भरण-पोषण एवं निर्वाहिका (Maintencence and alimony)
भरण-पोषण
कुटुम्ब विधि (Family Law) में भरण-पोषण (Maintenance) का आशय ऐसे व्यय से है जो किसी व्यक्ति के भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा जैसे आवश्यक खर्चों के लिए दिया जाता है। भरण-पोषण लेने का अधिकार और देने का दायित्व दोनों पक्षों के बीच के विधिक संबंध से उत्पन्न होता है।
प्रचीन हिन्दू विधि में भी भरण-पोषण संबंधी अधिकारों और कर्तव्यों का महत्वपूर्ण स्थान था। वर्तमान संहिताबद्ध हिन्दू विधि में थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ इन्हें बनाए रखा गया है।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अन्तर्गत वैवाहिक अनुतोष के लिए चलने वाले वाद काल के लिए भरण-पोषण और कार्यवाही के (Maintenance pendent lite and expenses of proceedings) खर्च का प्रावधान है। इस धारा के अनुसार इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी कार्यवाही में जहाँ न्यायालय को ऐसा प्रतीत हो कि या तो पति या पत्नी, जैसी भी दशा हो, के पास अपने निर्वाह और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिए पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है, तो पति या पत्नी के आवेदन करने पर वह प्रतिपक्षी को आदेश दे सकता है कि वह आवेदक को कार्यवाही के खर्चे और भरण-पोषण के लिए प्रतिमाह ऐसी धनराशि का भुगतान करे जैसा कि आवेदक और प्रतिपक्षी की आय और दायित्व को देखते हुए न्यायालय तर्कसंगत समझे।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 25 में स्थायी निर्वाह और भरण-पोषण का खर्च का उपबंध है। इसकी उपधारा (1) के अनुसार इस अधिनियम के अन्तर्गत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाला कोई न्यायालयए डिक्री मंजूर करते समय या उसके बाद इस प्रयोजन के लिए पति या पत्नी, जैसी भी दशा हो, के आवेदन करने पर, आदेश दे सकता है कि प्रतिपक्षी आवेदक को उसके निर्वाह या भरण-पोषण के लिए ऐसी एकमुश्त रकम या मासिक रकम या तो समसामयिक या जीवनभर भुगतान करे जैसा कि प्रतिपक्षी की स्वयं की आमदनी और आवेदक की अन्य सम्पत्ति, पक्षकारों का आचरण और मामले की अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय को न्यायसंगत मालूम हो, और यदि आवश्यक हो तो ऐसी किसी भी भुगतान को प्रतिपक्षी की अचल सम्पत्ति पर प्रभार आरोपित करते हुए सुरक्षित किया जा सकता है।
धारा 25 की उपधारा (2) के अनुसार यदि न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट हो कि उपधारा (1) के अन्तर्गत आदेश देने के बाद किसी भी पक्षकार की परिस्थिति में किसी भी समय कोई परिवर्तन हुआ है तो वह किसी भी पक्षकार की पहल पर उस आदेश को इस ढ़ंग से, जैसा कि न्यायालय न्यायसंगत समझे, परिवर्तितए संशोधित या निरस्त कर सकता है। उपधारा (3) के अनुसार यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो जाय कि पक्षकार ने उसके पक्ष में इस धारा के अधीन कोई आदेश किया है, पुनर्विवाह कर लिया है, या यदि ऐसा पक्षकार पत्नी है तो वह पतिव्रता नहीं रह गई है, अथवा यदि पति है तो उसने किसी अन्य स्त्री के साथ संभोग किया है, तो वह आदेश को विखण्डित (Rescind) कर सकता है।”
