संविदा निर्माण (केस लॉ के साथ)-part 2

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संविदा निर्माण (formation of contract)

संविदा निर्माण दो चरणों में होता है –

  1. एक पक्ष (प्रस्थापक offerer) द्वारा प्रस्थापन (offer) करना और इसकी संसूचना दूसरे पक्ष (offeree अर्थात जिसके प्रति प्रस्थापन किया गया है) को देना।
  2. Offeree द्वारा उसे स्पष्ट और अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया जाना और इस संस्वीकृति की संसूचना पहले पक्ष (offerer) को देना।

दूसरे पक्ष द्वारा प्रस्थापना को अंतिम और स्पष्ट रूप से स्वीकार कर इसकी संसूचना (communication) पहले पक्ष को देने के साथ ही संविदा निर्माण हो जाता है। अर्थात यह एक विधि मान्य संविदा बन जाता है । इसके बाद अगर कोई पक्ष इस संविदा को रद्द करना या बदलवाना चाहे तो उसे न्यायालय में वाद लाना पड़ेगा। एकपक्षीय रूप से इसमें कोई बदलाव करने का उसका अधिकार समाप्त हो जाएगा।

संविदा निर्माण के लिए प्रस्ताव या प्रतिस्थापन (offer) क्या है?

संविदा अधिनियम के सेक्शन 2 (a) में प्रस्थापन का परिभाषा देते हुए कहा गया है कि

(proposal – when one person signified to another his willingness to do or to abstain from doing anything, with a view to obtaining the assent of that other to such act or abstinence, he is said to make a proposal:

इस परिभाषा के अनुसार एक वैध ऑफर के लिए आवश्यक है कि:

i. यह दूसरे पक्ष (offeree) के प्रति किया गया हो;
ii. यह दूसरे पक्ष की सहमति प्राप्त करने के आशय से किया गया हो;
iii. यह सहमति कुछ करने या कुछ करने से विरत रहने के लिए प्राप्त करने के आशय से हो।

 प्रपोजल या प्रस्थापना में दूसरे पक्षकार की अनुमति प्राप्त करने का आशय होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए A 5,00,000 में जमीन का एक प्लॉट B को बेचने के लिए इच्छुक है। वह B को यह कहता है की क्या वह 5,00,000 में अमुक प्लॉट खरीदेगा? B भी 5,00,000 में उसे खरीदने के लिए इच्छुक है और वह अपनी संस्वीकृति की संसूचना A को देता है।

यहाँ A का प्रस्ताव ऑफर है। लेकिन अगर A अपने प्लॉट का विवरण देता है ताकि दूसरा व्यक्ति उसे खरीदने के लिए प्रस्ताव कर सके, तो यह ऑफर नहीं बल्कि “ऑफर के लिए इनविटेशन” है। दुकानदारों द्वारा वस्तुओं का प्रदर्शन पुस्तक विक्रेताओं द्वारा कैटलॉग का प्रदर्शन, नीलामी, टेंडर प्रस्ताव नहीं, बल्कि प्रस्ताव के आमंत्रण (invitation to offer) के उदाहरण हैं।

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             कोई निविदा (tender) ऑफर नहीं बल्कि “quotation of price” होता है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो टेंडर के लिए आवेदन करते ही उसे स्वीकृति मान ली जाती और संविदा हो जाता लेकिन ऐसा नहीं होता है।

जब किसी टेंडर को स्वीकृति मिल जाती है तो वह एक चालू प्रस्थापना (standing offer) में बदल जाता है। अर्थात तब भी वह ऑफर ही रहता है। संविदा तब बनता है जब इस टेंडर के आधार पर कोई ऑर्डर किया जाय। यह सिद्धांत बंबई हाई कोर्ट ने प्रसिद्ध केस Bengal Coal Co Ldt v. Homes Wadia & Co. [ILR (1899) 24 Bom 97 में प्रतिपादित किया था।

प्रस्थापन (offer) और प्रस्थापन के लिए आमंत्रण (invitation to offer) में क्या अंतर है?

केस लॉ :

हैरिस बनाम निकर्सन (Haris v. Nickerson) [(1873) LR 8 Q&B 286

               प्रतिवादी (निकर्सन) ने नीलामी द्वारा विक्रय का विज्ञापन दिया था। वादी (हैरिस) जब विज्ञापित स्थान पर पहुंचा तो उसे पता चला कि नीलामी को रद्द कर दिया गया है। उसने प्रतिवादी पर यात्रा के खर्च के लिए मुकदमा किया।

              यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिवादी उत्तरदाई नहीं था। क्योंकि दोनों पक्षों के बीच अभी तक कोई संविदा नहीं हुई थी। नीलामी का विज्ञापन प्रस्ताव नहीं बल्कि प्रस्ताव के लिए आमंत्रण था।             

फार्मा क्यूटिकल सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन बनाम बूट्स कैश केमिस्ट (Pharmasecutical Society of Greata Britain v. Boots Cash Chemist (Southern) Ltd [(1952) 1 All ER Rep. 456]

