अवयस्क से संविदा की कानूनी स्थिति- केस लॉ- part 12
वयस्क से संविदा
अवयस्क से संविदा कानून की दृष्टि में मान्य नहीं है। सेक्शन 10 के अनुसार अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं हैं। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि अपरिपक्व मस्तिष्क के कारण अवयस्क अपने हानि-लाभ और किसी संविदा के प्रभाव को समझ नहीं सकता है।
इसलिए उसके हित की रक्षा करना कानून का कर्तव्य है। इसलिए अगर कोई अवयस्क संविदा करता है तो कानून उसे संविदा नहीं मानता है अर्थात वह आरंभ से ही शून्य (void ab inition) संविदा होता है।
अवयस्क से संविदा आरंभतः शून्य होता है और इससे किसी प्रकार के अधिकार या दायित्व की उत्पत्ति नहीं होती है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न न्यायालयों के सामने आए।
जैसे- अवयस्क से संविदा केवल शून्य होता है या आरंभतः शून्य होता है? अगर वयस्क कपट कर अपने को वयस्क बता कर संविदा कर ले, या संविदा के कुछ भाग का पालन को गया हो, इन सब स्थिति में पीड़ित पक्ष के लिए क्या अनुतोष है? इत्यादि। निम्नलिखित leading cases में न्यायालयों ने इस पर विचार किया।
संविदा के लिए सक्षमता (capacity to contract) क्या है?
कांट्रैक्ट एक्ट का सेक्शन 10 एक वैध संविदा के लिए जो शर्ते बताता है उसमे से एक है– संविदा के लिए सक्षम पक्षकार। कौन व्यक्ति संविदा के लिए सक्षम है यह सेक्शन 11 बताता है। सेक्शन 11 के अनुसार: Who are competent to contract—every person is competent to contract who is of the age of majority according to the law to which he is subject, and who is of sound mind and is not disqualified from contracting by any law to which he is subject.
अर्थात तीन तरह के लोगों को छोड़ कर सभी व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम होते है। ये तीन (असक्षम) व्यक्ति है:
- अवयस्क (Minors);
- अस्वस्थचित्त व्यक्ति (Persons of unsound mind); और
- ऐसा व्यक्ति जिसे वहाँ प्रवृत विधि ने संविदा के लिए अयोग्य माना है (Persons disqualified by law to which they are subject)
अर्थात कोई भी प्राप्तवय व्यक्ति जो स्वस्थचित्त हो और जिसे कानून ने संविदा के लिए अयोग्य घोषित नहीं किया हो, संविदा करने के लिए सक्षम है।
व्यस्कता से क्या तात्पर्य है?
वयस्क से तात्पर्य है एक ऐसा व्यक्ति जिसने तत्समय प्रवृत विधि के अनुसार व्यस्कता के लिए निश्चित
आयु प्राप्त कर चुका हो। भारतीय व्यस्कता अधिनियम, 1875 के सेक्शन 3 के अनुसार व्यस्कता प्राप्त करने के लिए दो आयु सीमा है-
- 18 वर्ष– सभी व्यक्तियों के लिए अगर विधि द्वारा को अभिभावक नियुक्त नहीं किया गया हो;
- 21 वर्ष– अगर न्यायालय द्वारा उसके स्वयं के या उसकी संपत्ति के संरक्षण के लिए अभिभावक नियुक्त किया गया हो। अगर किसी के लिए विधिक संरक्षक नियुक्ति है लेकिन उसके 21 वर्ष होने से पहले ही उस अभिभावक की मृत्यु हो जाय, न्यायालय स्वयं उसे इस कार्य से हटा दे, या किसी अन्य कारण से अभिभावक कार्य करने में सक्षम नहीं हो, तब भी वह व्यक्ति 21 वर्ष का होने पर ही कानूनी रूप से वयस्क माना जाएगा।
भारत में यह स्थिति इंग्लैंड से भिन्न है क्योंकि वहाँ 18 वर्ष सभी स्थितियों में वयस्कता के लिए विधिक आयु है।
किसी अवयस्क द्वारा किए गए संविदा की विधिक स्थिति या प्रकृति क्या होती है?