धारा 25 के तहत स्थायी निर्वाह का अधिकार तभी प्राप्त होता है जहाँ धारा 9 से धारा 13 की आज्ञप्ति (decree) प्रार्थी के पक्ष में पारित हो गई हो। तलाक की डिक्री पारित होने पर भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इस प्रकार धारा 25 के अन्तर्गत न्यायालय किसी भी पक्षकार के प्रार्थना-पत्र पर निम्नलिखित दो स्थितियों में स्थायी निर्वाह और भरण-पोषण का आदेश पारित कर सकता है- (1) याचिका की डिक्री पारित करते समय, और (2) डिक्री पारित करने के पश्चात् किसी भी समय। इस धारा के अन्तर्गत भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- (1) दोनों पक्षकारों की आय तथा सम्पत्ति पक्षकारों का आचरण तथा (2) अन्य विशेष तथ्य और परिस्थितियाँ।
निर्वाहिका (alimony) और भरण पोषण (maintenance) का सिद्धांत यह है कि पति का पत्नी के भरण पोषण का दायित्व उस समय तो है ही जब कि वह उसकी पत्नी है, बल्कि उस समय भी है जब वह उसकी पत्नी नहीं रहती है। जैसे तलाक होने के बाद जब तक वह दूसरी शादी नहीं कर लेती। प्रारम्भ में यह नियम केवल तलाक की स्थिति में ही लागू होता था पर अब यह विवाह की अकृतता पर भी लागू होता है।
अंग्रजी विधि में अन्तरिम और स्थायी निर्वाहिका और भरण पोषण केवल पत्नी द्वारा ही माँगा जा सकता है किन्तु हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत इसकी माँग पति या पत्नी दोनों द्वारा किया जा सकता है।
धारा 24 और 25 के तहत भरण पोषण और निर्वाहिका का अधिकार हिन्दू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम के उपबंधों से स्वतंत्र और पृथक है।
धारा 24 वाद कालीन भरण पोषण का प्रावधान करता है। इसमें इसके लिए दो उपबंध है- (1) प्रार्थी का भरण पोषण, और (2) कार्यवाही का आवश्यक व्यय। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य होता है प्रार्थी और प्रत्यर्थी का आर्थिक स्थिति।
भरणपोषण के लिए प्रार्थना पत्र अपील या पुनरीक्षण (Revision) के दौरान भी दिया जा सकता है।
वादकालीन भरणपोषण को अन्तरिम या अस्थायी भरण पोषण भी कहते हैं। यह वह भरणपोषण होता है जो कार्यवाही आरम्भ होने से और डिक्री पारित होने तक एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को न्यायालय के आदेश से देता है। इसके लिए आवश्यक है कि अर्जीकार (पति या पत्नी) की ऐसी कोई स्वतंत्र आय नहीं हो जो उसके अपने व्यय और न्यायिक कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिए पर्याप्त हो। न्यायालय को अपत्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रकम निश्चित करने का अधिकार है। याचिका प्रत्याहृत होने या खारिज होने होने की स्थिति में भी न्यायालय को अधिकार है कि वह अंतरिम भरण पोषण के लिए आदेश पारित करे।
निर्वाहिका वह भत्ता है जो विधि के अन्तर्गत पति की सम्पत्ति में से वैवाहिक कार्यवाही के दौरान या उसकी समाप्त्ति पर पत्नी को दिया जाता है।
निम्नलिखित व्यक्तियों को भरण-पोषण पाने का अधिकार होता है-
1. पत्नी- पत्नी के भरण-पोषण का दायित्व उसके विधिक संबंधों के करण होता है और इसलिए यह पति का व्यक्तिगत दायित्व होता है। पर पत्नी का यह अधिकार तभी होता है अगर वह इन शर्तों को पूरा करती है-
(क) वह हिन्दू हो। अगर वह धर्मपरिवर्तन कर अहिन्दू हो जाय तो भरण-पोषण का उसका अधिकार समाप्त हो जाएगा।
(ख) वह पति के साथ रहती हो और अगर पृथक् रहती हो तो उसका कोई युक्तियुक्त कारण हो। पति को विषाक्त कुष्ठ रोग से पीड़ित होना, पति के द्वारा पत्नी के प्रति क्रूरता का व्यवहार करना, पति द्वारा अन्य स्त्री रखना, पति द्वारा पत्नी का अभित्याग करना इत्यादि युक्तियुक्त कारण हैं।