               प्रतिवादी बूट्स कैश केमिस्ट लिमिटेड दवाइयों का विक्रेता था। दुकान में “स्वयं सेवा” व्यवस्था थी अर्थात ग्राहक स्वयं अपनी जरूरत का सामान चुनकर कैश काउंटर पर जाकर उसका भुगतान कर सकते थे। कैश काउंटर के पास एक पंजीकृत फार्मासिस्ट बैठा रहता था जो किसी भी ग्राहक को दवाई ले जाने से रोक सकता था। 

                 यहां यह विधिक प्रश्न उठा कि क्या वस्तुओं का उनके दामों के साथ प्रदर्शन एक प्रस्तावना थी? और ग्राहक द्वारा वस्तुओं को चुनना उसका प्रतिग्रहण करना था? या फिर ग्राहक द्वारा चुनी हुई वस्तुओं को लेकर कैश काउंटर पर जाना उनको खरीदने का प्रस्तावना करना था? 

                  लॉर्ड गोड्डार्ड (Lord Goddard), चीफ जस्टिस, के शब्दों में जब एक पक्ष द्वारा दिए गए ऑफर को दूसरा पक्ष स्वीकार कर लेता है, तब दोनों के बीच संविदा हुआ कहा जाता है। धारा 2 के अनुसार जब कि वह व्यक्ति, जिससे प्रतिस्थापना की जाती है, उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है, तब प्रतिस्थापना प्रतिग्रहीत हुई कहीं जाती है।

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प्रतिस्थापना प्रतिग्रहीत होने के बाद वचन (promise) हो जाती है। ऑफर देने वाला व्यक्ति उस ऑफर से तब तक बाध्य नहीं होता जब तक ऑफर दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकार न कर लिया जाए। प्रॉमिस दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी होता है। यानी कि एक ऑफर का एक बाध्यकारी प्रॉमिस बनने के लिए उसकी दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकृति अनिवार्य है।

यह स्वीकृति दो तरह का हो सकता है स्पष्ट या प्रकट प्रकृति और विविक्षित (constructive)। जब उसकी स्वीकृति शब्द द्वारा होता है तो यह स्पष्ट वचन कहलाता है और जब शब्द के अलावा अन्य प्रकार से जैसे कार्यों या शर्तों को मानने से होता है तब वह विवक्षित कहलाता है। ऑफर की प्रतिक्रिया में दूसरा पक्ष कार्य कर सकता है या स्पष्ट स्वीकृति दे सकता है।

स्वीकृत निश्चित समय के अंदर या अगर समय निश्चित ना हो तो युक्तियुक्त समय क अंदर दे देना चाहिए। एक विधिक स्वीकृति और इसके प्रतिग्रहण के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक होता है: (1) स्वीकृति की सूचना प्रस्ताव प्राप्त करने वाले व्यक्ति या प्रस्तावक (जिसने ऑफर दिया है) को दे दी जानी चाहिए, (2) स्वीकृति अंतिम और बिना शर्त होनी चाहिए। (3) यह किसी युक्तियुक्त तरीके से होना चाहिए। अगर स्वीकृति का कोई विशेष तरीका विहित्त किया गया हो, तो उसी प्रकार से होना चाहिए। (4) स्वीकृति तभी हो जब ऑफर विद्यमान हो अर्थात निश्चित समय अवधि अवधि बीत जाने पर नहीं हो।

संविदा निर्माण के लिए वचन (promise) क्या है?

         सेक्शन 2 (b) प्रॉमिस (वचन) को परिभाषित करते हुए कहता है कि

“when the parson to whom the proposal is made signifies his assent thereto, the proposal is said to be accepted. A proposal, when accepted, becomes a promise” (जबकि वह व्यक्ति, जिससे प्रस्थापना की जाती है, उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है तब वह प्रस्थापना प्रतिग्रहीत हुई कही जाती है।

प्रस्थापना प्रतिग्रहीत हो जाने के बाद वचन हो जाती है। अर्थात अगर एक पक्ष कोई प्रस्थापन करता है और दूसरा पक्ष उसको उसी स्वरूप में यानि बिना किसी संशोधन के स्वीकार कर लेता है तो एक वैध संविदा का निर्माण हो जाता और यह वचन बाध्यकारी हो जाता है।

प्रतिस्थापन की संस्वीकृति (acceptance) क्या है और कब सम्पन्न होती है?

            एक प्रस्थापना (proposal) दूसरे पक्ष द्वारा प्रतिग्रहीत या संस्वीकृत (accept) होने के बाद ही बाध्यकारी वचन बनता है यानि संविदा (contract) होता है। जिस व्यक्ति को प्रस्थापना की जाती है वह उसे प्रतिग्रहीत करने के लिए बाध्य नहीं होता है। वह उसे अस्वीकार करने, या बिना प्रतिग्रहण के ही व्यपगत कर देने का अधिकार रखता है।

जब तक वह स्वीकृति प्रदान नहीं करता तब तक संविदा नहीं बनाता है और इसलिए यह बाध्यकारी नहीं होता है। अतः किसी कंपनी द्वारा सबसे ऊँची बोली को अस्वीकार करके पुनः नीलामी विधिक है।

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एक विधिक संस्वीकृति के लिए क्या आवश्यक दशाएँ हैं (essentials of a valid acceptance)?  

