प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट और विबन्धन-भाग 8
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट अर्थात जो संविदा के पक्षकार नहीं हैं वह उसे लागू कराने के लिए न्यायालय में वाद नहीं ला सकते हैं। लेकिन भारतीय संविदा अधिनियम s. 2 (b) इसका अपवाद देता है।
संविदा का संबंध (privity of contract) क्या है?
केवल वे व्यक्ति जो संविदा में पक्षकार है, संविदा को प्रवर्तित करा सकते हैं। असंबद्ध व्यक्ति, भले ही वे संविदा के हितभोगी ही क्यों न हो, संविदा को प्रवर्तित करने के लिए न्यायालय में वाद नहीं ला सकते हैं । इस सिद्धांत को संविदा का संबंध या प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट कहते हैं।
लेकिन वर्तमान में प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का सिद्धांत में संशोधन हो गया है। ब्रिटेन मे भी इसके कई अपवाद स्वीकार कर लिए गए है।
ये अपवाद तीन तरह के है:
पहला, प्रतिफल देने वाला पक्ष वाद ला सकता है –
एक वैध संविदा के लिए प्रतिफल आवश्यक है। पर, ऐसा भी हो सकता है, कि प्रतिफल जिसने दिया हो, वह उस संविदा का पक्षकार नहीं हो। प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट कॉमन लॉ का एक सामान्य सिद्धांत है। यह सिद्धांत केवल संविदा के पक्षकारों पर ध्यान देता है, प्रतिफल देने वालों पर नहीं। पर भारत में स्थिति ब्रिटेन से भिन्न है।
भारतीय संविदा अधिनियम के सेक्शन 2 (d) में “वचनग्रहिता या कोई अन्य व्यक्ति…” शब्द आया है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रतिफल वचनग्रहिता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है। इसलिए यह संविदा के संबंध (privity of contract) नियम को प्रभावित नहीं करता है ।
दूसरा, वादी संविदा के तहत किसी लाभ का अधिकारी हो- जैसे उपभोक्ता, किसी ट्रस्ट का हितभोगी आदि।
तीसरा, वचन विबन्धन (Promissory estoppel) भी इस सिद्धांत का एक अवपाद बनाता है।
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट सिद्धांत का विकास
Tweddle v. Atkinson केस में पहली बार इंग्लिश कोर्ट ने इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की और इसे लागू किया। इस केस में कोर्ट ने प्रतिपादित किया कि अगर कोई व्यक्ति किसी संविदा का पक्षकार नहीं है तो वह इसे लागू करने के लिए न्यायालय में वाद नहीं ला सकता है।
Dunlop Pneumatic Tyre v. Selfridge and Co. Ltd. केस में इस सिद्धांत को फिर से अनुमोदित किया गया। इस केस में टायर बनाने वाली एक कंपनी ने डिस्ट्रीब्यूटर से यह संविदा दिया कि वह अमुक से कम मूल्य पर कंपनी का टायर नहीं बेचेगा। डिस्ट्रीब्यूटर (वितरक) ने इस बेचने के लिए रिटेलर (खुदरा विक्रेता) से संविदा किया लेकिन इस संविदा में उसने निश्चित मूल्य से कम पर नहीं बेचने वाला शर्त शामिल नहीं किया।
रिटेलर ने उससे कम मूल्य पर कंपनी के टायर को बेचा। कंपनी ने रिटेलर के विरुद्ध वाद किया। लेकिन रिटेलर का दावा था कि उसका कंपनी के साथ कोई संविदा नहीं है बल्कि डिस्ट्रीब्यूटर से है, और इसलिए प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के सिद्धांत के अनुसार कंपनी उस पर केस नहीं कर सकती है। इस केस में कोर्ट ने प्रतिपादित किया कि:
i. संविदा के पक्षकार ही वाद ला सकते हैं। अन्य व्यक्ति यानि तीसरा पक्ष इस संविदा को लागू करने के लिए वाद नहीं ला सकते हैं (Only a person who is a party to a contract can sue on it. A stranger to a contract does not have a right to enforce the contract in personam).
ii. संविदा के लिए प्रतिफल वचनग्राहिता द्वारा वचनदाता या उसकी इच्छा पर किसी अन्य व्यक्ति को दिया जाना आवश्यक है। (Consideration must have been given by promisee to the promisor or to some other person at the promisor’s request).
हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के सिद्धांत को Beswick v.Beswick केस में भी अनुमोदित किया। इस केस में वादी के पति Peter Beswick ने अपना व्यवसाय प्रतिवादी को इस शर्त पर हस्तांतरित (transfer) कर दिया कि पीटर जब तक जीवित रहेगा इसके सलाहकार (consultant) के पद पर रहेगा और उसकी मृत्यु के बाद प्रतिवादी उसकी विधवा को प्रतिसप्ताह 5 पाउंड देगा।
प्रतिवादी ने उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा के यह राशि देना बंद कर दिया। वादी ने दो हैसियत से प्रतिवादी के विरुद्ध वाद दायर किया। पहला, संविदा में हितभोगी होने के व्यक्तिगत हैसियत से, और दूसरा, अपने मृत पति की संपत्ति की प्रशासिका होने के हैसियत से। हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने संपत्ति की प्रशासिका होने के आधार पर उसका दावा माना लेकिन संविदा में हितभोगी होने के आधार पर नहीं क्योंकि प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के सिद्धांत के आधार पर वह संविदा की पक्षकार नहीं थी और इसलिए वाद नहीं ला सकती थी।
फिर भी विभिन्न कोर्ट “हित सिद्धांत” पर भी विचार करता रहा। 1599 में Levett v. Hawes केस में पुनः कोर्ट ने इस विषय में विचार किया। इस केस में एक पिता को यह वचन दिया गया था कि शर्ते पूरी होने पर उसके पुत्र को राशि दी जाएगी। पिता के द्वारा वाद दायर करने को कोर्ट ने नहीं माना ।
Dutton v. Poole केस में एक पुत्र ने अपने पिता को वचन दिया कि अगर पिता एक विशेष लकड़ी नहीं बेचेगा तो वह अपने बहन की शादी में 1000 पाउंड देगा। लेकिन उसने अपने वचन का पालन नहीं किया। कोर्ट ने यह पाया कि बहन, जो कि इस संविदा कि पक्षकार नहीं थी लेकिन हितभोगी थी, वाद दायर कर सकती थी।
1937 में इंग्लैंड की लॉ रिविज़न कमिटी ने अपने छठे अंतरिम रिपोर्ट में प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के सिद्धांत को हटा देने की सिफारिश की। इस सिफारिश के आधार पर वहाँ The Contracts (Rights of Third Parties) Act, 1999 बना। इस अधिनियम के अनुसार किसी संविदा का कोई हितभोगी व्यक्ति, भले ही वह इसका पक्षकार नहीं हो, अपने हित सा संबंधित प्रावधान को लागू करा सकता है।
इस तरह कॉमन लॉ का सिद्धांत कि कांट्रैक्ट में जो व्यक्ति पक्षकार नहीं होंगे वो इसे लागू करने के लिए वाद नहीं ल सकता यानि प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का सिद्धांत अब इंग्लैंड में भी संशोधित हो चुका है और वर्तमान में अगर किसी व्यक्ति को किसी संविदा से लाभ होता हो (third party of contract), तो वह उसके लिए न्यायालय में वाद ला सकता है।
भारत में भी प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट सिद्धांत के कुछ अपवादों को स्वीकार किया गया है, जो कि साम्य के सिद्धांत (law of equity) के आधार पर हैं।
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के क्या अपवाद हैं?
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का अर्थ होता है कि जो व्यक्ति किसी संविदा का पक्षकार हो वही इसे लागू करवाने के लिए न्यायालय के समक्ष वाद ला सकता है कोई अन्य या तीसरा पक्ष नहीं। यह कॉमन लॉं का एक सामान्य नियम है लेकिन कुछ स्थितियों में तीसरा पक्ष भी इसे लागू करने के लिए वाद ला सकता है। तीसरे पक्ष को यह अधिकार संविदा से बल्कि साम्य के सिद्धांत से मिलता है। ऐसे अपवाद निम्नलिखित हैं:
1. किसी अचल संपत्ति पर भारित कोई व्यय (Charges over some immovable property)-
अगर किसी संविदा में यह उपबंध किया गया हो कि किसी अचल संपत्ति से किसी व्यक्ति को अमुक लाभ किया जाएग, तो वह लाभभोगी व्यक्ति इसके लिए वाद ला सकता है, भले ही वह संविदा का पक्षकार नहीं हो। Khirod Behari Dutt v Man Gobinda and Ors केस में तथ्य यह था कि किसी जमीन के किराएदार और उप-किराएदार में यह संविदा थी कि उप-किराएदार अपना किराया सीधे जमीन के मालिक को देगा। यह पाया गया कि जमींदार अपने बकाया किराए की वसूली के लिए उप-किराएदार पर केस कर सकता था।