भारतीय संविदा अधिनियम लागू होने के बाद अवयस्क से किए गए संविदा के संबंध में विभिन्न न्यायालयों में इस बात के लिए मत भिन्नता रही कि ऐसा संविदा शून्य (void) है या शून्यकरणीय (voidable)।
लेकिन मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास केस से यह स्पष्ट हो गया कि इस प्रकार का संविदा आरंभतः शून्य (void ab initio) होता है। इसीलिए वयस्क होने पर भी वह इसका दृढ़ीकरण नहीं कर सकता है। परंतु अवयस्क के पक्ष में दान संपत्ति अंतरण अधिनियम (Transfer of Property Act) द्वारा प्रतिषिद्ध नहीं है। अतः अवयस्क भले ही संविदा में पक्षकार नहीं हो लेकिन उस संविदा के द्वारा संपत्ति प्राप्त कर सकता है।
भारत में यह कानूनी स्थिति इंग्लैंड से भिन्न है। कॉमन लॉ के साधारण नियम के अनुसार अवयस्क द्वारा की गई संविदा उसके विकल्प पर शून्यकरणीय होती है अर्थात अगर अवयस्क चाहे तो वयस्क होने पर इसे शून्य घोषित करवा दे या उसका समर्थन कर वैध संविदा बना दे ।
लेकिन इंफेंट रिलीफ़ एक्ट, 1874 द्वारा इस में परिवर्तन किए गए है। अब ये तीन प्रकार की संविदाएँ शून्य होती है: (1) ऋण की राशि या इसके पुनर्भुगतान के लिए संविदाएँ; (2) आवश्यक वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के आपूर्ति के लिए संविदाएँ; (3) लिखित लेखों की संविदाएँ।
चूंकि अवयस्क जो कार्य स्वयं नहीं कर सकता है वह दूसरों के माध्यम से भी नहीं कर सकता है। इसलिए अभिकरण के संविदा (contract of agency) में वह स्वयं प्रिंसिपल नहीं हो सकता है लेकिन वह एजेंट हो सकता है क्योंकि एजेंट का कोई दायित्व नहीं होता है।
मोहरी बीबी वर्सेस धर्मोदास घोष (Mohori Bibee V. Dharmodas Ghose)[91903) 30 I. A. 114
अवयस्क धर्मोदास घोष किसी अचल संपत्ति का अकेला उत्तराधिकारी था। उसकी माँ कलकत्ता हाई कोर्ट द्वारा उसकी विधिक अभिभावक (legal guardian) नियुक्त की गई थी।
धर्मोदास घोष ने 20 जुलाई, 1895 को ब्रह्मों दत्त नामक साहूकार को 20,000 रु में 12% के प्रतिवर्ष ब्याज के दर पर अपनी संपत्ति बंधक (mortgage) रख दिया। बंधक का दस्तावेज़ (mortgage deed) बनाया गया। लेकिन इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के दौरान स्वयं ब्रह्मों दत्त कलकता में उपस्थित नहीं था। यह प्रक्रिया उसके अटॉर्नी केदारनाथ द्वारा किया गया था। पैसे उसके स्थानीय मैनेजर देदराज ने दिया था।
15 जुलाई, 1895 को धर्मोदास की माँ ने अपने अटॉर्नी के द्वारा ब्रह्मों दत्त को यह नोटिस दिया था कि धर्मोदास घोष अभी भी अवयस्क था। लेकिन केदारनाथ ने इस तरह के किसी नोटिस के मिलने से मना किया था।
10 सितंबर, 1895 को धर्मोदास की माँ ने ब्रह्मों दत्त के विरुद्ध यह कह कर कार्यवाही की कि उसने उसके नाबालिग पुत्र से संविदा किया और उसका बयान लिया। पर ऐसा संविदा शून्य है क्योंकि नाबालिग इस तरह के समझौते के लिए सक्षम नहीं होता है।