(ग) पत्नी का शीलवती होना। पत्नी के शीलभ्रष्टा होने पर पति से भरण-पोषण पाने के उसके अधिकार के विषय में यद्यपि न्यायिक निर्णयों में मतभेद रहा है। पर सामान्यत: ऐसा माना गया है कि शीलभ्रष्टा होने पर पत्नी को भरण-पोषण के अधिकार से वंचित रखने का अर्थ होगा कि उसे शेष जीवन भ्रष्ट तरीके से ही गुजारने के लिए बाध्य करना। इसलिए ऐसी पत्नी को भी पति से भरण-पोषण का अधिकार मिलना चाहिए ताकि वह शेष जीवन गरिमा से गुजार सके। प्रचीन धर्मशास्त्रों का भी यही मत रहा है। धर्मशास्त्रों में ऐसी पत्नी को, अगर उसके पास आय का कोई और स्रोत नहीं हो तो, क्षुधामार भरण-पोषण अर्थात् जितना उसके जीवन के लिए आवश्यक हो उतना ही भरण-पोषण पति से प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। आधुनिक समय में न्यायालयों ने भी इस मत का सामान्यत: समर्थन किया है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, दण्ड प्रक्रिया संहिता तीनों में पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार मिला है। लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम में यह अधिकार पति और पत्नी दोनों को है जबकि अन्य दोनों में यह केवल पत्नी को है।
2. वृद्ध माता पिता– हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम और दण्ड प्रक्रिया संहिता दोनों में वृद्ध माता पिता को अपने पुत्र से भरण-पोषण पाने का अधिकार दिया गया है। अब वे पुत्र के साथ पुत्रियों से भी ऐसा अधिकार माँग सकते हैं। पूर्व विधि में सौतेली माता का भरण-पोषण करना पुत्र का कर्तव्य नहीं था लेकिन अब यदि पुत्र ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करता है जिसके द्वारा उसका पिता सौतेली माता का भरण-पोषण करने के दायित्व के अधीन था तो ऐसी स्थिति में पुत्र भी इसके के लिए बाध्य होगा।
3. अवयस्क पुत्र– अपने पुत्र को भरण-पोषण देना पिता का दायित्व है। उसका यह दायित्व पुत्र के वयस्क होने पर समाप्त हो जाता है। अधर्मज पुत्र भी अवयस्क होने पर पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकारी है।
4. वयस्क पुत्र– यदि पुत्र वयस्क होने पर भी किसी निर्योग्यता से ग्रसित हो जिसके कारण वह अपना भरण-पोषण कर सकने में असमर्थ हो, या मिताक्षरा शाखा में वह पिता का सहदायिकी हो, या पिता के पास पैतृक अविभाज्य सम्पदा हो, तो वयस्क पुत्र को भी पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकार है।
5. अविवाहित पुत्री– पिता अपनी अविवाहित पुत्रियों का भरण-पोषण करने के लिए भी उत्तरदायी है। वह उनके विवाह का व्यय वहन करने के लिए भी कर्तव्यबद्ध है।
भरण-पोषण पाने के लिए विधवा का अधिकार– प्राचीन हिन्दू विधि के अनुसार एक विधवा को अपने पति की पृथक् संपत्ति तथा संयुक्त सम्पत्ति में से भरण-पोषण पाने का अधिकार था। विधवा पुत्रवधू का दावा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के विरूद्ध था और कर्ता के विरूद्ध प्रस्तुत कर सकती थी। आधुनिक विधि में भी यही स्थिति है। विधवा पुत्रवधू को भरण-पोषण देना श्वसुर का न तो विधिक दायित्व है और न ही व्यक्तिगत। यह केवल एक नैतिक कर्तव्य है। लेकिन श्वसुर की मृत्यु होने पर श्वसुर की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने वाले के लिए यह विधिक दायित्व होगा। दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 19 में पुत्रवधू के भरण-पोषण के सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया है किन्तु यह धारा भी श्वसुर के दायित्व को व्यक्तिगत दायित्व नहीं बनाती है।
हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण, 1956 की धारा 19 के अनुसार हिन्दू पत्नी (चाहे उसका विवाह इस अधिनियम के लागू होने से पूर्व हुआ हो या पश्चात) पति की मृत्यु के बाद श्वसुर से भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार है परन्तु यह अधिकार उसे तब तक और उस विस्तार तक है जहाँ कि वह स्वयं अर्जन से या अन्य सम्पत्ति से अपना भरण-पोषण करने मे असमर्थ हो या उस दशा में जहाँ उसके पास अपनी स्वयं की कोई सम्पत्ति नहीं हो या निम्नलिखित में से किसी से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो- एक, अपने पति या अपने पिता या माता की सम्पदा से, और दो, अपने पुत्र या पुत्री, यदि कोई होए या उसकी सम्पदा से। इसी धारा की उपधारा (2) के अनुसार यदि श्वसुर के अपने कब्जे में की ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति से जिसमें से पुत्रवधू को कोई अंश अभिप्राप्त नहीं हुआ है, तो वह पुत्रवधू का भरणपोषण देने के दायित्व के अधीन है। अगर श्वसुर के लिए ऐसा करना साध्य नहीं है तो उपधारा (1) के अधीन उसे बाध्यता नहीं किया जा सकेगा। श्वसुर द्वारा पुत्रवधू को भरणपोषण देने की ऐसी बाध्यता का पुत्रवधू के पुनर्विवाह पर अन्त हो जाएगा।
धारा 19 (2) में उन दशाओं को बतलाया गया है जिनके अनुसार विधवा पुत्रवधू के भरण-पोषण का दायित्व समाप्त हो जाता है। ये दशायें निम्नलिखित है-
1. यदि श्वसुर के पास आय का कोई स्वतंत्र साधन या संपत्ति नहीं हो या उसने ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति में हो जिसका हकदार उसका पति रहा हो, में हिस्सा न प्राप्त किया हो;
2. पुत्रवधू ने पुनर्विवाह कर लिया हो;
3. उसने धर्म परिवर्तन कर लिया हो।
विधवा के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि शीलवती बनी रहे। परन्तु यदि भरण-पोषण किसी डिक्री या किसी करार द्वारा किसी सम्पत्ति पर प्रभाव बना दिया जाता है और डिक्री अथवा करार में यह शर्त न हो कि विधवा के शीलभ्रष्टा होने पर उसका भरण-पोषण का अधिकार समाप्त नहीं होगा।
हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 21 में 9 प्रकार के आश्रितों का उल्लेख किया गया है जो मृतक व्यक्ति के सम्पत्ति से भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं। जो इस सूची में शामिल नहीं है वह आश्रित होने के आधार पर भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारी नहीं है।
यदि कोई व्यक्ति स्वयं आश्रित है और जो हिस्सा उसका अधिनियम द्वारा पोषण के लिए निर्धारित है, वह पोषण के खर्च देने से कम हो जाता है तब वह व्यक्ति खर्च देने के लिए बाध्य नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, जो व्यक्ति अपने लिए किसी सम्पत्ति से पोषण प्राप्त करता है, वह पोषण के लिए उस सम्पत्ति में से देने के लिए बाध्य नहीं होगा।
हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 23 भरण-पोषण के लिए धनराशि ((Amount of maintenance) के संबंध में उपबंध करता है। इस धारा के तहत यह निर्धारित करने का अधिकार न्यायालय का होता है। न्यायालय प्रत्येक मामले में परिस्थितियों के अनुसार इस सम्बन्ध में निश्चित करेगा। इस धारा के अनुसार-
1. इस बात को अवधारित करना न्यायालय का विवेकाधिकार होगा कि क्या कोई भरण-पोषण इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन दिलाया जाय और दिलाया जाय तो कितना और ऐसा करने में न्यायालय, यथास्थिति उपधारा (2) या उपधारा (3) में वर्णित बातों को जहाँ तक वे लागू हैं सम्यक् रूप से ध्यान में रखेगा।
2. पत्नी, संतान या वृद्ध माता-पिता के पोषण की धनराशि निर्धारित करते समय न्यायालय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखेगा-
