उत्तरदायी होता है। दूसरा पर-व्यक्ति के साथ जिसके लिए वह नहीं बल्कि मालिक उत्तरदायी होता है। धारा 226 के अनुसार किसी

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अभिकर्ता के माध्यम से की गई संविदा के वे ही विधिक परिणाम होंगे मानों वे संविदाएँ और कार्य स्वयं मालिक द्वारा किए गए हो। उदाहरण 1, A B को प्राधिकृत करता है कि वह A के लिए कोई माल खरीदे। B C से यह माल खरीदता है लेकिन इसका मूल्य चुकाने में व्यतिक्रम (default) करता है।

C A के विरूद्ध वाद ला सकता है यद्यपि उसने A से प्रत्यक्ष रूप से कोई संविदा नहीं किया है। इसी तरह, C अगर माल देने में व्यतिक्रम करता है तो A उसके विरूद्ध वाद ला सकता है। उदाहरण 2, A B को प्राधिकृत करता है कि A ने C को जो ऋण दिया है B उसे वसूल ले। C B, जो कि A का प्राधिकृत अभिकर्ता है, को यह ऋण राशि लौटा देता है। अब C ऋण से उन्मोचित (discharged) हो जाएगा और A उसके विरूद्ध वाद नहीं ला सकेगा।

धारा 230 विशेष रूप से यह प्रावधान करता है मालिक की ओर से की गई संविदाओं के लिए कुछ अपवादों को छोड़ कर अभिकर्ता जिम्मेदार नहीं होगा। ये अपवाद निम्नलिखित हैंः

1. प्राधिकार का अतिक्रमण कर किया गया कार्य

सामान्यतः मालिक अप्राधिकृत कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होता है लेकिन अगर वह चाहे तो बाद में इस कार्य का अनुसमर्थन (ratification) कर सकता है। ऐसी स्थिति में वह इस कार्य के लिए उत्तरदायी हो जाएगा। अगर वह ऐसा नहीं करता है और प्राधिकृत और अप्राधिकृत कार्य अलग करने योग्य है तो मालिक का दायित्व केवल प्राधिकृत कार्य तक होगा (धारा 227)

उदाहरण– A B को प्राधिकृत करता है कि वह A के लिए 1000 रू का कोई माल खरीदे। B 1500 रू का माल खरीद लेता है। यदि A (मालिक) इसका अनुसमर्थन कर दे तो वह 1500 रू मूल्य तक के लिए उत्तरदायी होगा अन्यथा उसका उत्तरदायित्व केवल 1000 रू के लिए होगा। शेष 500 रू, जो कि प्राधिकार की सीमा से अधिक है, के लिए B (अभिकर्ता) व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होगा।

धारा 228 प्राधिकार के ऐसे अतिक्रमण के लिए उपबंध करता है जहाँ प्राधिकृत या अप्राधिकृत कार्य अलग नहीं किया जा सकता है। ऐसे में मालिक सम्पूर्ण व्यवहार को अमान्य कर सकता है।

2. अभिकर्ता के कपट, दुर्व्यप्देशन और अपकृत्यपूर्ण कार्य (धारा 238)

अभिकर्ता के ऐसे कार्यों के लिए मालिक उसी तरह उत्तरदायी होता है जैसे ये कार्य उसने स्वयं किया हो बशर्ते ऐसा कार्य अभिकर्ता प्राधिकृत कार्य के क्रम में मालिक की ओर से कार्य करते हुए करे। अर्थात् अगर अभिकर्ता प्राधिकृत कार्य के क्रम में कपट या दुर्व्यप्देशन करे तो पर-व्यक्ति को इस आधार पर संविदा शून्य करने का अधिकार हो जाएगा।

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अभिकर्ता के कार्य के लिए यहाँ मालिक का प्रतिनिधिक दायित्व है। यह दायित्व क्यू फेसिट पर एलियम फेसिट पर से(qui facit per aliam facit per se) के नियम पर आधारित है । इसका तात्पर्य है कि किसी अभिकर्ता का कार्य मालिक का कार्य होता है।

लेकिन अगर अभिकर्ता यह कपट या दुर्व्यपदेशन ऐसे कार्यों में करे जिसके लिए वह प्राधिकृत नहीं है तो उसका व्यक्तिगत उत्तरदायित्व होगा और मालिक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

कपट और दुर्व्यपदेशन के अलावा मालिक अभिकर्ता द्वारा किए गए अपकृत्यों के लिए भी उत्तरदायी होता है। लेकिन ऐसे कार्यों के लिए अभिकर्ता के व्यक्तिगत दायित्व भी होता है।

3. अभिकर्ता का व्यक्तिगत दायित्व

धारा 226 और 230 से स्पष्ट है कि सामान्य परिस्थितियों में अभिकर्ता मालिक और पर-व्यक्ति के बीच जोड़ने वाला केवल एक कड़ी होता है । जब वह मालिक की ओर से किसी पर-व्यक्ति के साथ वह संविदा करता है तो मालिक और पर-व्यक्ति के बीच संविदात्मक संबंध उत्पन्न हो जाता है।

लेकिन अभिकर्ता का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायित्व नहीं रहता है। वह न तो मालिक के लिए की गई संविदा को व्यक्तिगत रूप से प्रवर्तित कर सकता है और न ही उसके लिए आबद्ध होता है।