ब्रहमोदत्त ने बचाव लिया कि धर्मोदास इस संविदा पर हस्ताक्षर करते समय अपने को वयस्क बताया था और उसे या उसके अटॉर्नी केदारनाथ को उसके नाबालिग होने का तथ्य ज्ञात नहीं था।
धर्मोदास ने अपने को अपनी घोषणा में बालिग बताया था। उसने यह भी कहा कि अगर मान लिया जाय कि वह नाबालिग था लेकिन उसने अपनी घोषणा में अपने को बालिग बताया तो यह उसके साथ छल और धोखा करना हुआ और इसलिए धर्मोदास किसी भी तरह के अनुतोष (relief) के लिए हकदार नहीं है।
लेकिन ट्रायल कोर्ट ने किसी नाबालिग के साथ संविदा को आरंभ से ही शून्य (void ab initio) माना अर्थात इस तरह का संविदा कानून की दृष्टि में संविदा नहीं है और इसलिए इससे किसी तरह का कानूनी परिणाम या बाध्यता उत्पन्न नहीं होती।
प्रथम अपीलीय न्यायालय ने भी इस निर्णय को बरकरार रखा। इस बीच ब्रह्मों दत्त की मृत्यु हो गई। उसकि विधवा मोहरी बीबी ने इस निर्णय की अपील प्रिवी कौंसिल में की।
प्रिवी कौंसिल ने इस केस में किसी अवयस्क व्यक्ति के साथ होने वाले संविदा पर भारत में कानून की स्थिति को स्पष्ट किया। इस केस में कानून के जिन सिद्धांतों को मान्यता दिया गया हैं:
किसी अवयस्क व्यक्ति के साथ किया गया संविदा न तो वैध है और न ही शून्यकरणीय। बल्कि यह आरंभ से ही शून्य होता है। इसलिए इससे किसी भी तरह का विधिक कर्तव्य या दायित्व नहीं उत्पन्न होता है।
भारतीय संविदा अधिनियम (Indian Contract Act), 1872 की धारा 64 केवल उस मामले में लागू होती है, जहां संविदा के पक्ष ऐसे संविदा करने के लिए सक्षम होते हैं अर्थात संविदा शून्यकरणीय होती है । यह उन मामलों पर लागू नहीं होती है, जहां कोई संविदा नहीं किया गया हो अर्थात किया गया संविदा शुरू से ही शून्य (void ab initio) हो।
इसलिए एक अवयस्क को इस सेक्शन के अंतर्गत राशि के प्रत्यावर्तन के लिए नहीं कहा जा सकता है। सेक्शन 64 की तरह सेक्शन 65 भी शून्यकरणीय संविदा पर लागू होता है इसलिए इस सेक्शन के अंतर्गत भी अवयस्क को राशि को वापस करने या प्रत्यावर्तन करने के लिए नहीं कहा जा सकता है।
(लेकिन सेक्शन 65 के इस व्याख्या से भारतीय विधि आयोग सहमत नहीं हुआ और अपने 13वीं रिपोर्ट में इसे इस स्थिति में भी लागू करने की सिफारिश कि जहाँ अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर यानि कि अपने को वयस्क बता कर (दुर्व्यपदेशन) संविदा करता है।
अगर कोई कार्य किसी प्रतिनिधि ने किसी ज्ञान के साथ किया हो तो यह माना जाएगा कि यह ज्ञान उनके मालिक (principal) को था।इसलिए अवयस्क द्वारा किया गया प्रस्तुत संविदा शून्य था और अपिलार्थी को इससे कोई अधिकार नहीं मिला था जिसे वह कानून द्वारा प्रवर्तित करा सके।