(i) पक्षकारों की अवस्था तथा हैसियत
(ii) दावेदार की युक्तियुक्त माँग
(iii) यदि दावेदार अलग रह रहा हो तो इस बात को कि दावेदार का ऐसा करना न्यायोचित है
(iv) दावेदार की सम्पत्ति का मूल्य, तथा
(क) उस सम्पत्ति से आय;
(ख) दावेदार की स्वयं की आय;
(ग) किसी अन्य से प्राप्त आय।
3. इस अधिनियम के अधीन किसी आश्रित को यदि कोई भरण-पोषण की रकम दी जाती है तो इस रकम के अवधारणा करने में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखेगा-
(i) मृतक का ऋण चुकाने के बाद उसकी सम्पत्ति का मूल्य;
(ii) आश्रित के विषय में मृतक द्वारा इच्छा-पत्र में कही गयी बात;
(iii) दोनों के सम्बन्ध की दूरी;
(iv) मृतक के आश्रित से पूर्व सम्बन्ध;
(v) आश्रित की सम्पत्ति का मूल्य तथा उसकी आय, स्वयं का उपार्जन, किसी अन्य प्रकार के आय;
(vi) आश्रित की युक्तियुक्त आवश्यकता;
(vi) इस अधिनियम के अन्तर्गत आश्रित पोषण के हकदारों की संख्या
न्यायालय भरण-पोषण की राशि का निर्धारण करने में अपने विवेक का प्रयोग करेगा। वह इसके लिए पक्षकारों की स्थिति और परिस्थितियों को देखनी चाहिए।
धारा 23 के लिए यह आवश्यक है कि भरण-पोषण का दावा करने वाला व्यक्ति हिन्दू होना चाहिए। ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गई अविवाहित पुत्री को इस धारा के अधीन भरण-पोषण की माँग करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि यह एक व्यक्तिगत अधिकार होता है और दावाकर्ता की मृत्यु होने पर या धर्म परिवर्तन करने पर यह अधिकार समाप्त हो जाता है। (सुन्दरबाला बनाम सुब्बिया पिल्लई, 1961 मद्रास 323)
दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम के तहत आश्रित व्यक्ति के भरण-पोषण का दावा मृतक की सम्पदा अथवा उसके किसी अंश पर स्वत: भार नहीं होता है। किन्तु निम्नलिखित तरीकों से उसे उसकी सम्पदा पर या उसके किसी भाग पर भारित बनाया जा सकता है (धारा 27);
1. मृतक के इच्छा पत्र या वसीयत द्वारा
2. न्यायालय की डिक्री द्वारा
3. आश्रित और सम्पदा के स्वामी के बीच करार द्वारा
4. अन्य प्रकार से
दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 26 के अनुसार मृतक द्वारा लिया गया ऋणों को आश्रितों के भरण-पोषण के दावों के समक्ष प्राथमिकता दी जायेगी। किन्तु यदि पोषण एक कर्ज के समान हो गया हो जो मृतक की इच्छापत्र द्वारा, न्यायालय की डिक्री द्वारा, और आश्रित और सम्पत्ति के स्वामी के बीच हुई सहमति के द्वारा हुआ है तो इसको भी ऋण के साथ ही प्राथमिकता दी जायेगी।
अधिनियम की धारा 25 के अनुसार परिस्थितयों में परिवर्तन होने या न्यायोचित होने पर न्यायालय भरण-पोषण की राशि में परिवर्तन कर सकता है।
महत्वपूर्ण मुकदमें (Case Laws)
अमर कांता सेन वर्सेस सोवान सेन (AIR 1960 Cal 438)
पति (सेवान सेन) को पत्नी के व्यभिचार के आधार पर तलाक की डिक्री मिली थी। डिक्री मिलने से पहले पत्नी के पक्ष में 200 प्रति माह के भरण-पोषण खर्च का अंतरिम आदेश हुआ हुआ था। डिक्री पारित होने के बाद पत्नी ने धारा 25 के तहत स्थायी निर्वाहिका के लिए न्यायालय में आवेदन लगाया।