इसलिए उसके विरूद्ध विनिर्दिष्ट पालन (specific performance) के लिए वाद भी नहीं लाया जा सकता है। लेकिन धारा 230 कुछ आपवादिक दशाओं का उपबंध करता है जहाँ अभिकर्ता व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है और उसके विरूद्ध वाद लाया जा सकता है। ये स्थितियाँ हैं–

  1. जब अभिकर्ता किसी विदेशी मालिक की ओर से कार्य करता है।
  2. जब अभिकर्ता अपने मालिक का नाम प्रकट नहीं करता या यह प्रकट नहीं करता है कि वह अभिकर्ता के रूप में यह कार्य कर रहा है और अपने नाम से संविदा करता है।
  3. जब मालिक पर वाद नहीं लाया जा सकता है। जैसे, मालिक जब अप्राप्तवय हो। लेकिन अगर मालिक ने स्वयं प्रत्यक्षतः संविदा किया हो तब अभिकर्ता का दायित्व नहीं होगा। (अप्राप्तवय अभिकर्ता नियुक्त नहीं कर सकता है लेकिन उसकी ओर से उसका संरक्षक या अभिभावक नियुक्त कर सकता है।)
  4. जब अभिकर्ता ने व्यक्तिगत दायित्व के लिए संविदा किया हो।
  5. जब कोई अभिकर्ता किसी विधिक बाध्यता का भंग करता है।
  6. अप्राधिकृत कार्य, यदि मालिक ने उसके अनुसमर्थन नहीं किया है तो इसके लिए अभिकर्ता व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है। (धारा 235)
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धारा 233 और 234 के अनुसार जिन मामलों में अभिकर्ता व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है उसमे पर-व्यक्ति या तो या तो उस अभिकर्ता के, या मालिक के, या फिर दोनों के विरूद्ध वाद ला सकता है, बशर्ते उस पर-व्यक्ति ने यह करार नहीं किया हो कि वह उनमें से सिर्फ एक को उत्तरदायी ठहराएगा और अन्य के विरूद्ध वाद नहीं लाएगा।

अभिकरण समाप्त कैसे होता है (Termination of agency)?

धारा 201 छः स्थितियाँ बताती है जब अभिकरण समाप्त हो सकता है। ये हैं–

  1. मालिक द्वारा अभिकर्ता के प्राधिकार का प्रतिसंहरण;
  2. अभिकर्ता द्वारा त्यजन;
  3. अभिकरण के कार्य का पूर्ण हो जाना; 
  4. मालिक का मर जाना या विकृतचित्त हो जाना;
  5. मालिक के दिवालिया जाना;
  6. अभिकर्ता की मृत्यु या विकृतचित्त हो जाना।

अभिकरण का प्रतिसंहरण (Revocation of authority) कैसे होता है?

इंडियन कांट्रैक्ट एक्ट के सेक्शन 201-210 में इससे संबंधित उपबंध हैं। अभिकरण के प्राधिकार के प्रतिसंहरण के विषय में निम्नलिखित नियम हैः

1. प्रतिसंहरण अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकता है (धारा 307);

2. अगर अभिकर्ता का विषय-वस्तु में हित हो तो प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है (धारा 202);

3. प्रतिसंहरण तभी किया जा सकता है जब तक कि अभिकरण द्वारा दिए गए प्राधिकार का प्रयोग अभिकर्ता ने नहीं किया हो (धारा 203) लेकिन अगर अभिकर्ता ने इसके कुछ भाग का प्रयोग कर लिया हो, तो किए जा चुके कार्यों से उत्पन्न होने वाले कार्यों और बाध्यताओं के संबंध में अभिकरण का प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है (धारा 204) अर्थात् मालिक उससे आबद्ध होगा;

4.यदि अभिकरण किसी निश्चित अवधि के लिए किसी विवक्षित या अभिव्यक्त संविदा द्वारा उत्पन्न हो और मालिक बिना न्यायोचित कारण के समयपूर्व प्रतिसंहरण कर ले, या अभिकर्ता स्वयं अभिकरण छोड़ दे ऐसी स्थिति में प्रतिसंहरण या त्यजन करने वाला पक्ष दूसरे पक्ष को प्रतिकर देगा (धारा 205) । यदि मालिक किसी न्यायोचित कारण कारण से भी प्राधिकार का प्रतिसंहरण करता है तो उसे अभिकर्ता को युक्तियुक्त सूचना देनी होगी। ऐसा नहीं करने पर अभिकर्ता को होने वाली हानि की प्रतिपूर्ति उसे करनी होगी (धारा 206) ।

5. मालिक की मृत्यु या उन्मत्तता के द्वारा अभिकरण की समाप्ति के बाद भी अभिकर्ता का यह कर्तव्य होगा कि उसे सौंपे गए मालिक के हितों के संरक्षण और परिरक्षण के लिए मालिक की प्रतिनिधियों की ओर से युक्तियुक्त कदम उठाए।

6. अभिकर्ता के प्राधिकार की समाप्ति से उसके द्वारा नियुक्त उप-अभिकर्ता का प्राधिकार भी समाप्त हो जाएगा (धारा 210) ।

अभिकरण की समाप्ती कब प्रभावी होती है?

धारा 208 के अनुसार अभिकरण की समाप्ति प्रभावी होता हैः
1. अभिकर्ता के विरूद्ध जब उसे इस तथ्य का ज्ञान होता है।
2. पर-व्यक्तियों के विरूद्ध जब उन्हें यह ज्ञात हो जाता
है।

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