2. किसी जमीन से जुड़ा हुआ कोई अभिसमय (Covenants running with the land) –
अगर किस जमीन का स्वामित्व का हस्तांतरण होता है तो नया स्वामी जमीन से मिलने वाले सभी लाभों और दायित्वों को ग्रहण करता है जो पुराने स्वामी के पास था। इसलिए अगर इस जमीन के संबंध में पहले से कोई संविदा हो तो उससे प्राप्त लाभ का वह हकदार होगा और इसके लिए वह वाद ला सकता है।
3. ट्रस्ट (Trust)
प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट के सिद्धांत का तीसरा अपवाद है ट्रस्ट। ट्रस्ट को बनाने का उद्देश्य ही होता है किसी तीसरे पक्ष को लाभ पहुँचना। इसलिए अगर ट्रस्टी अपने दायित्वों का पालन नहीं करे और इससे उस ट्रस्ट के लाभार्थी को हानि होता हो तो वह उसके विरुद्ध वाद ला सकता है।
4. विवाह, बँटवारा आदि परिवारिक समझौते (Marriage settlement, partition or other family arrangements) –
अगर किसी परिवारिक समझौते में किसी व्यक्ति को कोई लाभ देने की बात हो, लेकिन वह व्यक्ति उस समझौते का हिस्सा नहीं हो, फिर भी वह अपने लाभ के खंड को लागू करने के लिए वाद ला सकता है। (Nawab Khwaja Muhammad Khan v. Nawab Hussaini Begum)
5. अभिहस्तांकन या सुपुर्दगी (Assignment) –
अगर किसी पक्षकर द्वारा या कानून द्वारा किसी अधिकार का हस्तांतरण किसी व्यक्ति को कर दिया जाता है, जैसे कि दिवालियापन कानून के तहत, तो जिस भी व्यक्ति या अधिकारी को यह असाइनमेंट मिलता है वह संविदा के तहत मिले किसी अधिकार या हित को प्राप्त करने के लिए वाद ला सका है भले ही वह उसका पक्षकार नहीं रहा हो।
6. उपभोक्ता (Consumer) –
1986 का उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (the Consumer Protection Act, 1986) (जैसा कि इसे प्रतिस्थापित करने वाले 2019 के अधिनियम में भी है) उपभोक्ता उसे माना गया है जो किसी वस्तु या सेवा का उपभोग करता है भले ही इसके लिए आदेश और माँग उसने स्वयं की हो या नहीं।
उदाहरण के लिए कोई इलेक्ट्रॉनिक समान एक पिता खरीद कर लाया जिसका उपयोग करते समय उसका कोई बालिग पुत्र घायल हो गया। ऐसी स्थिति में वह पुत्र भी अपने नाम से वाद दायर कर सकता है भले ही वह उस वस्तु को खरीदने के संविदा में पक्ष नहीं था। इस तरह विधि द्वारा प्रीविटी ऑफ कांट्रैक्ट का अपवाद किया गया है।
7. सहमति या विबन्धन द्वारा (Acknowledgement or Estoppel)
अगर दो पक्ष एक संविदा करते हैं और इस संविदा में यह उल्लेख करते हैं कि कोई निश्चित धनराशि या कोई अन्य लाभ किसी तीसरे पक्ष को मिलना है और उस तीसरे पक्ष को दोनों द्वारा इस बात की जानकारी दे दी जाती है तो वह तीसरा पक्ष इसके लिए वाद ला सकता है।(Deb Narain Dutt v. Ram Sadhan Mandal)
वचन विबन्धन (Promissory estoppel) क्या है?
वचन विबंधन का अर्थ होता है अपने वचन से बंध जाना। साधारणतया संविदात्मक बाध्यता संविदा के पक्षकारों के बीच संविदा से उत्पन्न होती है। लेकिन कुछ परिस्थितियों में पक्षकार संविदा के आधार पर नहीं बल्कि अपने विरूध्द “विबन्धन की विधि” के प्रयोग से अपने वचन से बाध्य हो जाता है। यह तब लागू होता है जब एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को:
- 1. कोई वचन या आश्वासन देता है,
- 2. दूसरा पक्षकार उस पर विश्वास कर,
- 3. अपने हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला कोई कार्य करता है,
ऐसी स्थिति में वह वचन या आश्वासन देने वाला व्यक्ति उससे बाध्य हो जाता है क्योंकि इसपर विबन्धन की विधि लागू हो जाती है।” यह सिधाद्न्त सरकार के विरूध्द भी लागू होता है। लेकिन वचन न होने पर कोई विबन्धन नहीं होता है। भले ही दूसरे पक्षकार ने उस पर विश्वास करके कोई कार्य कर लिया हो।