अजुधिया प्रसाद वर्सेस चन्दन लाल (Ajudhia Prasad V. Chandan Lal) [AIR 1937 All. 610]
दो अवयस्क (minor), जिनकी आयु 18 वर्ष से अधिक लेकिन 21 वर्ष से कम थी, के लिए विधिक अभिभावक (legal guardian) नियुक्त था। अवयस्क (प्रतिवादी) ने 15 अक्तूबर, 1925 को एक संपत्ति किसी व्यक्ति को बंधक (mortgage) रखा।
बाद में जब गिरवी लेने वाले व्यक्ति (वादी) ने इस संपत्ति को बेचने के लिए वाद दायर किया तो दोनों ने यह प्रतिरक्षा लिया कि जिस समय उन्होने यह संपत्ति गिरवी रखा था उस समय वे अवयस्क थे क्योंकि उनके लिए विधिक अभिभावक (legal guardian) नियुक्त थे। ऐसी स्थिति में वयस्कता के लिए आयु 21 वर्ष होनी चाहिए लेकिन वे इस से कम आयु के थे।
दूसरा, कर्ज लेने के लिए उनकी कोई मूल या अनिवार्य आवश्यकता (basic necessity) भी नहीं थी। (गिरवी उसने विवाह के खर्च के लिए लिया था और उसकी पत्नी इस केस में प्रतिवादी न 2 थी) इसलिए यह mortgage deed शून्य था और इसलिए कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। अपने rejoinder में वादी (plaintiff) ने उनके अवयस्क होने से इंकार किया। साथ ही यह भी कहा कि वे सेक्शन 68 एक अनुसार ली गई राशि लौटने के लिए बाध्य हैं।
ट्रायल कोर्ट के अनुसार प्रतिवादियों (defendants) की आयु 18 वर्ष से अधिक लेकिन 21 वर्ष से कम थी। इसलिए वे अवयस्क की श्रेणी में आएंगे और सेक्शन 68 के तहत प्राप्त राशि लौटने के लिए बाध्य नहीं हैं।
प्रथम अपीलीय न्यायालय (first appellate court) ने यह माना कि प्रतिवादी संविदा के समय अवयस्क थे। साथ ही यह भी माना कि अवयस्क के विवाह के लिए दिया गया पैसा किसी अवयस्क के किसी मूल आवश्यकता के लिए खर्च नहीं कहा जा सकता है। इसलिए सेक्शन 68 यहाँ लागू नहीं होगा।
पर साक्ष्यों के आधार पर कोर्ट ने यह भी पाया कि अवयस्क और उसके पिता ने न केवल यह तथ्य वादी से छुपाया कि उसके लिए विधिक अभिभावक नियुक्त है, बल्कि वास्तविक उम्र भी छुपाया। उसके पिता ने सब-रजिस्ट्रार के सामने बयान दिया था कि उसके छोटे पुत्र की आयु वर्ष से अधिक है।
इसलिए कोर्ट ने यह माना कि प्रतिवादी द्वारा अथवा उसकी ओर से मिथ्या कथन यानि दुर्व्यपदेशन किया गया था। अतः प्रथम अपीलीय न्यायालय ने खान गुल वर्सेस लाखा सिंह मामले में लाहौर हाई कोर्ट के पूर्ण पीठ द्वारा दिए गए निर्णय का अनुसरण करते हुए प्रतिवादी को सम्पूर्ण राशि ब्याज और अन्य राशि के सहित वापस करने के लिए कहा।
प्रतिवादी (अपीलार्थी) ने इस फैसले के विरुद्ध द्वीतीय अपील किया। कोर्ट ने विभिन्न न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों और प्रेक्षणों तथा न्यायिक प्रावधानों पर विस्तृत विचार किया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय पूर्ण पीठ ने इस केस में लाहौर उच्च न्यायालय द्वारा खान गुल बनाम लक्खा सिंह मामले में दिए गए निर्णय पर विचार किया लेकिन दो मूल विषयों पर अलग निष्कर्ष पर पहुँचे।