न्यायालय के निर्णय के बाद पत्नी के तरफ से किसी तरह के गलत व्यवहार का सबूत नहीं था। याचिका दायर करते समय वह 90 रू प्रतिमाह अर्जन करती थी। बाद में उसने ऑल इंडिया रेडियों में 300 रू प्रतिमाह की नौकरी कर ली थी। पत्नी का तर्क था कि वह एक सम्मानीय घर की बेटी थी और एक सम्माननीय व्यक्ति से उसका विवाह हुआ था। तलाक के बाद वह मित्रों एवं संबंधियों से अलग और एकांकी हो गई। वह अब अपने पुत्र के साथ सम्मानीय एवं गरिमापूर्ण जीवन जीना चाहती है। उसका स्वाथ्य भी ठीक नहीं है। दूसरी शादी का उसका कोई विचार नहीं है। उसने अपने और अपने पुत्र के खर्चों का ब्यौरा दिया जिसके अनुसार उसका मासिक व्यय 315 रू प्रतिमाह है। उसपर 4000 रू का कर्ज भी है। दूसरी तरफ उसका पति प्रतिमाह 1700 रू वेतन पाता है। हिन्दू विधि में शीलभ्रष्टा पत्नी को जब तक कि वह गरिमापूर्ण जीवन बीताती है और पति आर्थिक रूप से सक्षम है तब तक उसे पति से भरण-पोषण पाने का अधिकार है। दूसरी तरफ पति का तर्क था कि पत्नी ने व्यभिचार कर वैवाहिक कर्तव्यों की अवहेलना की थी। इसी आधार पर उसे तलाक की डिक्री मिली थी। अत: पत्नी धारा 25 के तहत भरण-पोषण खर्च देने के लिए उत्तरदायी नहीं है।
न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या शीलभ्रष्टा पत्नी को धारा 25 के तहत भरण-पोषण पाने का अधिकार है?
कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार धारा 25 के तहत स्थायी निर्वाहिका के लिए न्यायालय को विवेकाधिकार (discreation) है कि वह तलाकशुदा पति और पत्नी को विशेष स्थिति को देखते हुए भरण-पोषण के खर्च के आदेश में परिवर्तन कर सके या उसे रद्द कर सके। “पत्नी को पता होना चाहिए और उसे यह महसूस होना चाहिए कि उसकी आजीविका भविष्य में उसकी पवित्रता से जीवनयापन करने में है।” प्रचीन हिन्दू विधि मे यद्यपि तलाक का कोई प्रावधान नहीं था लेकिन भ्रष्टा पत्नी के भरण-पोषण का दायित्व पति को दिया गया है। अगर पत्नी अनैतिक जीवन छोड़ दे तो पति का यह दायित्व हो जाता था कि वह उसे इतना भरण-पोषण खर्च दे जितना कि उसके जीवन के लिए आवश्यक (bare or starving allowance) हो। मुल्ला भी इस मत का समर्थन करते हैं।
उपर्युक्त आधार पर उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत मामले में पत्नी जीवन के आवश्यक (bare or starving allowance) खर्च पति से पाने की हकदार होती अगर उसके बाद जीवनयापन का कोई स्रोत नहीं होता। लेकिन पत्नी नौकरी से अपना जीवनयापन करने में सक्षम है। अत: दिनांक 17.09.1959 अर्थात् नौकरी शुरू करने की तारीख से वह पति से खर्च पाने की अधिकारिणी नहीं है।
पद्मजा शर्मा वर्सेस रतन लाल शर्मा (AIR 2000 SC 1398: (2000) 4 SCC 266)
दोनों का विवाह 1983 में हुआ और इस विवाह से उन्हें दो पुत्र भी हुए। 1990 में पत्नी ने तलाक के लिए याचिका दायर किया। उसने “स्त्रीधन” लौटाने, बच्चों की अभिरक्षा एवं अभिभावकत्व और उनके भरण-पोषण के लिए पति से खर्च के लिए भी प्रार्थना किया। उसने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भी खर्च पाने के लिए याचिका दायर किया। 1997 में उसने परिवार न्यायालय में दोनों बच्चों के भरण-पोषण के खर्चे के लिए धारा 26 के तहत भी याचिका दायर कर 2500 रू प्रतिमाह दोनों बच्चों के लिए माँगा। उसने बच्चों के स्कूल में एडमिशन के फीस के लिए 1985 रू और मुकदमें के खर्चे के लिए 5000 रू की माँग भी की। पति प्रतिमाह 6200 रू वेतन पाता था। परिवार न्यायालय ने बच्चों को बालिग होने तक माँ की अभिरक्षा में रखने और उनके खर्च के लिए दिनांक 04.10.1997 से प्रतिमास 500-500 रू देने का आदेश दिया। मुकदमें के खर्च के लिए 1000 रू देने का आदेश हुआ।
इस मामले में दो मुख्य विधिक प्रश्न थे-
1. विभिन्न अधिनियमों में प्रयुक्त “भरण-पोषण खर्च” (maintenance) शब्द का क्या अर्थ है? और
2. बच्चों के भरण-पोषण खर्च वहन करना क्या केवल पिता का दायित्व है? या इसके लिए माँ की आर्थिक स्थिति भी प्रासंगिक है?