  1. स्वीकृति की सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रस्तावक को दे दी जानी चाहिए।
  2. संस्वीकृति अंतिम और बिना शर्त होनी चाहिए।
  3. संस्वीकृति या प्रतिग्रहण किसी प्रायिक तथा किसी युक्तियुक्त प्रकार से (reasonable and usual manner) होना चाहिए। अगर प्रतिग्रहण का तरीका बताया गया हो तो उस तरह से होना चाहिए। और
  4. प्रस्थापना के विद्यमान होते हुए ही प्रतिग्रहण किया जाना चाहिए यानि संस्वीकृति दी जानी चाहिए ।
  5. यह संस्वीकृति (1) शब्दों द्वारा बोल कर स्पष्ट या प्रकट रूप से, या (2) कार्यों (performance) द्वारा अप्रत्यक्ष या विवक्षित रूप से हो सकता है। उदाहरण कार्बोलिक केस में संस्वीकृति कार्यों द्वारा दिया गया था।
  6. संस्वीकृति ऑफर का ज्ञान होने के बाद आशय के साथ दिया जाना चाहिए।
  7. यह संस्वीकृति प्रस्ताव कर्ता के प्रति या उसके किसी अधिकृत प्रतिनिधि के प्रति होना चाहिए।
  8. यह संस्वीकृति संस्वीकृति कर्ता द्वारा या उसके किसी अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा होना चाहिए । (लालमन शुक्ला केस) लेकिन अगर ज्ञान के बाद शर्तों के अनुसार कार्य करता है, तब वह प्रतिग्रहण माना जाता है भले ही वह इनाम पाना चाहता हो या नहीं। (विलियम बनाम करबरडाइन-1833) स्पष्ट है कि संसूचना देने की प्रक्रिया विवक्षित हो सकती है लेकिन यह उसके प्रति ही होनी चाहिए जिसने ऑफर दिया है, और उसके द्वारा ही होना चाहिए जिसने ऑफर प्राप्त किया है।
  9. प्रतिग्रहण की संसूचना प्रस्थापना करने वाले व्यक्ति द्वारा या उसके प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा ही दिया जाना चाहिए। केवल प्रतिस्थापन प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही प्रतिग्रहण कर सकता है। (पवेल बनाम ली) गलत व्यक्ति को संसूचना (कारण सिंह केस 1980….. संविदा नहीं। लेकिन कुछ परिस्थितियों में आवश्यकता नहीं (करलील केस)

किसी प्रस्थापन की स्वीकृति के लिए कब इसकी संसूचना (communication) आवश्यक नहीं होता है?

        जब स्वयं उस प्रस्थापना में उसके स्वीकृति किसी शर्तों के अधीन कर दी गई हो, तब उसके पालन हो ही स्वीकृति माना जाता है । उदाहरण के लिए कार्लिल वेर्सेस कार्बोलिक बॉल केस

शर्तों के साथ किसी ऑफर को मानने का विधिक आशय क्या होता है?

      किसी प्रस्थापन की संस्वीकृति अंतिम रूप से और बिना शर्त होना आवश्यक है (Acceptance must be absolute )। अगर इसे शर्त के साथ स्वीकार किया जाएगा तो वह संस्वीकृति नहीं बल्कि एक नया प्रस्थापन होगा। सेक्शन 7 ऑफर में दिए गए तरीके से अलग तरीके से स्वीकार करने के प्रभाव के विषय में बताता है।

  1. अगर स्वीकृति किसी नए शर्तों के साथ, या किसी परिसीमा या अन्य संशोधन के साथ किया गया हो, तो वह एक नया प्रस्थापन या प्रति-प्रस्थापन (counter-offer) होगा जिसे स्वीकृति देना पहले पक्ष पर निर्भर करेगा। इसलिए पहला ऑफर समाप्त हो जाएगा।
  2. यदि प्रास्तावित संशोधन इस प्रकृति का हो कि संविदा के प्रकृति और मूल तत्त्व पर प्रभाव नहीं पड़े और पहला पक्ष इसे स्वीकार कर ले तब यह संविदा बन जाएगा और लेकिन अगर पहला पक्ष इस पर कोई आपत्ति (objection) करे तो मूल ऑफर समाप्त हो जाएगा और यह एक नया ऑफर होगा जिसे मानना या न मानना पहले पक्ष पर निर्भर करेगा।

इस तरह संविदा निर्माण एक पक्ष द्वारा offer की सूचना दूसरे पक्ष को देने तथा दूसरे द्वारा उसे स्पष्ट व अंतिम रूप से स्वीकार कर सूचना पहले पक्ष को देने से सम्पन्न होता है।

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