ये विषय या प्रश्न थे– (1) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act) जे तहत अवयस्क से संविदा से हुए हानि के लिए प्रतिकार, और (2) अवयस्क से संविदा का प्रत्यास्थापन। इस केस में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ये मत व्यक्त किए:
1. अगर कोई अवयस्क किसी केस में प्रतिवादी है तो उसे विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के तहत दूसरे पक्ष को राहत यानि प्रतिकार देने के लिए नहीं कहा जा सकता है। लेकिन अगर वह वादी हो और अपने लिए कुछ राहत चाहता हो, तो उसे दिया जा सकता है। क्योकि प्रतिवादी अवयस्क को अगर कुछ देने के लिए कहा जाएगा तो यह इस अधिनियम के सेक्शन 41 के विपरीत होगा और एक शून्य संविदा को प्रवर्तित कराना होगा;
2. एक अवयस्क द्वारा पैसे के लिए प्रतिकार देने के प्रश्न पर लेसली बनाम शील [(1914)3 K. B. 607] में बताए गए नियम को अपनाया गया और यह निर्धारित किया गया कि एक अवयस्क को संपत्ति के प्रत्यास्थापन (वापस देने) के लिए तभी कहा जा सकता है जब कि वह संपत्ति अभी भी पाई या खोजी जा सकने की स्थिति में हो। लेकिन उसे पैसे से प्रतिकार (बदले में कुछ देना– क्षतिपूर्ति) देने के लिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह शून्य संविदा को प्रवर्तित करना होगा।
चीफ जस्टिस सुलेमान ने लाहौर केस में चीफ जस्टिस सर शादीलाल के विचार से असहमत होते हुए कहा कि “जहाँ संपत्ति के स्थानांतरण की संविदा शून्य है और ऐसी संपत्ति खोजी जा सकती है, तब यह संपत्ति वचनग्राहिता की होती है और उसको प्राप्त किया जा सकता है।
वचनग्राहिता के हित में संपत्ति के प्रत्यास्थापन के लिए प्रत्येक साम्या है। लेकिन जहाँ संपत्ति खोजी नहीं जा सकती है और जहाँ प्रतिकार प्रदान करने के एकमात्र तरीका अवयक के विरुद्ध पैसे के लिए डिक्री पारित करना ही है, तो ऐसे दावे (claim) के लिए डिक्री देना या निर्देश देना एक अवयस्क के आर्थिक उत्तरदायित्व को, एक ऐसी संविदा को, जो शून्य है, के अंतर्गत, प्रवर्तनीय करना होगा।”
[लेकिन विधिशात्रियों और विधि आयोग द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विचार से अधिक लाहौर उच्च न्यायालय के विचार का समर्थन किया गया है। अर्थात किसी अव्यस्क द्वारा अनुचित तरीके से प्राप्त किए गए लाभ को लौटाने के लिए कहना शून्य संविदा को प्रवर्तित करना नहीं बल्कि संविदा से पहले की स्थिति को बहाल करना है। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में संशोधन के बाद वर्तमान में यही स्थिति है।]
अवयस्क के करार का दृढ़ीकरण (ratification of the minor’s agreement) क्या है?