उच्चतम न्यायालय के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA), अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA), हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, (HAMA) 1956 और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियमए 1956 (HSA)- ये चारो अधिनियम मिलकर हिन्दू विधि को संहिताबद्ध करते हैं। इन चारों में प्रयुक्त किसी भी शब्द को चारों के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। भरण-पोषण शब्द यद्यपि हिन्दू विवाह अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन इस शब्द का वही आशय होगा जैसा कि इसे हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 3 (b) में परिभाषित किया गया है।
दूसरे मुद्दे के विषय में न्यायालय का मत था कि हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 20 बच्चों और बुर्जुग माता-पिता के भरण-पोषण का प्रावधान करता है। इस धारा के अनुसार एक हिन्दू चाहे वह पुरूष हो या स्त्री अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए आबद्ध है। एक बच्चा, जब तक कि वह व्यस्क नहीं हो जाता अपने माता या पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकारी है। इसी अधिनियम की धारा 18 हिन्दू पत्नी को पति से आजीवन भरण-पोषण पाने का अधिकार देता है। इस धारा के अनुसार पति का यह दायित्व है कि वह अपने बच्चों एवं अपनी पत्नी का भरण-पोषण करे। कानून यह नहीं है कि माता कितनी प्रभावी स्थिति में है, कानून यह है कि पिता का यह दायित्व है कि वह अवयस्क बच्चों का भरण-पोषण करे।
प्रस्तुत मामले में दोनों पक्ष नौकरीशुदा हैं। पत्नी प्रतिमाह 3100 रू और पति प्रतिमाह 5850 रू पाते हैं। इसलिए बच्चों के पालन-पोषण में योगदान देने का दायित्व माता पर भी है। पति का वेतन पत्नी से लगभग दुगुना है अत: वह इसी अनुपात में बच्चों को भरण-पोषण देने के दायित्व के अधीन है। प्रस्तुत मामले के परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक बच्चे के लिए 3000 रू प्रतिमाह पर्याप्त होगा जिसे पिता और माता 2 रू 1 के अनुपात में वहन करेंगे। यह राशि उस 250 रू प्रतिमाह के अलावा होगा जो कि पिता दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत पहले से ही दे रहा है। इस तरह न्यायालय ने पत्नी के अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी रू हिन्दू विवाह के अन्तगर्त अंतरिम भरण-पोषण खर्च (maintenance ) से संबंधित प्रावधान। (LLB- 2009)
प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी: हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत अन्तरिम (pendent lite) भरण-पोषण (LLB- 2008, 2011)
प्रश्न- हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत भरण-पोषण से संबंधित प्रावधानों का वर्णन कीजिए। (LLB-2007)
प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी: हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 और 25 के अन्तर्गत भरण-पोषण। (LLB- 2008 2012)
प्रश्न- हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adoption and Maintanence Act, 1956), के अन्तर्गत भरण-पोषण के प्रावधानों का वर्णन कीजिए।