चूँकि एक अवयस्क द्वारा किया गया करार आरंभ से ही विधि की दृष्टि में शून्य होता है, इसलिए अवयस्क व्यस्कता की आयु प्राप्त होने के बाद भी इसे दृढ़ीकरण द्वारा वैध नहीं बना सकता है। न ही अवयस्कता के समय किए गए लेनदेन में दिया गया प्रतिफल व्यस्कता प्राप्त करने पर दिए गए वचन के लिए विधिमान्य प्रतिफल हो सकता है।
उदाहरण के लिए एक अवयस्क ने कुछ राशि उधार लिया। वयस्क होने पर उसने उस राशि और उसके ब्याज को लौटने का नया वचन दिया। इलाहाबाद ने 2:1के बहुमत से अभिनिर्धारित किया कि अवयस्कता के दौरान लिया गया प्रतिफल सेक्शन 2 (d) के अनुसार वैध प्रतिफल नहीं हो सकता है। इसलिए इसे नए वचन के लिए भी प्रतिफल नहीं माना जा सकता है। बिना प्रतिफल का होने के करण नया वचन भी विधिमान्य नहीं है। (सूरज नारायण बनाम सुक्खु अहीर– AIR 1928 All. 440)
लेकिन अगर अवयस्क ने लाभ का एक भाग अवयस्कता के दौरान और दूसरा भाग वयस्क होने के बाद लिया हो, और वयस्क होने के बाद उसने दोनों लौटने का वचन दिया हो, तो ऐसी स्थिति में यह विधिमान्य संविदा होगा यानि वह राशि लौटाने के लिए दायित्वाधीन होगा।
उदाहरण के लिए एक अवयस्क ने अपने वस्तुओं के व्यापार के लिए किसी वयस्क से कोई वस्तु ली। वयस्क होने पर उसने कोई अन्य राशि भी ली। उसने एक बंधपत्र द्वारा दोनों राशि के लिए एक बंधपत्र बनाया और समस्त राशि लौटने का वचन दिया। यह पाया गया कि यह अवयस्कता के दौरान लिए गए दायित्वों के लिए संविदा का दृढ़ीकरण नहीं था क्योंकि इसमे नया प्रतिफल भी था। इसलिए वह समस्त राशि लौटने के लिए उत्तरदायी था (कुंदर बीबी बनाम श्री नारायण – (1906-7) 11 कलकत्ता WN 135)।
इसी प्रकार अगर अवयस्क कोई लेनदेन करता है, जो कि वयस्क होने पर भी जारी रहता है और अपने व्यवहार द्वारा अपने को इस राशि की देनदारी के लिए बाध्य कर लेता है तो यह संविदा विधिपूर्ण होती है।
अवयस्क ने किराए (पट्टे) पर कोई संपत्ति देने के लिए संविदा किया जिसे उसने वयस्क होने पर भी जारी रखा। पाया गया कि संविदा वैध था और वादी बकाया किराया भी वसूलने के लिए सक्षम था (निहालचन्द बनाम मीर जान मोहम्मद खान – AIR 1937 सिंध 310) ।
क्या अवयस्क से संविदा के मामले में विबन्ध (estoppel) हो सकता है?
विबन्ध का सामान्य अर्थ होता है अपने दिए गए वचन से आबद्ध होना, भले ही वह कथन आरंभ में झूठा ही क्यों न हो। यह साक्ष्य का नियम है और साक्ष्य अधिनयम के सेक्शन 115 द्वारा परिभाषित है। लेकिन यह सिद्धांत अवयस्क से संविदा के मामले में लागू नहीं होता है।
अर्थात अगर कोई अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर (दुर्व्यपदेशन कर) कि वह वयस्क है, कोई संविदा करता है तो उसे इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है कि उसने पहले झूठ बोलकर लाभ लिया है और इसलिए उसे अव्यस्कता का प्रतिरक्षा नहीं मिलेगा।
न्यायालयों के समक्ष यह प्रश्न कई बार आया है। मोहरी बीबी केस में भी इस पर विचार किया गया था। खान गुल बनाम लाखा सिंह मामले में लाहौर हाई कोर्ट ने यह माना था कि अवयस्क के विरुद्ध इस सिद्धांत का प्रयोग नहीं हो सकता है।
चीफ जस्टिस सर शादी लाल के अनुसार विबन्ध-विधि साक्ष्य का नियम है। यह एक सामान्य नियम है। इसलिए इसे संविदा विधि के विशिष्ट उपबंध के अध्यधीन मानकर पढ़ा जाना चाहिए जो कि किसी अवयस्क द्वारा किए गए करार को शून्य घोषित करता है।
खान गुल वर्सेस लाखा सिंह (Khan Gul V. Lakha Singh) AIR 1928 Lah 609
एक अवयस्क (minor) ने 17,500 रु में एक प्लॉट वादी (plaintiff) को बेचा। इस राशि में से 8,000 रु सब रजिस्ट्रार के समक्ष नकद (कैश) दिया था और शेष 9,500 रु की राशि प्रोमिसरी नोट के रूप में उस अवयस्क की इच्छानुसार दिया गया था । लेकिन उसने इस प्लॉट का कब्जा देने से मना कर दिया।
वादी ने इस प्लॉट के लिए अथवा इसके विकल्प के रूप में अपने 17,500 रु (ब्याज और नुकसानी के साथ 19,000) वसूलने के लिए वाद दायर किया। इसमे अवयस्क को प्रतिवादी न 1 और उसकी पत्नी को प्रतिवादी न 2 बनाया गया।
प्रतिवादी न 1 ने अपनी अवयस्कता का बचाव लिया। प्रतिवादी न 2 ने प्रतिवादी न 1 की अवयस्कता के साथ-साथ यह भी दलील दिया कि वह प्लॉट पहले ही प्रतिवादी न 1 द्वारा गिफ्ट किया जा चुका था।
ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए वादी के पक्ष मे प्लॉट के कब्जे के लिए डिक्री पारित कर दिया कि प्रतिवादी ने अपनी उम्र के बारे में मिथ्या कथन कर यह संविदा किया था और इसलिए वसींदा राम बनाम सीता राम [Wasinda Ram v. Sita Ram (1920) 1 Lab. 389.] केस में किए गए प्रेक्षण को मानते हुए यह कहा कि इस स्थिति में अवयस्क पर विबन्ध (estoppel) का नियम लागू होगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रतिवादी द्वारा निर्धारित रीति से प्रतिवादी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में प्रोमिसरी नोट भुनाने से प्रतिफल का भुगतान हो गया था। कोर्ट ने यह भी माना कि पत्नी के पक्ष में अवयस्क द्वारा गिफ्ट करने का संविदा शून्य है क्योंकि अवयस्क द्वारा संविदा void ab initio होता है।
प्रतिवादी (अवयस्क) ने इस फैसले के खिलाफ अपील किया। लाहौर हाई कोर्ट के पूर्ण पीठ (full bench) ने इन विधिक प्रश्नो पर इस केस में विचार किया:
- किसी संविदा का कोई पक्ष जो कि अवयस्क हो लेकिन उसने अपने को वयस्क बता कर दूसरे पक्ष को संविदा करने के लिए उत्प्रेरित किया हो, को स्वयं अपनी अवयस्कता का लाभ उठा कर संविदा के पालन से बचने से रोकने क लिए उस पर विबन्धन (estoppel) लगाया जा सकता है?
- किसी संविदा का कोई पक्ष जो कि अवयस्क हो लेकिन उसने अपने को वयस्क बता कर दूसरे पक्ष को संविदा करने के लिए उत्प्रेरित किया हो, इस संविदा के अंतर्गत अपने दायित्व के पालन से बचता है लेकिन क्या साथ ही इस संविदा के अंतर्गत होने वाले लाभ को प्राप्त कर सकता है?
अपीलार्थी की तरफ से यह कहा गया कि निःसन्देह अपीलार्थी ने प्लॉट के रजिस्ट्रेशन के समय अपनी उम्र 20 वर्ष बताया था लेकिन यह साबित नहीं हो पाया कि प्रतिवादी ने इस कपट के कारण धोखे में आकार यह संविदा किया।
लेकिन कोर्ट ने औब्जर्ब किया कि अपीलार्थी ने इससे पहले के अपने बनाए गिफ्ट deed में भी अपने को 19 साल का बताया था। उसने इसी आशय का मेडिकल सर्टिफिकेट भी दिया था। इसलिए प्रतिवादी के पास उसकी उम्र के विषय में संदेह करने का कोई युक्तियुक्त आधार नहीं था।
1903 से पहले भारत में अवयस्क से किए गए संविदा की कानूनी स्थिति पर कुछ अस्पष्टता थी कि यह शून्य (void) है या शून्यकरणीय (voidable) । लेकिन मोहरी बीबी वर्सेस धर्मोदास केस के बाद यह स्पष्ट हो गया कि अवयस्क के साथ किया गया संविदा void ab initio होता है।
विबन्धन की विधि (law of estoppel) एक सामान्य नियम है जो कि सभी व्यक्तियों पर लागू होता है। जबकि संविदा की सक्षमता (capacity of contract) से संबन्धित संविदा अधिनियम एक विशेष उद्देश्य (special objective) को प्राप्त करने के लिए विशेष नियम हैं।
यह विधि का एक स्थापित सिद्धान्त है कि अगर किसी विषय पर सामान्य और विशेष दोनों प्रावधान हो तो विशेष प्रावधान सामान्य प्रावधान का अपवाद होता है। इसलिए साक्ष्य अधिनियम का सेक्शन 115 को संविदा अधिनियम के साथ ही पढ़ा जाना चाहिए।
भारत में अवयस्क व्यक्ति द्वारा संविदा के मामले में विबन्ध का नियम लागू होगा या नहीं इस पर विभिन्न हाई कोर्ट ने अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाया है। कलकत्ता, मद्रास, इलाहाबाद और पटना हाई कोर्ट के अनुसार यह लागू नहीं होगा क्योंकि ऐसी संविदा शून्य होती है। लेकिन लाहौर हाई कोर्ट के डिवीजन बेंच और बंबई हाई कोर्ट का मत इसके विपरीत था।
मोहरी बीबी केस में प्रिवी कौंसिल ने इस मामले को उठाया जरूर लेकिन इसपर अपना कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया। संबन्धित पैराग्राफ इस तरह थे:“The Courts below seem to have decided that this section (S. 115) does not apply to infants but their Lordships do not think it necessary to deal with that question now. They consider it clear that the section does not apply to a case like the present, where the statement relied upon is made to a person who knows the real facts and is not misled by the untrue statement”.
इसलिए पहले प्रश्न का उत्तर कोर्ट ने नकारात्मक दिया। विबन्धन का नियम लागू नहीं होगा।
अब कोर्ट ने दूसरे प्रश्न पर विचार किया। अगर अवयस्क के संविदा के मामले में विबन्ध लागू नहीं होगा तो उस संविदा की विषय वस्तु के संबंध में दोनों पक्षों की स्थिति क्या होगी। अर्थात अगर किसी अवयस्क ने अपनी उम्र के विषय में मिथ्या कथन कर कोई संविदा किया और उस संविदा के तहत दूसरे पक्ष से कुछ लाभ प्राप्त किया तो उस स्थिति में क्या दूसरे पक्ष के पास कोई उपचार है?
कोर्ट ने साम्यता के सिद्धान्त के आधार पर इस पर विचार किया। पुनर्स्थापन का सिद्धान्त (Doctrine of Restitution) के अनुसार ऐसी स्थिति में दोनों पक्षों की स्थिति चूँकि संविदा से पहले की तरह ही होता है क्योंकि वह संविदा शून्य होती है। इसलिए अगर इस संविदा द्वारा अवयस्क ने कोई लाभ लिया है तो उसे वह लौटना होगा। ऐसा वह संविदा के तहत नहीं बल्कि साम्यता के सिद्धान्त के आधार पर करेगा।
अतः कोर्ट ने प्रस्तुत मामले मे निर्णय देता हुए कहा कि अव्यस्क को वह धन राशि प्रतिवादी को लौटना होगा जो उसने उससे (अनुचित रूप से) प्राप्त किया है। लेकिन यह संविदा को प्रवर्तनीय करना नहीं है बल्कि संविदा को प्रवर्तन में नहीं लाकर संविदा पूर्व की स्थिति बहाल करना है ताकि किसी पक्ष को दूसरे की कीमत पर अनुचित लाभ नहीं हो।